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Showing posts from January, 2021

दारा सिंह का कुत्ता

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                                                        जी हां यहां उन्हीं दारा सिंह की बात है जिन्होंने पहलवानी के मामले में भारत का दुनियाभर में नाम रोशन किया,  जो कभी रुस्तमे हिंद रहे। उन्होंने अपने से करीब दुगने वजन के पहलवान किंग कौंग को चारों खाने चित्त किया, जीवन में एक भी कुश्ती नहीं हारी। इसके बाद उन्होंने सौ से ज्यादा फिल्मों में काम किया, उनके हनुमानजी के किरदार को सबसे ज्यादा सराहा गया। हां, उन्हीं का कुत्ता।   कैसा होगा? जरा सोच कर बताइए? कुछ लोग कहेंगे, उनके जैसा ही बलिष्ठ जर्मन शैफर्ड या अन्य किसी विशेष प्रजाति का होगा।  तो कुछ लोग हाथ कंगन को आरसी क्या,  गूगल पर तुरंत  सर्च करने लगेंगे, कुत्ता था भी या नहीं। मत सर्च करिए।  इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता, उनके पास कुत्ता था या नहीं क्योंकि कुत्ते की उन्हें जरूरत ही क्या होगी। उनके डर से वैसे ही चोर उचक्के घर के पास नहीं फटकते होंगे।   बात जब कुत्ते की चली है तो ‘धोबी का कुत्ता घर का न घाट का’ की बात कैसे बिना चर्चा रह सकती है। कौन जाने किस परिस्थिति में यह कहावत चलन में आई होगी। (धोबी भाई क्षमा करें चूंकि कहावत में यह शब्द

अमेरिका में हिंदी

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                                                        अमेरिका में हिंदी का इतिहास ज्यादा पुराना नहीं है। विश्वयुद्ध के दौरान विदेशी भाषाओं के ज्ञान की आवश्कता को देखते हुए ही यहां हिंदी सीखने की शुरुआत की गई।  संभवतया सबसे पहले हेनरी होनिंग्सवाल्ड ने समतालीन बोलचाल की  हिंदी की रुपरेखा ‘स्पोकन हिंदुस्तानी’ में प्रस्तुत की। इसके बाद हिंदी ने कभी मुड़कर नहीं देखा। विगत कुछ दशकों से यहां भारतीयों की संख्या अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है, इसी के साथ हिंदी भी फली- फूली है। पाकिस्तान, बंगला देश, नेपाल को छोड़ दुनिया के किसी भी एक देश में हिंदी बोलने और समझने वाले वालों की इतनी संख्या इतनी किसी अन्य देश में नहीं है, जितनी अकेले अमेरिका में। डा. करुणाशंकर उपाध्याय की पुस्तक ‘हिंदी का विश्व ‘ संदर्भ में अमेरिका में हिंदी बोलने और समझने वालों की संख्या 1.10 करोड़ बताई है जो गले नहीं उतरती है। मौजूदा समय में  यहां  दस लाख हिंदुस्तानी मतदाता हैं। करीब इतने ही ऐसे हिंदुस्तानी होंगे जिन्हें मताधिकार नहीं है। पाकिस्तानी, नेपाली और बंगलादेशी भी आपस में हिंदी बोलते और समझते हैं। इस प्रकार कह सकते हंैं कि यहा

अटल बिहारी वाजपेयी बनाम नरेंद्र मोदी

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                                                          अब यदि अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री होते तो क्या किसानों का यह आंदोलन इतना तूल पकड़ता? शायद नहीं। लेकिन यह एक कल्पना ही है। अब इसका कोई मतलब नहीं है। फिर भी जब तुलना करनी ही हो तो जिन्होंने अटलजी के तीन बार के प्रधानमंत्रित्व काल की राजनीति को देखा है, उनका  बरबस ही उत्तर होगा- नहीं,  बिल्कुल नहीं। किसानों से जुड़े कानूनों को लेकर वह इतनी जिद नहीं करते। क्योंकि वह सबको साथ लेकर चलने वाले राजनेता थे।  एक बार जबकि उनके प्रधानमंत्री  रहते जम्मू कश्मीर से धारा 370 धारा हटाने को लेकर सुगबुगाहट हुई तो कुछ नेताओं के विरोध किए जाने पर उन्होंने तुरंत स्पष्ट किया, जब तक सभी सहयोगी नहीं चाहेंगे वे ऐसा कोई कदम नहीं उठाएंगे। इसके बाद उन्होंने धारा 370 हटाने का इरादा त्याग दिया। जबकि धारा 370 हटाना उनके चुनावी एजेंडे में शामिल था। यह तो ज्यादाकर लोग जानते हैं कि मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल में 2002 में गुजरात में एक हफ्ते तक दंगों के दौरान भारी खून खराबा होने पर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी नाराज हो गए थे। पत्रकारों द्वा्रा पूछे ग