ऊंची उड़ान

               
   डा. सुरेंद्र सिंह
यह खुशी से बल्लियों उछलने का अवसर है तो गीत गाने का भी। क्योंकि लखनऊ में अब एक नहीं पूरे दो-दो फिल्म सिटी बनने जा रही हैं। एक आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस वे पर दूसरा उन्नाव के पास ट्रांस गंगा हाईटेक सिटी परियोजना में। जाहिर है कि इससे रोजगार तो बढ़ेगा ही, राजस्व भी बढ़ेगा। सबसे बड़ी बात यह है कि किराया कम खर्च होगा। सस्ते में फिल्म सिटी दिख जाया करेंगी।  जिस किराये के कारण मेरठ और आगरा वाले अधिवक्ता अपने-अपने यहां हाईकोर्ट खंडपीठ के लिए दशकों से आंदोलनरत हैं, वहां फिल्म सिटी की वह ख्वाहिश अपने अखिलेश भैया की कृपा से बिन मांगी मुराद की तरह पूरी होने जा रही है। यूपी वालों के लिए कहां मुंबई और कहां लखनऊ और उन्नाव ? जमीन-आसमान का अंतर है।
यह कोई पहली बार नहीं है, जब यूपी में फिल्म सिटी बनने जा रही है। यहां फिल्म सिटी कभी-कभी बनती ही रहती हैं। एक बार आगरा में एडीए की शास्त्रीपुरम परियोजना फेल हुई तो उसमें भी फिल्म सिटी बनाने की मुहिम चली। बड़े-बड़े अधिकारियों ने खूब इंटरव्यू छपवाए। पूरे महानगर और आसपास दिन-रात एक ही चर्चा बच्चे-बच्चे की जुबान पर आ गई। अब यहां भी फिल्म सिटी बनने जा रही है। जब दुनिया का सबसे खूबसूरत स्मारक यहां है तो फिल्म सिटी क्यों नहीं? भूला-भटका कोई कलाकार शहर में आ जाता, अखबार वाले झट फिल्म सिटी से उसका संबंध फिल्म सिटी से जोड़ देते। लोग शास्त्रीपुरम में मकान और भूखंडों के लिए चक्कर लगाने लगे। फिल्म सिटी में घर रहेगा तो उसकी वैल्यू ही अलग होगी। घर की छत से भी हीरो और हीरोइन देखे जा सकते हैं। उन्हें हेलो-हेलो कर सकते हैं। कभी-कभार हाथ भी मिला सकते हैं।  लड़के के रिश्ते वाले आएंगे तो उनसे कह सकते हैं हम फिल्म सिटी में रहते हैं। यारों-दोस्तों पर भी खूब प्रभाव रहेगा। लोगों ने न जाने कितने सपने पाले। अब लखनऊ, उन्नाव और इसके आसपास के लोग इसका मजा ले सकते हैं।
आगरा से पहले नोएडा में भी फिल्म सिटी बनाने की कवायद चलती रही है। लेकिन यहां टीवी चेनलों के कार्यक्रमों की शूटिंग आदि के लिए सुविधाएं ही हो सकी हैं। कभी-कभार दिल्ली भी इसी लाइन में रही है। गुजरे जमाने के जाने-माने अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा ने एक बार एनडीए सरकार के समक्ष पटना में फिल्म सिटी बनाने का प्रस्ताव रखा। तब वह अखबारों में खूब छाए। पुणे के लिए भी लिए भी प्रयास चलते रहते हैं। लेकिन मुई फिल्म सिटी मुंबई में ऐसी जमकर बैठ गई है कि वहां से  टस से मस नहीं हो रही।
कहने को हैदराबाद में रामोजी फिल्म सिटी बनी है लेकिन वह दक्षिण भाषाओं की फिल्मों तक ही सीमित है। पश्चिम बंगाल में प्रयाग फिल्म सिटी है, लेकिन उसमें भी कोई खास दम नहीं है। अब लखनऊ के पास बनने जा रही है तो जरूर इसमें दम होगा। कहने वाले कह सकते हैं कि इसे सैफई में क्यों नहीं बनवा रहे? हवाई पट्टी से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्टेडियम और एम्स सब वहीं बन रहे हैं तो केवल फिल्म सिटी को ही दूसरी जगह बनवाने से क्या होगा? सब बड़ी-बड़ी चीजें एक जगह रहेंगी तो ज्यादा सुविधा रहेगी।
मुझे हाल के वर्षों का एक वाक्या याद आ रहा है। दिल्ली के पास एक प्रमुख मार्ग के किनारे कुछ दोस्तों ने पहले दस-बीस एकड़ सस्ती मद्दी जमीन खरीदी। इसके बाद वहां एयरपोर्ट अथारिटी आफ इंडिया का बोर्ड लगाया। उस पर लिखा-‘ हवाई अड्डे का प्रस्तावित क्षेत्र’। कारों में कुछ लोगों को लाकर उन्हें इसका दौरा कराने लगे। फिर क्या था जंगल में आग की तरह खबर फैल गई। जमीन की कीमतें आसमान पर पहुंच गई। दोस्तों पहले खरीदी गई जमीन को महंगे दामों में बेचकर सैकड़ों करोड़ के मुनाफे के साथ रफू चक्कर हो गए। साथ में वह बोर्ड भी उखाड़ ले गए। अधिकारियों को उसका तब पता चला जबकि ‘चिड़िया चुग गई खेत’। लेकिन सपा सरकार में ऐसा कैसे हो सकता है? यह सरकार जो कहती है, वह करती है। इस कार्यकाल में नहीं कर पाएगी तो अगले कार्यकाल में सही।

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