और कितनी बलि?

         
       डा. सुरेंद्र सिंह
राजस्थान के गुर्जर फिर एक बार आंदोलन पर हैं। इसके तहत रेललाइनें उखाड़ आदि कर तमाम लोगों को परेशानी में डाला जा रहा है। अब तक इनके आंदोलनों में तकरीबन सौ लोगों की बलि चढ़ चुकी है। २००७ और २००८ के हिंसक आंदोलनों में चार दर्जन से ज्यादा मौतें हुई, इसमें पुलिस अधिकारी भी शामिल हैं।  यह आंदोलन अभी और कितनी बलि लेगा? कुछ नहीं कहा जा सकता।
गुर्जर देश की आजादी के बाद से ही आरक्षण की लड़ाई लड़ रहे हैं तब से अब तक न जाने कितनों को आरक्षण मिल चुका है। लेकिन इनकी मांग पूरी नहीं हो सकी है। इनकी पचास प्रतिशत कोटे के तहतं अनुसूचित जनजाति में पांच प्रतिशत आरक्षण की मांग जायज हो सकती है। माना जा रहा है कि आरक्षण नहींं मिलने के कारण ये अपनी समवर्ती मीना जाति से विकास की दौड़ में पिछड़ रहे हैं। लेकिन इसके लिए निर्दोष लोगों की जानें लेना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है, न पुलिस प्रशासन के लिए और न हीं आंदोलनकारियों के लिए। 
कोई दो राय नहीं गुर्जर मार्शल कौम है, हजारों सालों के देश  के इतिहास के अलावा उनके आंदोलनों के स्वरूप से भी यह प्रतिध्वनित होता है, ये किसी के आगे झुकने वाले नहीं हैं। ये हंसते-हंसते सीनों पर गोलियां झेल सकते हैंं। गुर्जरों की यह ताकत है तो यही कमजोरी भी। जो अपने सम्मान की खातिर किसी से नहीं डरता, उससे सामाजिक भेदभाव कौन कर सकता है? आरक्षण आर्थिक आधार पर नहीं सामाजिक भेदभाव के आधार पर मिलता है। देश के एक बहुसंख्यक वर्ग की मांग है कि आरक्षण आर्थिक आधार पर भी दिया जाना चाहिए।  क्योंकि मौजूदा समय में सामाजिक पिछड़ेपन से ज्यादा आर्थिक पिछड़ेपन का आधार  महत्वपूर्ण हो चला है। इसके लिए संविधान में संशोधन किया जाना चाहिए।
गुर्जर ऐसे अकेले नहीं हैं जिनके साथ यह अन्याय हो रहा है, अनेक जातियां हैं जो आरक्षण नहीं मिलने के कारण अपने को पिछड़ा मानती हैं। यदि वे सभी लोग गुर्जरों का रास्ता अख्तियार कर ऐसे ही आंदोलन करें तो अराजकता फैल जाएगी। ऐसी स्थिति में किसी के लिए भी व्यवस्था को चलाना मुश्किल हो जाएगा।
सवाल यह भी है कि यह कैसा आंदोलन है जो जनता के लिए जनता को ही परेशानी  में डाल रहा है? रेल लाइने उखाड़ने से लोगों को आवागमन के लिए तो दिक्कत हो रही है, सरकारी संपत्ति को भी क्षति पहुंच रही है। इसकी भरपाई किसी न किसी रूप से जनता से ही की जाएगी, उनसे भी जिनका इस आंदोलन से कोई सरोकार नहीं है। फिर निर्दोष लोगों की मौत और भी जघन्य है। केवल यही नहीं प्राय: सभी आंदोलनों में जनता को ही मुश्किल में डाला जाता है। इसलिए आंदोलनकारियों को अपनी जायज मांगे रखने के लिए ऐसे तरीके अपनाने चाहिए जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी नहीं टूटे। बहुत से तरीके हो सकते हैं। गांधीजी जब विदेशियों को मजबूर कर सकते थे फिर ये तो अपनी ही सरकार है, अपने ही लोग हैं। आजादी से पहले और अब की स्थिति में जमीन आसमान का अंतर है।
एक सवाल यह भी है कि सरकारी नौकरियां अब कितनी रह गई हैं। बहुत कुछ नौकरियां तो प्राइवेट क्षेत्र में हैं।  उनमें अच्छा वेतन और सुविधाएं है। इनके लिए आरक्षण की नही, योग्यता की जरूरत है। गुर्जरों में प्रतिभा है, इन्हें अपना मुकाम हासिल करने से कोई नहीं रोक सकता। गुर्जर समाज के लोग एकत्रित होकर अपने लोगों को शिक्षित और काबिल बनाने के लिए अभियान चला सकते हैं। ऐसे आंदोलन भी चला सकते हैं, जिसमें न तो किसी जान जाएगी और नही किसी को परेशानी होगी। किसी भी समाज की तरक्की सरकार के टुकड़ों से नहीं अपनी मेहनत से होती है।

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