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Showing posts from August, 2020

‘ गुस्से में श्रीराम’

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                                                               धरती अचानक जोरों से हिलने लगी, हिलने क्या डगमगाने लगी। बड़े-बड़े वृक्ष धराशायी होने लगे, वाहन आपस में टकराने लगे। क्या स्कूटर-मोटरसाइकिलें,  कारें, बसें, ट्रक और रेलगाड़ियां भी खिलोनों की तरह पलटने लगे।  भयंकर आंधियों के बीच हवाई जहाज पतंगों की तरह कलाबाजी खाकर गिरने लगे। नदियां और समुद्र हिलोरें लेने लगे। बड़ी-बड़ी अट्टलिकाएं धराशायी होने लगीं। चारों तरफ हाहाकार होने लगा। लग रहा जैसे  अब कुछ नहीं बचेगा,  सृष्टि खत्म होने वाली है। क्या होगा?  हे, भगवान। लोग मंदिरों, गुरुद्वारों, मसजिदों और गिरिजाघरों की ओर भागने लगे। कहीं कोई आसरा नहीं दिख रहा।  सरकारी मशीनरी हाथ में हाथ दिए असहाय खड़ी है। उसका कोई वश नहीं चल रहा। अब तो भगवान का ही आसरा है। सभी श्रद्धालु अपने-अपने भगवान से प्रार्थना करने लगे, प्रभु बचा लो। आपके अलावा कोई सहारा नहीं है। धार्मिक स्थलों की भी वही हाल जो अन्य भवनों  का था, चारों तरफ तबाही ही तबाही। पढ़े- लिखे तिकड़मी लोग मंत्रियों और अफसरों को फोन मिलाने लगे शायद उनके बचाव के लिए कोई अलग रास्ता निकल आए। भगवान  किसी की

स्वाधीनता 15 अगस्त को ही क्यों?

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                                                           आज हम जब 74 वां स्वाधीनता दिवस मना रहे हैं, जेहन में एक सवाल कौंध सकता है कि हमारे देश को स्वाधीनता 15 अगस्त 1947 को ही क्यों मिली?  इसके आगे पीछे किसी अन्य तिथि को क्यों नहीं? जबकि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस 1930 से हर साल 26 जनवरी को स्वाधीनता दिवस मनाती आ रही थी। इसके तहत कार्यक्रम कर आजादी के लिए संकल्प लिए जाते थे। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उसकी नहीं मानी। आखिर क्यों? देश को आजाद तो उन्हें करना ही था। याद रहे कि ब्रिटेन ने भारत को कोई यूं ही आजाद नही किया। लेबर पार्टी जिसकी सत्ता उस वक्त थी, वह पहले से इसके पक्ष में थी। इसके अलावा दूसरे द्वितीय विश्वयुद्ध में उसकी आर्थिक हालत खराब हो चुकी थी। भारत में उसके लिए शासन करना मुश्किल हो रहा था। गांधीजी के आंदोलनों और जनता का सहयोग नहीं मिलने से उनके सामने परेशानी ही परेशानी थी। स्थिति यह थी कि वह जल्द से जल्द पिंड छुड़ाने के पक्ष में थी। ब्राउन जूडिस मार्गरेट की पुस्तक ‘मार्डन इंडिया दी ओरीजन आफ एन एशियन डेमोक्रेसी ’(1996, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रकाशन, पेज330) के अनुसार ब्रिटेन के त

धर्म के दरवाजे अब बंद करें

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                                               समय आ गया है कि अब हमें धर्म के दरवाजे बंद कर देने चाहिए। कानूनन इस पर रोक लगा देनी चाहिए। सारे धार्मिक स्थलों  को स्कूल, कालेजों, अस्पतालों के लिए इस्तेमाल करना चाहिए। जो लोग इसमें रोजगार पा रहे हैं, उन्हें इन्हीं स्कूल कालेजों में नौकरी दे दी जाए। लात किसी के भी पेट पर न मारी जाए।  धर्म कभी इंसान की जरूरत रही होगी । यह भी संभव है कि प्रकृति के अनुसुलझे रहस्यों को नहीं समझने पर उन्हें धर्म का नाम दे दिया गया हो। धर्म ने कुछ हद तक दुनिया को संवारा और सजाया है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता । लेकिन नुकसान भी कम नहीं किया। धर्म के नाम पर भारी अत्याचार  हुए हैं। कितने ही करोड़ लोगों की जानें गई हैं, इसका कोई हिसाब-किताब नहीं है। धर्म के नाम पर शोषण की कोई सीमा नहीं है। सबसे ज्यादा शोषण  विधर्मियों, गरीबों और कम पढे-लिखे लोगों का होता है।   दंगे सबसे ज्यादा धर्म के नाम पर होते हैं। भेदभाव भी धर्म के नाम पर होता है। फालतू के कर्मकांड धर्म के नाम पर होते हैं। हर तरह का प्रदूषण सामाजिक, आर्थिक, भौतिक (वायु, जल, ध्वनि) धर्म के नाम पर है। सामाजि

भारत किस युग की ओर?

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                        - डा. सुरेंद्र सिंह हम अब देश को किस युग में ले जाने की कोशिश कर रहे हैं? 16वीं सदी में जबकि बाबर के हुक्मरानों ने अयोध्या में श्रीराम के मंदिर को तोड़ा अथवा त्रेतायुग में जबकि  श्रीराम धरती पर जन्मे, उन्होंने धर्म की स्थापना और अंसुरों के विनाश के लिए अनेक लीलाएं कीं। सम्मानित प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह पांच  अगस्त को अयोध्या में श्रीराम मंदिर के निर्माण के लिए शिला पूजन किया। अपने संबोधन में इसे पांच सौ साल के दरम्यान का सबसे बड़ा ऐतिहासिक कदम बताया। उसके दृष्टिगत इस तरह के अनेक सवाल उठना स्वाभाविक है। बाबरी  मस्ज्जिद तोड़ने की घटना पहले ऐतिहासिक नहीं थी, दुनिया के किसी इतिहास में इसका जिक्र नहीं है। यदि यह घटना हुई भी तो इतनी तुच्छ थी कि इसे किसी  इतिहासकार ने लिखने लायक समझा ही नहीं जबकि बाहर से आए आताताइयों द्वारा अनेक मंदिरों को तोड़ने, लूटपाट किए जाने और नरसंहार का इतिहास में जिक्र है। चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने इस पर मोहर लगा दी है और जनमानस में भी इसके बारे में विश्वास है। इसलिए बाबरी मसजिद को ध्वस्त किए जाने, दंगों में हजारों लोगों की जानें जाने

खामियां नई शिक्षा नीति की

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                                                     - डा. सुरेंद्र सिंह केंद्र सरकार द्वारा 34 साल  बाद घोषित  नई शिक्षा नीति को आजकल चारों तरफ से खूब वाहवाही मिल रही है न केवल शिक्षा जगत के विद्वान बल्कि विपक्ष के कई नेता भी खुलकर इसकी  तारीफ कर रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि नई शिक्षा नीति में कई अच्छी बातें हैं। मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में कमियों के अंबार को देखते हुए उम्मीद की जा रही है कि उनसे कुछ तो निजात मिलेगी। पर वास्तव में नई शिक्षा नीति में अब तक जो बातें उभर कर आई हैं, उसके अनुसार तो यह एक बहुत अच्छे नारे की तरह है जो मन को तो मोहती है लेकिन इसमें खामियों की भी कमी नहीं है। जिस बड़े उद्धेश्य को लेकर यह तैयार की गई है, उससे उसकी पूर्ति असंभव है। नई शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए एक बड़ा लक्ष्य निर्धारित किया गया है। इसके तहत उच्च शिक्षा में पंजीकरण 28.5 प्रतिशत से बढ़ाकर 50 प्रतिशत  करने का लक्ष्य वर्ष 2035 तक के लिए रखा गया है। बहुत अच्छी बात है, उच्च शिक्षा में पंजीकरण बढ़ना ही चाहिए। यदि शुरुआत से बात की जाए तो हमारे यहां नौ प्रतिशत लोग ही उच्च शिक्षा प्र