दबंग

                      
     डा. सुरेंद्र सिंह
इसे कहते हैं दबंग। १२ साल बाद राम-राम कह बड़ी मुश्किल से तो सजा की घड़ी आई, उसके बाद तीन घंटे में बेल और  दो दिन में ही स्टे। मुंबई की सेशन अदालत उसके ठेंगे पर।  चाहे मशल्स की ताकत हो, अभिनय हो, कोई नहीं टिक पाता,  कानूनी ताकत में भी अव्वल। यह ऐसा छक्का है जिसमें गुल्लियों का ही कहीं पता नहीं। ऐरा-गैरा नत्थू खेरा जेलों में सड़ने के लिए बने हैं, वह तो कोई-कोई विरला दबंग ही होता है जो इस अंधकार को भी चीर सकता है।
छह मई को जब पांच साल की सजा सुनाई तो बहुतों को खुशी हुई। ‘अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे’। इनमें कुछ उनके वे प्रशंसक भी हो सकते हैं- ‘‘देखें अपना सल्लू कैदी के असली रौल में कैसा लगता है?  खूब जमेगा’’। कुछ के अरमानों पर पानी फिरा होगा। हाय अल्ला अब क्या होगा? ‘एक दबंग’ (संजय दत्त) तो पहले से ही जेल में बंद है, अब दूसरा दबंग चला जाएगा तो तो ‘दबंग’ और ‘मुन्नाभाई’ कौन बनाएगा? यदि गति बनी रही तो सिनेमा जगत दबंगों से सूना हो जाएगा। कोई बचाए इस विपदा से? चिंता न करें, किसी की सुनी जाए या नहीं लेकिन आपकी सुन ली है, दबंग भाई जिंदाबाद।
दबंग कोई फैक्टरी में नहीं बनते, जन्मजात होते हैं। डीएनए में इसके गुणसूत्र होते हैं। अपने दबंग भी गुणसूत्र वाले हैं, ऐसे-वैसे नहीं। तभी तो २००२ मेंं हिट एंड रन कांड किया। इसके बाद भी किसी की परवाह नहीं, 2006  में काले हिरनों पर निशाना लगा दिया।अचूक निशाना है चाहे सड़क पर सोते बेसहारा लोग हों या जंगल में विचरण करने वाले हिरन। कोई बच नहीं सकता। ऐसी न जाने कितनी राम कथाएं भाई के नाम हैं।
 वैसे तो दबंग मोहल्ले-मोहल्ले में होते हैं। छोटे-मोटे फैसले करते हैं, मरियल दुकानदारों पर धौंस जमाते हैं। सांप्रदायिक दंगों के काम आते हैं। कुछ दबंग मंडियों के होते हैं। कोई झगड़ रहा है, -‘‘बुलाना भाई को अभी देखते हैं’’। दबंग के नाम से मामला शांत हो जाता है। खेलों में भी दबंग है, उनके आगे किसी की दाल नहीं गलती, ‘जान देनी है तो दे दो’, वरना ’लगे रहो मुन्नाभाई’। कालेजों में भी दबंग होते हैं। कुछ दबंग कभी-कभी अखबारों छप जाते हैं। वे अखबारों की कटिग दिखाकर लौगों पर रौब जमाते रहते हैं। अपने दबंग सुपर स्टार दबंग हैं।  सवा अरब के इस मुल्क में किसी को सोते में भी पूछ लो? भाई का ही नाम लेगा। कोई और नाम जुवान पर आ ही नहीं सकता। इसके अलावा राजनीति में भी दबंग हैं। एक दिल्ली के दबंग हैं तो एक पूरे देश के, सभी पार्टियां चारों खाने चित्त। एक दबंग पूरी दुनिया के भी हैं जो अपने, पराए में भेद करके चलते हैं।
मैं वर्षों से दबंग तलाश में रहा हूं,  कोई मिले जिसके मैं साक्षात दर्शन कर सकूं। फिल्म में देखना और दबंगों के किस्से सुनना अलग बात है, दबंग से साक्षात्कार होना अलग। उस दिन बीच सड़क पर मिल गया। बात इतनी भर थी, मेरी मोटर साइकिल उसकी मोटरसाइकिल से टकराते-टकराते बची। कायदे से गलती उसी थी, एक तो गलत साइड से चला रहा था, दूसरे सामने देख नहीं रहा था। लेकिन उसने आव देखा न ताव,  मुझे धर लिया। पचास गालियां सुनाई- ‘‘साले देखकर नहीं चलता...’’। -‘‘भाई साहब क्या बात हो गई?’’-‘‘अच्छा अब कहता है क्या बात हो गई’’, -‘‘एक्सीडेंट तो हुआ नहीं है, गाड़ी पर खरोंच में भी नहीं आया’’-‘‘अब एक्सीडेंट भी करेगा’’। झट मेरा कालर पकड़ लिया। मैंने हाथ जोड़े। -‘‘भाई गलती हो गई’’। आसपास के लोग इकट्ठे हो गए। उन्होंने भी मुझे डांटा- ‘‘देखकर नहीं चलता। जा अब आईंदा देखकर कर चलना’’। तब मैंने समझा यह दबंग है। मैंने उसके एक बार और हाथ जोड़े और सिर झुकाकर चल दिया। फिर अपने दबंग तो दबंगों के दबंग हैं। कहां सड़क का दबंग और कहां दबंगों के दबंग?

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