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Showing posts from June, 2015

सात सौ करोड़ का ब्याय फ्रैंड

सात सौ करोड़ का ब्याय फ्रैंड डा. सुरेंद्र सिंह भाई लोग छह महीने से ढूढ़ रहे थे, कुंओं में बांस डाल रहे थे, खाक छान रहे थे, घर-घर अलख जगा रहे थे। लेकिन मुआ कुछ मिल ही नहीं रहा था। जाने कितनी बार अपने लोगों को प्रोत्साहित किया, जल्दी लाओ खोज के, पुरस्कार मिलेगा।  डांट भी लगाई,- ‘‘निकम्मो, कुछ करो, हाथ पर हाथ धरे बैठे रहोगे तो टापते रह जाओगे। फिर कुछ हाथ नहीं आने वाला’’। आखिर सफलता मिली ‘जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी बैठ....’। समय तो लगा पर मन की कुछ मुराद पूरी हुई, लो मिल गया- पूर्व आईपीएल अध्यक्ष ललित मोदी का मामला। सुषमाजी भ्रष्टाचार के मामले में बहुत बड़ी-बड़ी बातें करती थीं, ‘अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे’। दीजिए इस्तीफा। सबसे सरल और बड़ी मांग यही है। भूल गए क्या? इन्होंने भी तो खूब मांगे थे, इस्तीफे। जरा सी कोई बात हो, दो इस्तीफा, मनमोहन सिंह तक का इस्तीफा मांगा गया था।  मोदी पर क्रिकेट के भ्रष्टाचार और मनी लाड्रिंग आरोपों के चलते बीसीसीआई ने आजीवन प्रतिबंध लगाया था। सात सौ करोड़ के घपले के अरोपी को विदेश मंत्रालय ने विदेश जाने की अनुमति दी है। कोई छोटा-मोटा मामला नहीं है। पचास करोड़ की गर्लफ्

सपने सुहाने

डा. सुरेंद्र सिंह एक मंत्री जी लोगों को खासतौर से युवाओं को रेबड़ी की तरह सपने बांट रहे थे, -‘‘जिंदगी में यदि बड़ा बनना है तो बड़े से बड़े सपने देखिए। जब तक ऐसा नहीं करेंगे, बड़े नहीं बन सकते। सपने जरूरी है’’।  सपनदास तो कब से बड़ा बनने की चाह लिए हुए है। उसकी तो मानो बिन मांगे मुराद पूरी हो गई।  कोई तो मिला जो बड़े आदम बनने की सलाह दे रहा है, वरना तो सभी की यही कोशिश रहती है कि केवल वही बड़ा बना रहे, दूसरे सभी उससे नीचे रहें।  सपनदास ने ठान ली, मैं इस आदमी की बात जरूर मानूंगा, किसी और की बात मानूं या न मानूं। इसकी बातों में सार है। लिहाजा सायं को खूब अच्छी तरह खा पीकर और भजन-पूजन करके सोया। भगवान से वायदा भी किया कि आज अच्छा सा बड़ा होने का सपना दिखा दे सवा सौ रुपये का प्रसाद बाटूंगा। लेकिन उस रात कोई सपना ही नहीं आया। आधी से ज्यादा रात तो सपने के इंतजार में ही बीत गई इसके बाद जब आंख खुली तो दिन निकल चुका था। दफ्तर लेट पहुंचा और अफसर की डांट खानी पड़ी।  उसे ऐसी गुस्सा आई कि अपना मूड़ फोड़ ले। पूरी रात में साला एक सपना नहीं। बाकी रातों में न चाहने पर भी सपने पर सपने आते रहते हैं, ठीक से नींद तक न

बेड़ा गरक-9

डा. सुरेंद्र सिंह कक्षाएं दो महीने पहले से चालू हैं लेकिन बीकॉम और बीए इतिहास का अभी तक एक भी पीरिएड नहीं लगा। कैसे लगें? इनके लिए कोई प्रवक्ता नहींं है? कोर्स पिछड़ा जा रहा है, छात्र हल्ला करते हैं। कहां से आ जाएं प्रवक्ता? मैनेजर खर्च बढ़ाने के लिए तैयार ही नहीं हैं। उन्होंने लक्ष्मण रेखा खींच रखी है, इससे आगे कदम मत बढ़ाना। चाहे जो हो। कालेज कमाने के लिए खोला है, गंवाने के लिए नहीं। जब पानी सिर से ऊपर जाने लगा तब प्रिंसिपल ने बड़ी हिम्मत के साथ बात चलाई, शायद बात बन जाए नहीं तो दो टके का जवाब सुनने के लिए वह पहले से तैयार हैं। -‘‘सर, न हो तो कॉमर्स और इतिहास के लिए एक-एक प्रवक्ता रख लें? थोड़े दिनों के लिए। चार-पांच महीने के बाद हटा देंगे। इतने में ही काम चल जाएगा’’। मैनेजर की त्योरियां चढ़ते ही प्रिंसिपल सकपका जाते हैं। वह बात संभालने की कोशिश करें तब तक वह गोली दाग देते हैं- ‘‘अकल कहां चरने चली गई है? लगता है, तुम्हारे वश की बात नहीं है। कहां से लाओगे हर प्रवक्ता के लिए आठ-दस हजार रुपये प्रति माह?’’ चपरासी से-‘‘बुलाओ एकाउटेंट मेहरोत्रा को। कोई काम है, इस पर। फीस आती नहीं है....दिन भर क

बेड़ा गरक-8

डा. सुरेंद्र सिंह कई दिन से मुरछाए डा. गनेश सिंह के चेहरे पर सुरमई रौनक सी है, जैसे अंधे के हाथ बटेर लग गई हो। मैनेजर साहब पूछते हैं क्या बात है, कुछ हुआ? वह उत्साह के साथ जवाब देते हैं, -‘‘पांच-पांच में पच्चीस तय कर दिए हैं। इसी तरह दो-तीन और मामले फंस जाएं तो अपना बेड़ा पार’’। -शाबाश। इसी तरह लगे रहो’’। -‘‘सर कल ही पैसे भुगतान करने होंगे’’। -‘‘चिंता मत करो’’। अगले दिन जब वे वापस आते हैं तो चेहरे पर १२ बज रहे होते हैं। मैनेजर को हालचाल पूछने की जरूरत नहींं होती, चेहरा सारा बयान कर देता है। डाक्टर साहब के मुंह से बड़ी मुश्किल से निकलता है, -‘‘दूसरे लोग १२-१२ में सबको तोड़ ले गए सर’’। यह वाक्या यूपी बीएड काउंसलिंग का है। रोज ऐसे चमत्कारिक और इससे बढ़कर वाक्ये हो रहे हैं। एक तो जितनी कुल सीटें हैं, उससे कम ने बीएड की संयुक्त प्रवेश परीक्षा दी। इसके बाद उनमें से आधे से भी कम प्रवेश लेने के लिए काउंसलिंग केंद्रों पर आ रहे हैं, नतीजतन सभी कालेजों की सीटें खाली रहना स्वाभाविक हैं। इसलिए बीएड सीटें भरने को मारामारी मची है। ऐसी कुटिल चालें महाभारत में भी नहींं चली होंगी, जो इस वक्त चल रही हैं। बड़

बेड़ा गरक-7

डा. सुरेंद्र सिंह ये बाबूजी हैं, ऐसे ही जैसे दूसरे कालेजों के बाबू। फीस जमा करना, मार्कशीट काटना, प्रवेश करना, छात्रवृत्ति के फार्म भरना, कालेज का हिसाब-किताब रखना इनके पास ऐसे ही काम हैं जैसे दूसरे बाबुओं के। लेकिन ये आंखों पर मोटे चश्मे वाले गुजरे जमाने के काम से काम रखने वाले बाबू नहीं हैं, आधुनिक हैं। इनकी ंन केवल आधुनिक चाल-ढाल है बल्कि सोच भी आधुनिक है और ठाठ-वाट भी आधुनिक। इनके लिए निष्ठा-विष्ठा पुराने जमाने की चीज है। जो कुछ मिल जाए, वह अपना। ‘सबै भूमि गोपाल की’। ये नौकरी एक कालेज की बजाते हैं लेकिन ईमानदारी से काम दूसरे कालेजों के लिए करते हैं। कालेज से छु्ट्टी ले ली,  माताजी बीमार हैं, पहुंच गए दूसरे कालेज मे एडमीशन की लिस्ट देने। कभी नाना-नानी को मरी बता दिया। कभी पापा, भाई, भतीजे सबकी तकलीफों को अपने धंधे में भुनाते रहते हैं। दूसरे कई कालेजों के मालिकों से सीधे घर के से संबंध हैं। धंधा का धंधा, यदि एक कालेज से लात मारी जाए तो दूसरा तैयार। किसी को दस एडमीशन दिए तो किसी को बीस। एक साल में चालीस-पचास तक पहुंचा देते हैं। दूसरे जिलों और राज्यों के अपने जैसे लोगों से भी इनके स

बेड़ा गरक-6

डा. सुरेंद्र सिंह कहने के लिए ये नेताजी हैं, झकाझक सफेद कमीज और ऐसी ही पेंट। बातें बहुत बड़ी-बड़ी। किसी का भी कोई काम मिनटों मे करवाने का वायदा।  कोई एक बार बात कर ले फंसे बिना नही रह सकता। हाथ में भारी सा बैग। उनका यह बैग ऐसा-वैसा नहीं है,  कई डिग्री कालेजों का चलता-फिरता कार्यालय है। इसमें कालेजों के ब्रोशर से लेकर प्रवेश फार्म, बैंक एकाउंट खुलवाने के लिए कालेज की मोहर लगे तथा हस्ताक्षरित फार्म आदि भूसे की तरह भरे रहते हैं। जहां भी जाते हैं, वह यह बताना नहीं भूलते कि वे फलां पार्टी के प्रदेश स्तरीय पदाधिकारी हैं। एक बार एमएलए का चुनाव भी लड़ चुके हैं, आगे भी इसके लिए प्लानिग कर रहे हैं। कई कालेजो में इनका भारी रुतबा है। कारण यह है कि उन्हें चलवाने में उनका अच्छा खासा सहयोग रहता है। जाहिर है कि कालेज के मुख्य कर्ताधर्ता इन्हें सम्मान के साथ बुलाते हैं। साथ में खातिरदारी भी करते हैं। एकाध ने तो इन्हें अपने यहां आनरेरी कर्मचारी नियुक्त कर आईडेंटिटी कार्ड तक दे रखा है। घर पर कालेज के स्थानीय कार्यालय के बोर्ड भी लगे हैं। यह एक साथ अनेक मोर्चों पर तैयारी कर रहे हैं। यह घर-घर जाकर श्क्षिा

बेड़ा गरक-५

डा. सुरेंद्र सिंह ललुआ की पान की दुकान है। वह पढ़ा-लिखा ज्यादा नहीं है, मुश्किल से आठ होगा, इससे कम भी हो सकता है, ज्यादा हरगिज नहीं। लेकिन वह पढ़े-लिखों के कान काटता है। कालेजों के प्रवेश फार्म वह कालेज वालों से भी ज्यादा फर्राटे से भरता है। इस जमात में उसकी इतनी जान पहचान है उतनी किसी एमएलए की भी नहीं होगी। आसपास चारों ओर १०-१५ किलोमीटर के दायरे में शायद ही कोई ऐसा युवक होगा जो उसे नहीं जानता हो। कालेजों के प्रिंसिपल और मैनेजर उसे न केवल सम्मान के साथ बुलाते हैं बल्कि चाय भी पिलाते हैं। उसकी दुकान भी क्या है पिद्दी सी। एक छोटे से खोखे में पान के अलावा बीड़ी, सिगरेट, पान मसाला आदि से ज्यादा कागज भरे रहते हैं। वह भी रद्दी के नहीं, कालेजों के। किस कालेज में दाखिला लेना है, किसी के पास जाने की जरूरत नहीं, कालेज में पैर मत रखिए। ललुला से मिलिए। वह दुकान से ही एडमीशन करा देगा। बल्कि यह कहिए कर देगा। फीस भी ज्यादा नहीं लेगा। -‘‘ललुआ भाई हमें बीए में दाखिला लेना है’’। इतना बताने की जरूरत है। वह आसपास के तकरीबन सारे कालेजों की फीस और सुविधाएं एक ही सांस में बता देगा। यह छात्र के ऊपर निर्भर है,

बेड़ा गरक-४

डा. सुरेंद्र सिंह एडमीशन के लिए मारा-मारी मची है समरभूमि की तरह। चारों ओर हाथपैर मारे जा रहे हैं। कहीं से भी लाओ, एडमीशन कराओ। अनेक लोग जुटा रखे हैं, क्या टीचर, क्या बाबू, घर के नौकरों तक को जिम्मेदारी दे रखी है। दलाल भी लगे हैं। इस मौके पर मैनेजर भी खाली हाथ क्यों रहें? वह भी लगे हैं,  अपने मित्रों और जान पहचान वालों से। एक स्वजातीय बंधु इंटर कालेज के प्रिंसिपल से सहायता की गुहार करते हैं -‘‘भाई मदद करो, साला डिग्री कालेज क्या ले लिया? बुरे फंस गए हैं, आफत मोल ले ली है। पैसे के पैसे गए, अब दाखिले ही नहीं हो रहे। इसमें तो ब्याज भी नहीं निकलेगी।  ज्यादातर सीटें खाली पड़ी हैं। -‘‘आप चिंता न करें, दस-बीस जितने भी होंगे, मैं देख लूंगा। आप फार्म भिजवा दें। भरकर फीस समेत भिजवा दूंगा। एक विनती है, बच्चे पढ़ने कालेज में नहीं आएंगे। केवल इम्तिहान देंगे, वे लोग अपना काम करते हैं’’। -‘‘वह कोई बात नहीं। हाजिरी भरवा देंगे’’। -लेकिन हमारा ख्याल रखना’’। -‘‘इसकी आप चिंता बिल्कुल न करें। आपका हिस्सा आपको घर बैठे मिल जाएगा’’। कई दिन बाद मैनेजर एक प्रवक्ता को भेजकर भरे हुए फार्म मंगवाते हैं। किसी के साथ आ

बेड़ा गरक-३

डा. सुरेंद्र सिंह डिग्री कालेज में एडमीशन के लिए आधा सीजन बीत चुका है, अभी तक ऐसी स्थिति नहीं बनी कि क्लास चल सकें। ज्यों-ज्यों दिन बीतते जाते हैं, प्रिंसिपल के चेहरे पर चिंता की लकीरे उतनी ही गहरी होती जाती हैं, ‘जवान बेटी के हाथ पीले करने की चिंता की तरह’। प्रबंधक  कई बार डांट चुके हैं, -‘‘कुछ करो, ऐसे ही हाथ पर हाथ रखे रहोगे’’। लिहाजा प्रिंसिपल को उपाय सूझा  क्यों न इंटमीडिएट कालेजों की मदद ली जाए। बच्चे तो यहीं आते हैं। लेकिन संबंध कैसे स्थापित किया जाए, यह एक अहम समस्या है।  दोनों के स्तर में अंतर है।  इंटरमीडिएट कालेज वाले तो डिग्री कालेज वालों के सामने पानी भरते हैं। पर मतलब निकालने को ‘गधे को बाप बनाना पड़ता है’, ‘कभी-कभी उल्टी गंगा भी बह जाती है’।  सो पहले लिस्ट बनाकर उन्हें चाय पर आमंंत्रित करते हैं। रोजाना उन्हें फोन पर दोस्ती भरी बातें कर उन्हें फंसाने की कोशिश करते हैं लेकिन वे कोई न कोई व्यस्तता का बहाना बना छिटक कर चालान लोमड़ की तरह दूर हो जाते हैं। चाय के नाम पर एक नहीं फटकता। लिहाजा प्रिंसिपल को अब उनके पास जाने में भी एतराज नहीं है. ‘प्यासा कुंए के पास जाता है’, कुंआ

बेड़ा गरक-२

डा. सुरेंद्र सिंह अब ये शिक्षा के भावी कर्णधार हैं? देश का उज्ज्वल भविष्य हैं? परिवार वालों को इनसे बहुत उम्मीद हैं। इसलिए नहीं कि यह पढ़ाई में एक्ट्रा आर्डिनरी हैं, नंबर तो ऐसे ही घिसे-पिटे लाते हैं किसी तरह ले-देकर पास हो जाते हैं। एप्लीेकेशन लिखते हैं तो उसमें दस गलती करते हैं, कालेज का नाम तक सही नहींं लिख सकते। इनकी विशेषता है कि ये अपनी पढ़ाई का खर्च खुद निकाल लेते हैं, किसी पर बोझ नहीं बनते। बीएससी द्वितीय वर्ष में पढ़ रहे हैं। पढ़ाई में कम दूसरे कामों में ज्यादा व्यस्त रहते हैं। इनका मानना है कि पढ़ाई में क्यों टाइम खराब करें? पास तो हो ही जाएंगे। नौकरी नंबरों से नहीं जुगाड़ और पैसे से मिलती है। सो हर वक्त जुगाड़ में लगे रहते हैं। कालेज भी इनसे खुश है, क्योंकि यह उसकी भी मदद करते रहते हैं। कौन छात्र क्या हरकत करता है, किसने किससे क्या कहा आदि-आदि। कालेज का अधिकांश स्टाफ इन्हें नाम से जानता है। अभी प्रिंसिपल के पास आए हैं, गेट के पास खड़े होकर मुलाकात के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। कई मिनट हो गए, प्रिसिपल के सामने बैठे सज्जन अभी तक कुर्सी से चिपके हुए हैं। प्रिंसिपल सवाल की मुद

सैमरी या मैगी

डा. सुरेंद्र सिंह मैगी! मैगी! मैगी! बच्चे लोग मैगी के पीछे पड़े थे, ऐसे ही जैसे नौजवान लड़कियों के पीछे। यही चाहिए, केवल यही चाहिए, चाहे जान चली जाए। दावत में सौ तरह के व्यंजन हैं, एक से एक बढ़कर, जायकेदार लेकिन बच्चों का जमघट  मैगी के ही इर्दगिर्द लगता। बच्चे ही नहीं हर वय के लोग इसके दीवाने हो चले थे। वह तो भला हो केंद्रीय ग्रह मंत्री जेपी नड्डा का उन्होंने आंखेंं खुलवा दी। इसके बात तड़ातड़ इसकी बिक्री पर प्रतिबंध लगने लगा है। देखते ही देखते आधा दर्जन से ज्यादा राज्यों में प्रतिबंध लग गया है।  पर कहीं महीने-दो महीने, तो कहीं तीन महीने के लिए। इससे ज्यादा नहीं। ऐसा करने में गुंजाइश रहती है, प्रतिबंध को और आगे बढ़ा सकते हैं और यहीं तक भी रहने दे सकते हैं। इसके अपने-अपने गणित हैं। मैगी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, कुछ तो यह जानबूझ भी इसके फटे में पैर रख रहे थे। जब यह हानिकारक है तो स्वास्थ्य बर्धक कौन सी है, हर चीज में तो मिलावट है, आटे से लेकर मिर्च-मसाले, दूध, घी, पनीर, लौकी, तोरई, गोभी, टमाटर, यहां तक कि पानी भी शुद्ध नहीं है, फिर अकेले मैगी में क्या रखा है? किसी में थोड़ा ज्यादा तो किसी

बेड़ा गरक

डा. सुरेंद्र सिंह क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रेकिंग पर तो बेकार में गुस्सा करते है, उसने हमारे किसी भी विश्वविद्यालय को दुनिया के दो सौ श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों मेंं नहीं माना। लेकिन स्थिति इससे भी ज्यादा  खराब है। बल्कि खराब से भी खराब है। न केवल उच्च श्क्षिा बल्कि माध्यमिक शिक्षा और उससे नीचे प्राथमिक शिक्षा। पूरा अवा का अवा खराब हो चला है। शिक्षा का बेड़ा गरक है। बानगी के तौर पर इनसे मिलिए, ये जनाब बीएससी (मैथ) प्रथम वर्ष में दाखिले के लिए आए हैं। इंटरमीडिएट में शायद ही किसी दिन पढ़ने के लिए गए होंगे। लेकिन नंबर पूरे ८५ प्रतिशत। प्रिसिंपल के सामने ऐसे तन कर बैठे हैं, जैसे ये नहीं वे ही प्रिंसिपल हों, उनकी आंखों में आंखें डालकर पूछ रहे हैं, आपके यहां क्या परसेंटेज बन जाएगी? यहां भी वह पढ़ेंगे नहीं, सिर्फ परीक्षा देंगे। नकल की गारंटी हो तो एडमीशन लें। पढ़ाई किसे चाहिए, सबको तो परसेंटेज की जरूरत है। आप क्या सोच रहे हैं प्रिसिंपल साहब उसे डांट कर भगा देंगे। उससे कहेंगे तुम्हारी ऐसा कहने की हिम्मत कैसे हुई? यदि ऐसा करेंगे तो यह उनकी भारी भूल होगी। इससे वे नाकारा साबित हो सकते है। मैनेजमेट की

गली के कुत्ते

डा. सुरेंद्र सिंह गली के कुत्ते भी कुत्ते होते हैं, उनमें और दूसरे कुत्तों में इतना ही अंतर है, जितना फाइव स्टार आदमी और सड़क के आदमी में। फाइव स्टार कुत्ते कारों में चलते हैं, एयरकंडीशंड में रहते हैं लेकिन गली के कुत्ते गलियों में जहां अक्सर भों-भौं करते कुटते-पिटते, डांट खाते रहते हैं। फाइव स्टार कुत्ते केवल अपने मालिक की रक्षा करते हैं, लेकिन गली के कुत्ते पूरे मोहल्ले की। कितना ही इन्हें तिरस्कृत कर लो, लात-लाठी से मार लो, लेकिन ड्यूटी से विचलित नहीं होते। हर वक्त सोते-जागते एक ही धुन, क्या मजाल रात में कोई अनजान इंसान आ जाए। यहां तक कि अपनी बिरादरी वालों को भी फटकने नहीं देते। ये अपनी ड्यूटी के लिए ऐसे ही मुस्तैद हैं जैसे शिक्षा मित्र और अनुबंिधत कर्मचारी। ये ड्यूटी देते हैं, परमानेंट वाले वेतन और रिश्वत लेते हैं। गली के कुत्ते रिश्वत नहीं मांगते। चुगलखोरी नहीं करते। विश्वासघात भी नहीं करते।  जिम्मेदारी से नहीं हटते।  कुत्ते जिसकी खाते हैं, उसकी बजाते हैं और आदमी... जब कोई फाइव स्टार कुत्ता कार में जा रहा होता है तो वह गली के कुत्तों को ऐसे घूरता है-जैसे उसके सामने वे तुच्छ प्राणी

ऊपर का चक्कर

डा. सुरेंद्र सिंह ऊपर का चक्कर बहुत महान होता है, जो काम हनुमानजी भी नहीं करा सकते उसे ऊपर का चक्कर करा सकता है।  सारी दुनिया एक तरफ और ऊपर का चक्कर एक तरफ। यदि दोनों में छिड़ जाए तो फतह सौ आने ऊपर के चक्कर की होगी। मैंने डिक्शनरियों में देखा, गूगल पर बहुत तलाशा लेकिन इसका मीनिंग कहीं नहीं मिला। फिर भी ध्यान लगाया। ऊपर का चक्कर चीज ही ऐसी है- निराकार, साकार, अव्यक्त, चर-अचर, अजर-अमर, सर्वव्यापक। बहुत पहले भी इसका चक्कर था और अब जबकि लोग २१ सदी में पहुंचने के बाद २२ सदी में जाने की तैयारी चल रही है तब भी इसके प्रभाव में कहीं कोई कमी आती नहीं दिख रही।। जब जेम्सवाट की खोज पर बनी दुनिया में पहली रेलगाड़ी चली तो बहुत से लोग समझे, इस पर ऊपर का चक्कर है। कई साल पहले एक बाबा आते थे, होटल में रुकते। प्रेस कांफ्रेंस करके बताते कि वह बाबरी मसजिद विवाद हल कर सकते हैं। मैंने पूछा कैसे? यह तो बहुत बड़ा काम है, इसके नाम पर जाने कितने ही दंगे फसाद हो चुके हैं। जो काम बड़े-बड़े नेता नहीं कर सके, सरकार भी इसके सामने लाचार है...। वह रहस्यपूर्ण मुद्रा में बताते- ऊपर के चक्कर से। मैं पूछता- यह ऊपर का चक्कर क्य