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Showing posts from May, 2015

मन की बात

      डा. सुरेंद्र सिंह मन बेलगाम घोड़ा की तरह है, पागल हाथी की तरह है। मन पवन से भी तेज चलायमान है, पानी से भी पतला है। सर्वगम्य है, जहां कोई नहीं पहुंच सकता, वहां यह पहुंच सकता है। यदि मन के साथ चले तो यह अंधेरे कुएं में गिरा देगा। इसलिए मन की लगाम कस कर रखो। जिसका मन पर वश, वही सर्वस्व। शास्त्रों की इस तरह की न जाने कितनी बातें सुन-सुन कर कान पक गए हैं और मन थक गया हैं। अब ‘मन की बात‘ हो रही है। देश के मुखिया के मन की बात है तो इसमें जरूर कोई तथ्य की बात होगी। मैं ठहरा धर्म भीरू, शास्त्रों को सही मानूं या ‘मन की बात’।  यह ‘मन की बात’ है या ‘मन के लड्डूओं की बात’? मन में लड्डू कभी फूटते हैं और फूटकर ही रह जाते हैं, इससे आगे कोई क्रिया नहीं होती। मन सपने की तरह है, इसमें कुछ भी संभव है। यह राजा को रंक बन सकता है और रंक को राजा। इससे कारू का खजाना मिल सकता है, बदन के कपड़े भी उतर सकते हैं,  ‘हर्र लगे न फिटकिरी, रंग चोखा ही चोखा’। मन आश्वस्ति देता है। बेसहारों का सहारा है। यदि मन नहीं हो तो आदमी पागल हो जाए। यह मन ही तो है जो सब कुछ ला सकता है।  यह दिमाग और शरीर में संतुलन बनाकर रखता है।

सूटबूट और सूटकेस

      डा. सुरेंद्र सिंह लोग कहें कुछ भी, सूटबूट और सूटकेस का अन्योन्याश्रित संबंध है, ऐसे ही जैसे आग और धुंआ। आग है तो धुआं जरूर होगा और धुआं है तो आग। लेकिन मैदाने जंग में भाई लोग लड़े जा रहे हैं -‘‘तेरे पर सूटबूट है’’। -‘‘तेरे पास सूटकेस है’’। -‘‘तेरे पर कई सूटबूट हैं’’,  -‘‘तेरे पर कई सूटकेस हैं’’। तू-तू, मैं-मैं इतनी जोर से है कि दूसरे लोगों के लिए यह समझना मुश्किल हो चला है कि आखिर ये कहना क्या चाह रहे हैंं? क्यों कहना चाह रहे हैं। अरे भाई जिसका जो सामान है, उसके लिए है, तुम्हें क्यों जलन हो रही है। भगवान ने दिया है ‘छप्पर फाड़ के’। पहले किसी को ससुराल जाना होता तो एक दूसरे से मांग कर सूटबूट और सूटकेस ले जाते ताकि रिश्तेदारी में धाक बन सके। कोई समझे कि हम हैं।  कई को इसमें गर्व का अहसास होता कि वह लोगों के काम आ रहे हैं ‘परहित सरिेस धरम नहिं कोई’ तो कुछ लोग उन्हें छिपाकर रख देते कह देते-‘‘हम पर कहां हैं? बहुत पहले खराब हो गए’’। कुछ लोगों पर सूटकेस होता तो कुछ पर सूटबूट। दोनों एक दूसरे के काम आते। काम चलता रहता। कोई-कोई इतने ओछे, एक बार काम न चलाया तो उलाहना देते- ‘‘तूने हमें सूटक

ह्वाइटनर

                 डा. सुरेंद्र सिंह ह्वाइटनर मुआ निकम्मा सिर्फ कागज पर ही लगता है। यदि यह दिल पर लग जाता तो न जाने कितनों की जानें बच जाती, कितनों को डाक्टरों के चक्कर लगाने से मुक्ति मिल जाती सेहत ठीक रहती, ब्लड प्रैशर नहीं बढ़ता और न जाने क्या से क्या हो जाता, दुनिया बदली-बदली सी नजर आती। घर-घर के दोस्त-दोस्तों के, आस-पड़ोस के रिश्ते खराब होने से बच जाते। लेकिन क्या किया जाए, यह सिर्फ कागज का ही मुरीद है। कागज पर कोई गलती है फौरन लगाओ, फौरन उसे छिपाओ।  भूल सुधार के लिए यह साफ सुथरा तरीका है। नेताओं की तरह। अंदर से चाहे कितने ही कलुषित हैं लेकिन बाहर एकदम झकाझक टिनोपाल युक्त। पहले भी क्या था जो एक बार लिख गया, वह लिख गया, पत्थर की लकीर। मुगलकालीन स्मारकों की दीवारों पर सैकड़ों साल पहले लिखे को देख लो, आज भी वैसा ही दमकता है। कोई माई का लाल उसे बदल नहीं सकता। जो एक बार गलती हो गई, वह हो गई। पहले स्याही भी ऐसी पक्की थी जो छुड़ाए नहीं छुटती। बाद में गलती सुधार जमाना आया। पहले गलती सुधार कार्बन पेंसिल आई। उसके साथ रबड़ का अटल संंंबंध स्थापित हो गया। गलती हो तो फौरन सुधारो। एक हाथ में पेंसि

लड़कियां फिर आगे

            डा. सुरेंद्र सिंह लड़कियां फिर-फिर आगे हैं। कोई भी रिजल्ट आ रहा हो. यूपी बोर्ड, सीबीएसई अथवा आईसीएसई, यह तय है लड़कियों को ही आगे रहना है। पिछले कुछ सालों से बदले सूचकांक की तरह यह नियति जैसा है। पहिया जब आगे को घूमता है तो घूमता चला जाता है जब उल्टा चलता है तो उल्टा ही चला जाता है। लड़कियों का मामला भी अब कुछ ऐसा ही है। किसी भी सर्वेक्षण या मार्केर्टिंग के लिए चार लड़कों और इतनी ही लड़कियों को भेज दो, सायं को रिजल्ट यही होगा, लड़कियां आगे। प्रशासनिक कार्य हो, अनुशासन का मामला हो, लड़कियां ही आगे। रास्ते में जरा लड़कियों को छेड़कर देखिए, कोई-कोई लड़की ऐसी दुर्गा बन जाती है, लड़कों को दुम दबाकर भागना पड़ता है। बहुत पहले यह धारणा थी कि लड़की का मतलब फिसड्डी, शरीर से ही नही, दिमाग से भी। लड़कों की तुलना में दबी-दबी सी। मेरे भाई का लड़का है। बहन उससे तीन साल बड़ी है। लेकिन वह उस पर इस तरह रौब गांठता है कि वही उसका अभिभावक हो। कहां जा रही है, किससे बात कर रही है, स्कूल से आने में देर क्यों हुई? ऐसी जाने कितनी जन्मजात आदतें हैं लड़कों की वे लड़कियों को अपने सामने दो टके की नहीं समझते। मैंने

किसने किस की क्लास ली

         डा. सुरेद्र सिंह अब लो यह भी मुद्दा है। किस ने किसकी क्लास ली? किसने किस की कक्षा अटैंड की। खैर मोदी ने देर से ही सही पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की क्लास अटैंड कर ली। उन्होंने लीक नहीं तोड़ी। तकरीबन सभी प्रधानमंत्री अपने से पूर्व प्रधानमंत्रियों की क्लास अटैंड करते रहे हैं। अटल बिहारी वाजपेयी और चौधरी चरण सिंह ने भी ऐसा किया। अटल ने पीवी नरसिंह राव की क्लास अटैंड की और चौधरी चरण सिंह ने श्रीमती इंदिरा गांधी की। ज्यादातर प्रधानमंत्री पदभार ग्रहण करने के तत्काल बाद ही ऐसा करते आए हैं। कई बार पहले क्लास अटैंड कर लेते हैं, बाद में पदभार संभालते हैं। अपनी-अपनी समझ और सुविधा है। मोदी के बारे में यह कह सकते हैं कि उन्होंने देर से इस पर ध्यान दिया लेकिन प्लानिंग तो मनमोहन सिंह की ही चला रहे थे। सारी योजनाएंं उनकी कार्यान्वित कर रहे थे। नाम नहीं ले रहे थे तो क्या? नाम में क्या रखा है।  गैस पेपर से तो उन्हींं के से काम चल रहे हैं।  प्राचीन काल में अपने यहांं गहरे से गहरे दुश्मनों की क्लास अटैंड करने मेंं परहेज नहीं किया गया। भगवान राम ने रावण से शिक्षा ली। उनके द्वारा लक्ष्मण को

मंदिर-मंदिर

                      डा. सुरेंद्र सिंह खेल कई तरह के हैं। कुछ लोग कबड्डी-कबड्डी खेलते हैं, कुछ क्रिकेट-क्रिकेट, कुछ हाकी ही हाकी, तो कुछ लोग मंदिर-मंदिर खेलते हैं तो कुछ लोग भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार खेल रहे हैं। अपनी-अपनी पसंद के खेल हैं। कुछ लोग खेल के नाम पर पूरी जवानी गुजार देते हैं, जो लत पड़ गई, वह बुढ़ापे में भी नहीं जाती। किसी न किसी तरह खेल से ही जुड़े रहते हैं। कुछ लोग खेल न जानने पर खेलों के सर्वेसर्वा बन जाते हैं। ऐसे ही कुछ लोग दशकों तक एक ही खेल खेलते रहते हैं। विरले होते हैं तो समय से संन्यास ले लेते हैं। खेल से जिंदगी आसान हो जाती है। खेल न हो तो जिंदगी कितनी उबाऊ और नीरस हो जाए। पुरखों ने बहुत सोच समझकर इन्हें ईजाद किया। महानगरों में जिन्हें दिन में टाइम नहीं मिलता वे रात में खेलते हैं। कुछ लोग जिन्हें इसके लिए अवसर नहीं मिलता, वे काम को खेल की तरह खेलते हैं। खेल-खेल में लकड़ी काटने में लकड़हारे की कुल्हाड़ी नदी में गिर गई। रोने लगा, अब किससे खेले? यक्ष को दया आई। वह लोहे की जगह पीतल की कुल्हाड़ी नदी से निकाल लाया। शायद इससे खुश हो जाए। लकड़हारा फिर भी रोने लगा। यक्ष पीतल की

प्रधान सेवक

                  डा. सुरेंद्र सिंह अपने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब प्रधानमंत्री नही हैं, प्रधान सेवक हैं। चुनाव के दौरान भी उन्होंने बोला था अब जबकि उनके कार्यकाल को एक साल पूरा हो चुका है, उन्हें याद है। वह अपनी जिम्मेदारी से बचने का प्रयास नहीं कर रहे।  तीन लोक से न्यारी मथुरा के फरह स्थित दीनदयाल धाम में २५ मई २०१५ को भी उपलब्धियों के साथ इसकी घोषणा कर दी है। लकीर हमेशा बड़े लोग बनाते हैं, छोटे उस पर चलने के लिए बने होते हैं। गृह मंत्री चाहें तो अपने को गृह सेवक कह सकते हैं। वित्त मंत्री भी अपने को वित्त सेवक कह सकते हैं। केंद्र सरकार के जो मंत्री अपने को मंत्री कहेंगे वे अनुशासनहीन माने जाएंगे और जो सेवक कहलाएंगे वे अनुशासित, आज्ञाकारी, पुरस्कार के हकदार।  मंत्री के स्थान पर सेवक कहलाने में अनेक सुविधा हैं। मंत्री के स्तर से कोई काम न होने का उलाहना दे तो झट कह सकते हैं, वह मंत्री नहीं सेवक है। अपने अखिलेश भइया के लिए अगला समय चुनौती भरा है। इसके बाद उन्हें चुनाव की अग्निपरीक्षा से गुजरना है। वे चाहे तो मोदीजी का अनुसरण कर सकते हैं। अच्छी बातें दुश्मनों से भी सीखने में हर्ज नहीं

दरवाजा बंद हो जाए

       डा. सुरेंद्र सिंह आदमी की पहचान केवल शक्ल-सूरत, पहनावे-ओढावे, बोल-चाल, चाल-ढाल से ही नहीं, दरवाजे से भी होती है। सही पूछी जाए तो सबसे अच्छी, पुख्ता और सटीक पहचान दरवाजे से ही होती है। वैसे तो आदमी की तरह दरवाजे भांति-भांति के होते हंैं-नाटा दरवाजा, मीडियम दरवाजा, बड़ा दरवाजा, विशाल दरवाजा, डिजाइनदार दरवाजा, सादा दरवाजा, टाट का दरवाजा, पुरानी दरी का दरवाजा, लकड़ी का दरवाजा, लोहे का दरवाजा, स्टील का दरवाजा, पीतल का दरवाजा। कुछ लोग घर चाहे कैसा हो लेकिन मुख्य दरवाजा व्यकित्व की तरह प्रभावशाली बनवाते हैं। वैसे तो किसी दरवाजे की दूसरे दरवाजे से शक्ल-सूरत नहीं मिलती। कुछ दरवाजे एक जैसे दिखने पर भी उनकी भाव-भंगिमाएं अलग-अलग होती हैं।  कुछ दरवाजे एकदम खुले रहते हैं, चाहे कोई आओ-जाओ बेरोकटोक। कुत्ते, बिल्ली और दूसरे जानवर भी उनके यहां सम्मान पाते हैं। वे किसी को भी रोकना अपनी तौहीन समझते हैं, सभी अल्ला की संतान हैं, इसमें भेदभाव कैसा। उन्हें चोरी-चकारी का भी डर नहीं। कुछ दरवाजे खुलने और बंद होने का इंतजार करते हैं। कोई दरवाजे पर आए तो उसके स्वागत में पलक पांवड़े बिछाकर खुद-व-खुल जाते हैं औ

असली फील गुड

     डा. सुरेंद्र सिंह इसे अपने केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली का नहले पर दहला कहें या उलटबांसी? कबीरदासजी की उलटबांसी में तो मछली पेड़ोंं पर चढ़ती हैं, समुद्र में आग लगती है। लेकिन जेटली साहब ने वह कर दिखाया है जो कोई नहीं कर सका। आजादी के बाद कितनी ही सरकारें आईं और गईं। कितने ही कानून बने और संशोधित हुए। कितने ही विभाग गठित हुए, बड़े-बड़े अधिकारी नियुक्त हुए और रिटायर हो गए। लेकिन भ्रष्टाचार का कोई बाल बांका नहीं कर सका। सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे भी शायद अब इसलिए शांत हैं कि अब लोकपाल की जरूरत ही कहां रह गई है? लोकपाल तो भ्रष्टाचार के मामलों की जांच के लिए होता। जब भ्रष्टाचार ही नहीं है तो लोकपाल कैसा? मोदी सरकार एक साथ कई मोर्चों पर लड़ रही है। अच्छे दिन न सही, महंगाई कम न सही, किसानों को राहत न सही, किसान विरोधी भूमि अधिग्रहण बिल ही सही, अयोध्या में राम मंदिर न सही, बेरोजगारों को रोजगार न सही, डीजल और पेट्रोल की कीमतों पर कंट्रोल न सही, कश्मीरी पंडितों की कश्मीर में वापसी न सही, लेकिन भ्रष्टचार तो खत्म किया। राजनीतिक और सरकारी भ्रष्टाचार। बताइए कहीं हुआ? एक साल में और क्या किसी

और कितनी बलि?

                 डा. सुरेंद्र सिंह राजस्थान के गुर्जर फिर एक बार आंदोलन पर हैं। इसके तहत रेललाइनें उखाड़ आदि कर तमाम लोगों को परेशानी में डाला जा रहा है। अब तक इनके आंदोलनों में तकरीबन सौ लोगों की बलि चढ़ चुकी है। २००७ और २००८ के हिंसक आंदोलनों में चार दर्जन से ज्यादा मौतें हुई, इसमें पुलिस अधिकारी भी शामिल हैं।  यह आंदोलन अभी और कितनी बलि लेगा? कुछ नहीं कहा जा सकता। गुर्जर देश की आजादी के बाद से ही आरक्षण की लड़ाई लड़ रहे हैं तब से अब तक न जाने कितनों को आरक्षण मिल चुका है। लेकिन इनकी मांग पूरी नहीं हो सकी है। इनकी पचास प्रतिशत कोटे के तहतं अनुसूचित जनजाति में पांच प्रतिशत आरक्षण की मांग जायज हो सकती है। माना जा रहा है कि आरक्षण नहींं मिलने के कारण ये अपनी समवर्ती मीना जाति से विकास की दौड़ में पिछड़ रहे हैं। लेकिन इसके लिए निर्दोष लोगों की जानें लेना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है, न पुलिस प्रशासन के लिए और न हीं आंदोलनकारियों के लिए।  कोई दो राय नहीं गुर्जर मार्शल कौम है, हजारों सालों के देश  के इतिहास के अलावा उनके आंदोलनों के स्वरूप से भी यह प्रतिध्वनित होता है, ये किसी के आगे झुकन

वादे हैं वादों का क्या

          डा. सुरेंद्र सिंह एक साल पूरा होने पर वादों को लेकर मोदी सरकार सवालों के घेरे में है। न केवल विपक्ष बल्कि मीडिया वाले सरकार और पार्टी से सवाल पर सवाल पूछ-पूछ कर उन्हें नंगा किए दे रहे हैं। बोलो, चुनाव के दौरान के वादों का क्या हुआ? क्या किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य मिलने लगा है? कालाधन विदेशों से वापस आ गया है, महंगाई कुछ कम हुई है? क्या अयोध्या में श्रीराम मंदिर बन गया है? क्या कश्मीर से धारा ३७० हट गई है? क्या लोगों के अच्छे दिन आ गए हैं? वादों को लेकर बहुत सारे सवाल दर सवाल हैं।  लेकिन अखिलेश यादव वादों को लेकर चतुर हैं। वह किसी को पूछने का अवसर ही नहीं दे रहे, कोई पूछे उससे पहले ही वे गोली दाग देते हैं कि उनकी सरकार ने अपने सारे वायदे पूरे कर दिए। शायद ही कोई जनसभा हो जिसमें वे, उनकी सरकार के मंत्री और नेता यह कहना भूलते हों। पश्चिम बंगाल में ममता और बिहार में नीतीश कुमार भी अपने सारे वादे पूरे नहीं कर पाए। मनमोहन सिंह और उनके पहले की सरकारों के भी तमाम वायदे अधूरे रह गए। उनसे तो कोई कुछ नही कहता, सब बेचारे मोदी के पीछे पड़े हैंं। -‘‘हमें किसी योजना के बारे में

मोदीजी की विदेश यात्राएं

    डा. सुरेंद्र सिंह एक साल का हनीमून मनाने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब जीवन के कड़े यथार्थ से टकराने लगे हैं। चाहे भूमि अधिग्रहण का मामला हो या प्राकृतिक आपदा से तबाही के बाद किसानोंं को  अपर्याप्त सहायता आदि तमाम मुद्दों से उन्हें जूझना पड़ रहा है।  सबसे ज्यादा आलोचना का शिकार उनकी विदेश यात्राएं हैं। कोई कह रहा है कि वह विदेश में देश की राजनीति कर रहे हैं तो कोई उन्हेंं विदेश का प्रधानमंत्री बता रहा है। यह भी कहा जा रहा है कि वे अपनी सरकार के किसी मंत्री खासतौर विदेश मंत्री का नंबर ही नहीं आने दे रहे, खुद ही सारी विदेश यात्राएं कर ले रहे हैं। अखबार ही नहीं सोशल साइट्स भी उनकी विदेश यात्राओंं पर चुटकियों से भरी पड़ी हैं। कोई कह रहा है कि मोदी अपने देश से ज्यादा विदेश में रहते हैं तो कोई उनकी विदेश यात्राओंं ब्योरेबार विवरण दे रहा है। ऐसी टिप्पणियां भी की जा रही हैं कि अब मोदी स्वदेश लौटकर आएंगे अथवा नहीं? इसमें कोई दो राय नहीं कि आजादी के बाद मोदी एक साल के भीतर सबसे ज्यादा विदेश यात्राएं करने वाले देश के पहले प्रधानमंत्री बन गए हैं। वह पिछले साल सबसे पहले भूटान से यात्रा शु

अरुणा की अरुणिमा

                       डा. सुरेंद्र सिंह कभी-कभी कोई छोटी सी जिंदगी और उसकी एक घटना भी एक मिसाल बन जाती है। जो वर्तमान ही नहीं अगली पीढ़ियों के लिए भी अंधेरे  में झिलमिलाती रोशनी का काम करती है। अरुणा न केवल जीकर बल्कि कर भी ऐसी ही एक मिसाल बन गई है। अरुणा ने अपने जीवन में कोई ऐसा काम नहीं किया, जिसके लिए उसे लोग उसे याद करें, यह भी कह सकते हैं कि उसे इसके लिए अवसर ही कहां मिला? २२ वर्ष की उम्र में जबकि वह जूनियर नर्स थी, दरिंदे ने बहशी हरकत कर उसकी जिंदगी तबाह कर दी। इसके कारण वह ४२ वर्षों तक जिंदा लाश बन कर रही।  कर्नाटक के हल्दीपुर की रहने वाली अरुणा शानबाग की तकलीफदेह  जिंदगी मानवता के लिए मील का पत्थर है। इस दौरान आर्थिक आदि परिस्थितियों के चलते जहां उसके परिवारीजन तक उससे मिलने के लिए भी नहीं आए। वहीं उनकी सहयोगियों ने जिस प्रकार उसकी सेवा की, वह अतुलनीय है। वे न केवल अरुणा के लिए इच्छा मृत्यु मांगने वाली उसकी पत्रकार मित्र पिंकी विरानी के खिलाफ लड़े बल्कि उसका शव परिवारीजनों तक देने के लिए खिलाफ हो गए। यह इंसानियत समाज के लिए प्रेरणास्पद है। इससे प्रमाणित होता है कि समाज में अभी 

यूपी बोर्ड का रिजल्ट

                         डा. सुरेंद्र सिंह यूपी बोर्ड का रिजल्ट जब-जब आता है, तब-तब न कुछ न कुछ अपना निशान छोड़ जाता रहा है, जैसे-बाढ़, भूकंप, चेचक, पैरालेसिस आदि। बाढ़ के बाद मकानों की दीवारों पर चिन्ह रह जाते हैं, लोग उंगली के इशारे से बताते हैं, यहां तक पानी चढ़ा था। भूकंप में भी निशान बनते हैं, वे अलग तरह के होते हैं। आप कहेंगे कि इसमें तो तबाही ही तबाही है, तमाम लोग मारे जाते हैं। लेकिन सब  जगह तो नहीं। कहीं-कहीं एकाध की जान लेकर भूकंप बाकी को बख्श देता है। रिजल्ट में भी हर वर्ष अनेक बच्चों को लील जाता है। रिजल्ट में कम नंबर दिखे झट जान दे दी, जान न हुई गाजर-मूली हो गई। कंबख्तो, ऐसे क्यों करते हो, रिजल्ट तो हर साल आता है, तकरीबन एक ही समय पर । पहली बार में न सही तो अगली बार में सही। यह कोई कुंभ थोड़े ही है जो बारह साल में आएगा। जो घोड़े से गिरता है वही तो सवारी करता है। फेल नहीं होंगे तो पास कैसे होगे? मत भूलें, फेल भी कभी-कभी टॉपर हो जाते हैं । चेचक शरीर पर दाग छोड़ जाती है तो पैरालेसिस का असर भी रह जाता है। ऐसे ही निशान रिजल्ट के होते हैं।  पहले हाईस्कूल में पास होना भारी मुश्किल था। 

ऊंची उड़ान

                   डा. सुरेंद्र सिंह यह खुशी से बल्लियों उछलने का अवसर है तो गीत गाने का भी। क्योंकि लखनऊ में अब एक नहीं पूरे दो-दो फिल्म सिटी बनने जा रही हैं। एक आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस वे पर दूसरा उन्नाव के पास ट्रांस गंगा हाईटेक सिटी परियोजना में। जाहिर है कि इससे रोजगार तो बढ़ेगा ही, राजस्व भी बढ़ेगा। सबसे बड़ी बात यह है कि किराया कम खर्च होगा। सस्ते में फिल्म सिटी दिख जाया करेंगी।  जिस किराये के कारण मेरठ और आगरा वाले अधिवक्ता अपने-अपने यहां हाईकोर्ट खंडपीठ के लिए दशकों से आंदोलनरत हैं, वहां फिल्म सिटी की वह ख्वाहिश अपने अखिलेश भैया की कृपा से बिन मांगी मुराद की तरह पूरी होने जा रही है। यूपी वालों के लिए कहां मुंबई और कहां लखनऊ और उन्नाव ? जमीन-आसमान का अंतर है। यह कोई पहली बार नहीं है, जब यूपी में फिल्म सिटी बनने जा रही है। यहां फिल्म सिटी कभी-कभी बनती ही रहती हैं। एक बार आगरा में एडीए की शास्त्रीपुरम परियोजना फेल हुई तो उसमें भी फिल्म सिटी बनाने की मुहिम चली। बड़े-बड़े अधिकारियों ने खूब इंटरव्यू छपवाए। पूरे महानगर और आसपास दिन-रात एक ही चर्चा बच्चे-बच्चे की जुबान पर आ गई। अब यहां भी फिल

अब कब बढ़ेंगे?

    डा. सुरेंद्र सिंह कुछ चीजें ऐसी होती हैं जो अनायास होती हैं, उनके होने से पहले किसी को भनक तक नहीं लगती, वे हो जाती हैं, जैसे भूकंप। कुछ चीजें ऐसी भी होती हैं, जिनका इंतजार रहता है। ये तो होंगी ही, ये ब्रह्म सत्य की तरह अटल हैं , जैसे मानसून, बेमौसम वर्षा, रिजल्ट, जैसे महंगाई, जैसे पेट्रोल, डीजल की कीमतें। जब परीक्षा दी है तो रजिल्ट  आएगा ही आएगा। बरसात के मौसम में मानसून भी आएगा, लेट भले ही हो जाए। ऐसे ही पेट्रोल और डीजल की कीमत बढ़नी हैं तो बढ़ेंगी ही। कोई विधाता की करनी को कैसे रोक सकता है?  पहले पेट्रोल, डीजल की कीमतों में उतार आना शुरू हुआ, तब आए दिन कुछ न कुछ पैसे घट जाते। यह भाग्य वाले का करिश्मा था।   अब चढ़ाव के दिन हैं तो आए दिन कीमतें चढ़ती ही जाती हैं। १५ दिन पहले पेट्रोल के दाम ३.९६ रुपये प्रति लीटर और डीजल के दाम २.३७ रुपये प्रति लीटर बढ़े अब फिर से पेट्रोल ३.३६ रुपये और डीजल २.८३ रुपये प्रति लीटर बढ़ गया है।  अब कब बढ़ोत्तरी होगी? १५ दिन में या इसके कम ज्यादा में। इसका सबको इंतजार जरूर होगा? पहले कमी पैसों में होती थी, अब बढ़ोत्तरी रुपये में हो रही है तो रुपये में ही चलती च

छोरियां हैं, जरा बच के

    डा. सुरेंद्र सिंह एक वो छोरियां हैं जो रुपहले पर्दों पर दिखती हैं, हर दम यारों के इर्द-गिर्द चक्कर चकई की तरह घूमती हैं, क्षण में मुरझा जाती हैं तो क्षण में खिलखिला उठती हैं। एक वे छोरियां हैं जो महानगरों में दिन पर दिन बदलती फैशन को भी मात देती रहती हैं। वे फैशन से नहीं फैशन इनसे चलती हैं। फिल्मों वाले शायद इन्हीं की नकल कर-करके अपना काम चलाते हैं। इन्हीं लिए उनके इर्द-गिर्द मधुमक्खे मड़राते रहते हैं, ‘आ बैल मुझे मार’, कहावत शायद इन्हीं के लिए बनी है।  नाजुक इतनी कि जरा सी धूप इनके चेहरे को जला डाले, बचने को मुंह ढंककर चलती हैं।  जमीन पर जरा पैर टेड़े-मेड़े पड़ जाएं तो मोच आ जाए। इसलिए जमीन पर उचक-उचक और गिन-गिन कर पैर रखती हैं। एक ये गांव की छोरियां हैं, जिनके कारण हैंडपंप हैंचू-हैंचू करते हैं। यदि शहरी छोरे चलाएं तो दो हत्थे मारने में सांस फूल जाए लेकिन इनके सामने आज्ञाकारी बालक की तरह चलते हैं। ये दिन भर में कितना पानी जमीन से खींच लेती हैं, इसका कोई हिसाब किताब इनके पास भी नहीं होगा। अब घर से हैंडपंप तक दो चक्कर पीने के पानी के हो गए। अब तीन चक्कर परिवार के लोगों के नहाने के हो ग

इस्लामिक स्टेट

     डा. सुरेंद्र सिंह छोटे और नासमझ बच्चे जमीन पर रेंगते चीटों को पकड़ कर जब चाहे तब रगड़ देते हैं, उन्हें मार देते हैं। वे अपने मन में समझते हैं कि वह हमारा भगवान है तो हम चीटों के। उसके हाथ में हमारा जीवन है तो हमारे हाथ में इनका जीवन। देखो मैंने इसकी टांग तोड़ दी, इसकी गर्दन तोड़ दी, इसकी जीवन लीला समाप्त कर दी, मैं चाहूं तभी तक इनका जीवन है।  इस्लामिक स्टेट, तहरीक-ए-तालिबान सरीखे आतंकवादी संगठन ऐसे ही भ्रम का शिकार लगते हैं।  १२ मई को जिस इस्लामिक स्टेट ने पाकिस्तान के कराची शहर में बस में सवार ४५ लोगों को गोलियों से भूना वह बहुत ज्यादा पुराना संगठन नहीं है। इसके तार बेशक अलकायदा स भीे जुड़े रहे है,  लेकिन वर्ष २००६ में इराक में इसकी नींव पड़ी।  अबू बकर अल बगदादी इसके नेता बने। जब तक वहां अमेरिकी सेनाएं रहीं, इसे सिर नहीं उठाने दिया गया।  २०१० में इसे ताकत मिली। २०१३ में इसका विस्तार इराक से बढ़कर सीरिया तक हुआ। तब इसका नाम इस्लामिक स्टेट इन इराक एंड लेवंट (एलएसआईएस) हो गया। इसके बाद उसी साल दिसंबर में इसने इराक में शिया आधारित सरकार बनाई। इसका पहला केंद्र इराक का फलूजा शहर बना। इसके बा

पीछे पड़ा भूकंप

           डा. सुरेंद्र सिंह लगता है अब भूकंप पीछे ही पड़ गया है, ‘पिछौरिया डालकर’। पहले सालों, कभी-कभी दशकों बाद आता था लेकिन अब आए दिन। जब देखो तब भूकंप चला आ रहा है, अपनी सारी शक्तियों को लेकर। किसी को होश नहीं लेने देता, जब तक इंसान संभल नहीं पाता तब तक फिर से हमला कर देता है। आखिर यह चाहता क्या है। या तो यह अनाड़ी है या फिर इसकी हम लोगों से तगड़ी दुश्मनी है । अरे भाई जो करना है एक बार में कर ले, वैसे ही इस दुनिया में कौन सा सुख है, जिनके पास साधन हैं, उनके पीछे आयकर, प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई वाले पड़े रहते हैं जिनके पास कुछ नहीं है, वे दो जून की रोटी के लिए रोज मर-मर कर जीते हैं। कम से कम तड़फा-तड़फा कर तो मत मार। भूकंप कब आएगा और कहां आएगा? इसका किसी को पता नहीं। भूवैज्ञानिक और अन्य विज्ञानियों की तो एक सीमा है, वे विचारे ईमानदारी से स्न्वीकार भी कर रहे हैं कि अभी विज्ञान इतना सक्षम नहीं है कि इसकी ऐसी भविष्यवाणी कर सकें जिससे बचाव किया जा सके।  लेकिन ये पंडित, पुजारी और ज्योतिषी जो सब कुछ जानने का दावा करते हैं, भगवान से अपने सीधे तार जुड़े बताते हैं, ये  ही कुछ बताएं। इनके ऊपर जन

छप्पर फाड़ के

                        डा. सुरेंद्र सिंह अपने इस लोकतंत्र के साथ यह बड़ी ‘सुविधा’ है कि इसमें आसानी से तो कोई पकड़ा नहीं जाता यदि पकड़ा भी जाए तो कुछ दिन अंधकार रहता है फिर  उसे चीरकर फिर से प्रकाश में आने में कामयाब हो जाता है। जैसे अपनी जयललिताजी।  उन्होंने थोड़े से समय में ही अपने को निर्दोष साबित कर दिया। १९ साल पुराने केस का दस सेकंड में ही फैसला। भगवान जब देता है तो छप्पर फाड़ कर देता है।  जब आय से अधिक संपत्ति पकड़ी गई थी, तब लोग चौक रहे थे, हाय राम, इतनी संपत्ति(६६ करोड़), २००० एकड़ जमीन, इतनी चप्पलें, इतने जेबरात (३० किलो सोना), १२ हजार साड़ियां? गजब! लोगों ने इतना सामान देखा तो क्या सुना भी नहीं था। क्या करती होंगी इनसे?  लेकिन अब कोर्ट ने मान लिया है कि इनके पास आय से दो प्रतिशत  कम संपत्ति थी। यह पक्का सबूत है। सारे सबूत एक तरफ कोर्ट का सबूत एक तरफ। अब वह निष्कंटक राज करेंगी। हाथी वाली मेडम के भी कुछ दिन अंधकारमय रहे लेकिन अंतत: उन्होंने भी विजय पा ली, उन पर भी आय से अधिक संपत्ति नहीं पाई गई। । साइकिल वाले भद्रजन पूर्व सरकार में खूब अच्छी तरह अंधकार को चीरते रहे, उन पर भी अभी तक आ

सौ सरस्वती नदियां

                       डा. सुरेंद्र सिंह अस्तित्व मिटने के करीब दस हजार साल बाद अब सरस्वती नदी की खोजबीन की जा रही है। सरस्वती शोध संस्थान से लेकर, सरस्वती हेरिटेज विकास बोर्ड आदि इसके लिए काम कर रहे हैं। हरियाणा सरकार ने सौ करोड़ मंजूर कर दिए हैं, इसमें पचास करोड़ जारी भी हो गए हैं।  रवि प्रकाश शर्मा की नई किताब ‘न्यू डिस्कवरी रिसर्च एबाउट वैदिक सरस्वती’ में दावा किया गया है कि इसके अवशेष मिल गए हैं राजस्थान के जेसलमेर जिले के कालीबंगान और मोहानगढ़ के निकट धरती के १२ फुट नीचे, चालीस फुट चौड़ी जलधारा के रूप में। इसमें मिले पानी की क्वालिटी को सरस्वती नदी के मूल पानी की संज्ञा दी गई है। इस खोजबीन ने लोगों सरस्वती नदी की मृगतृष्णा जगा दी है खासतौर से उन लोगों में जो हर पुरानी चीज को ज्यादा अच्छी और प्िवत्र मानते हैं। यह नदी कितनी पुरानी थी, इसका अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि ऋग्वेद में इसका वर्णन है। इसमें इसे अन्नवती, उद्गवती के नाम से भी जाना गया है।  यह नदी सदा जल से भरी रहती थी। तब यह पंजाब के सिरमूर राज्य के पर्वतीय क्षेत्र से निकलकर  अंबाला और कुरुक्षेत्र से होती हुई करनाल जिला

वजन घटाओ

                 डा. सुरेंद्र सिंह इस जमाने में वजन घटाने के नाम पर जो कुछ भी हो जाए, वह थोड़ा है। वजन घटाना फैशन सा है। जिसे देखो वजन घटाने में लगा है। अभी एक दिन सुबह-सुबह एक पुराने मित्र से भेंट हो गई। चेहरे पर दिन के बारह बजे थे, आंखें अंदर घुसी जा रही थीं, हड्डियों पर नाममात्र को गोस्त था । मेरे से नहीं रहा गया, -‘‘भाई बहुत बीमार रहे हो?’’ उसने झट कह दिया-‘‘वजन घटा रहा हूं’’। वजन घटाने के नाम पर कुछ भी कह दीजिए, चलेगा। किसी भी डाक्टर के पास जाओ, तमाम सारी दवाएं लिखने के बाद वजन घटाने के लिए जरूर कहेगा। यह ऐसे ही है जैसे वैद्यजी हर बीमारी के इलाज के लिए दवाओं के साथ पथ्य के रूप में नौन, मिर्च, तेल, घटाई का परहेज जरूर बताते हैं।  यदि उनकी दवाओं से मरीज को फायदा न हुआ तो झट से कह देते हैं, परहेज ठीक से नहीं किया होगा? परहेज के साथ गुजाइंश रहती है, अगर- मगर करने की। वही सुविधा वजन के नाम पर है। मेरे को डाक्टरों ने वजन घटाने की बात नौ के पहाड़े की तरह इतनी रटवाई कि वजन घटाते-घटाते पुन: बीमार हो गया। अस्पताल के आईसीयू में भर्ती होना पड़ा। चार बोतलें खून की चढ़वाईं। तब जाकर जान मे जान आई। इ

नेताजी हैं न (५)

              डा. सुरेंद्र सिंह ‘टिनन...टिनन....’। नेताजी ने फोन कान पर लगाया-‘‘हेलो, क्या मंत्रीजी आ रहे हैं? कब आ रहे हैं’’, -‘‘कल सुबह ही’’। -‘‘इतनी जल्दी? कुछ समय तो दिया होता।’’ -‘‘अर्जेट है, बालाजी के दर्शन को जा रहे हैं आर्शीवाद लेने। उन्हीं की कृपा से यहां तक पहुंचे हैं, उन्हें कैसे भूल सकते हैं। रास्ते में थोड़ी देर को यहां आराम को रुकेंगे’’। -वह तो ठीक है, लेकिन स्वागत सत्कार तो होना ही चाहिए। -‘‘वह क्यों नहीं और काहे फोन लगाया?’’  -‘‘कितने आदमियों का इंतजाम करना है’’। -‘‘पांच सौ तो हो ही जाएं, कुछ ठीक-ठाक मामला जम जाए’’- ‘‘बस, हो जाएंगे’’। फोन बंद कर कार्यकर्ताओं से- ‘‘भोलेराम, सुखबीर सिंह, राधेश्याम, यूसुफ, धनी सिंह तुम अपने-अपने मोहल्ले में जाओ, लोगों से  मोहल्लों की समस्याएं सुलझवाने के लिए आवेदन लिखवाओ।  उन पर लोगों के ज्यादा हस्ताक्षर या अंगूठा निशानी लगवाओ, उन्हें बताओ, अधिकारियों के चक्कर लगाते-लगाते बहुत हो गया। अब मंत्रीजी आ रहे हैं, उनसे आदेश करा देंगे। इससे अच्छा मौका फिर नहीं मिलेगा। दर्शन के दर्शन के दर्शन और काम का ‘काम दोनों हाथ लड्डू’। ज्यादा से ज्यादा लोग ले

दबंग

                            डा. सुरेंद्र सिंह इसे कहते हैं दबंग। १२ साल बाद राम-राम कह बड़ी मुश्किल से तो सजा की घड़ी आई, उसके बाद तीन घंटे में बेल और  दो दिन में ही स्टे। मुंबई की सेशन अदालत उसके ठेंगे पर।  चाहे मशल्स की ताकत हो, अभिनय हो, कोई नहीं टिक पाता,  कानूनी ताकत में भी अव्वल। यह ऐसा छक्का है जिसमें गुल्लियों का ही कहीं पता नहीं। ऐरा-गैरा नत्थू खेरा जेलों में सड़ने के लिए बने हैं, वह तो कोई-कोई विरला दबंग ही होता है जो इस अंधकार को भी चीर सकता है। छह मई को जब पांच साल की सजा सुनाई तो बहुतों को खुशी हुई। ‘अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे’। इनमें कुछ उनके वे प्रशंसक भी हो सकते हैं- ‘‘देखें अपना सल्लू कैदी के असली रौल में कैसा लगता है?  खूब जमेगा’’। कुछ के अरमानों पर पानी फिरा होगा। हाय अल्ला अब क्या होगा? ‘एक दबंग’ (संजय दत्त) तो पहले से ही जेल में बंद है, अब दूसरा दबंग चला जाएगा तो तो ‘दबंग’ और ‘मुन्नाभाई’ कौन बनाएगा? यदि गति बनी रही तो सिनेमा जगत दबंगों से सूना हो जाएगा। कोई बचाए इस विपदा से? चिंता न करें, किसी की सुनी जाए या नहीं लेकिन आपकी सुन ली है, दबंग भाई जिंदाबाद। दबंग कोई फैक्टरी

हे प्रभु! यादव सिंह जैसा बना दो

डा. सुरेंद्र सिंह यादव सिंह ने पिछले जन्म में जरूर कोई बड़  पुण्य किए होेंगे, कड़ा तप किया होगा जो अब लक्ष्मीजी की उन पर इतनी असीम कृपा हुई।  जैसे नाबलिंग से दुराचार के मामले में फंसे पाखंडी आशाराम बापू के बारे में भी यह कहते हुए लोग मिल जाते हैं कि बाबाजी को गलत फंसाया गया है। उन पर गलत ग्रहों का प्रकोप चल रहा है, देख लेना एक दिन वह जरूर पाकसाफ बाहर निकलेंगे। उसी तरह यादव सिंह के बारे मेंं चर्चा करने वालों की कमी नहीं है। । यादव सिंह जैसे लोग हर सदी में, हर युग में, हर महकमे में, हर राज्य में होते आए हैं जो कानून कायदों को खूंटी पर टांगते हुए सुपरस्टार जिंदगी जीते हैं। प्राचीन काल में इनकम टैक्स जैसा कोई विभाग कहां था जो बिना बताए, किसी भी दिन किसी भी टाइम आ टपके। फिर गर्दन ऐसी पकड़े कि कितना ही कसमसाओ, निकलने ही न दे। वैसे विकास का पहिया अब कुछ ज्यादा तेजी से चल निकला है। अपने मोदी का विकास कब आएगा?  यह पता नहीं लेकिन घोटालों का विकास आजादी के बाद से ही दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से चल रहा है। आजाद भारत में १९४८ में सबसे बड़ा पहला मिलिट्री जीप घोटाला तत्कालीन  कांग्रेस सरकार में वीके मै

चाबी फंसी

                         डा. सुरेंद्र सिंह कुछ चाबियां फंसने के लिए होती हैं और कुछ ताला खोलने के लिए। उस दिन मोटर साइकिल की चाबी फंस गई। इधर घुमाया-उधर घुमाया लेकिन टंकी का लॉक टस से मस नहीं। बीस किलोमीटर घर, पेट्रोल चार बूंद से ज्यादा नहीं। सायं के वक्त चेहरे पर दिन के बारह बजने लगे। हनुमान चालीसा ने हथियार डाल दिए।  हे भगवान, अब क्या होगा? ‘त्राहिमाम त्राहिमाम’ होने लगी । एक सज्जन को दया आ गई, -‘‘ये पेट्रोल डालने वाला खोल देगा’’। सचमुच उससे कहने भर की देर हुई, उसने जाने क्या छू मंतर किया, ताला खुल गया। प्राण में प्राण आ गए।  ऐसी गुस्सा आई मोटर साइकिल उसी को दे दूं। जो आदमी ताला नहीं खोल सकता, उसे मोटर साइकिल रखने का क्या हक? ताला खोलना हर किसी के वश की बात नहीं। मैं उन चोर तालियों और मास्टर चाबियों की बात नहीं कर रहा जिससे हर कोई ताला खुल जाता है। ताले अनेक चाबी एक। कालेजों के चपरासी तालियों का बड़ा सा गुच्छा लेकर चलते हैं। किसी चपरासी की हैसियत इस बात से मापी जाती है कि उसके गुच्छे में कितनी चाबियां हैं। कभी-कभी प्रिंसीपल साहब को बहुत गुस्सा आता है जबकि चपरासी कार्यालय का ताला खोलन

उलटे चलिए

                      डा. सुरेंद्र सिंह उलटा चलना हर किसी के वश में नहीं। ज्यादातर लोग बने ही इसलिए होते हैं कि वे सीधे एक रास्ते पर ताजिदंगी चलते रहें। कुछ लोग ही ऐसे होते ही हैं जो उल्टे चल सकते हैं, उल्टे चलते हैं, हर वक्त, किसी भी स्थान पर उठते-बैठते, एक ही लगन, उलटे चलिए।   ऐसे ही जैसे नदी में मछली उल्टी धारा में चलती है।  सांप बांबी में भी टेड़ा चलता है। आप कहेंगे सूरज पूरब में उगता है तो वे झट बिना एक क्षण गंवाए उसे पश्चिम मेंं बता देंगे। इसके बाद उसके समर्थन में तर्क देने जुट जाएंगे। आप देते रहे अपने साक्ष्य लेकिन वे आपकी लगने ही नहीं देंगे। बिचपुरी और मलपुरा के बीच नहर की दोनों पटरियों पर सड़क बनी है। दोनों रोड तकरीबन एक जैसी हैं न बहुत अच्छी और न बहुत खराब, ‘न सावन सूखे न भादों हरे’। मेरे जैसे तमाम लोग अपनी-अपनी साइडों पर चलते हैं लेकिन कुछ महानुभाव वाहन वाले उल्टी साइड में गमन करते हैं पता नहीं उन्हें इसमें क्या आनंद आता है, हो सकता है बिना उल्टे चले पानी नहीं पचता हो। कई बार जाम में भी फंसते हैं लेकिन नही मानते। मन में सोचते होंगे देखो हम चल रहे हैं उल्टे। सीधे रास्ते पर चले

अच्छे दिन-२

                            डा. सुरेंद्र सिंह भाइयो और बहनो सुनो, सुनो अब यमुना मइया के अच्छे दिन आएंगे। किसी ने कहा हो, न कहा हो लेकिन उम्मीद तो यही है कि वह इस पर ध्यान देंगे तो जरूर अच्छे दिन आएंगे। देश के तो अच्छे दिन आ गए। साल भर में ही निवेशकों की कतारें लग गई हैं? विदेशों में अपना डंका बज रहा है। विदेशों के जाने-माने शहरों की तर्ज पर अपने शहरों का विकास होने जा रहा है। वाराणसी समेत अनेक शहर विदेशी शहरों के सिस्टर सिटी बनने जा रहे हैं। विदेश की बात ही अलग  है, जो-जो यहां नहीं हो सकता, वह विदेश में संभव है।  जो-जो विदेशी वह सब अव्वल। विदेशी दवा से लेकर विदेशी उपकरण, मशीनें, कागज, विदेशी पत्नी, विदेशी मित्र अच्छे ही अच्छे।  मेरे एक पड़ोसी की आगरा में दुकान नहीं चल रही, कारण उसके ग्राहक उनके सामने से ही गुजरकर उसके मुंह पर थूकते हुए मॉलों में चले जाते हैं, वे हाथ मलते रह जाते हैं। लिहाजा उसके पास दिन भर मक्खी मारने के अलावा कोई काम नहीं। वह अब वाराणसी में दुकान खोलने की प्लानिंग कर रहा है। यहां न सही वाराणसी में तो चलेगी, वाराणसी भी अपनी है। देखें कैसे नहीं चलती दुकान? यदि शहरों के

यह उनका काम है

         डा. सुरेंद्र सिंह ऐसे लोगों को ‘सलाम’ करने का मन करता है, ये हैं ही इस लायक। सरकार खोजती है, खोजती रहे, यह उसका काम है। वह पाकिस्तान सरकार को पत्र लिखती रहे-‘‘ दाऊद इब्राहीम को पकड़कर दो’’। लिखती है, लिखती रहे, यह उसका काम है।  पाकिस्तान सरकार जबाव दे-‘‘दाऊद हमारे यहां नहीं है और कहीं खोजो’’। यह उनका काम है। इसके बाद अपनी सरकार सीना ठोंक कर कहती रहे-‘‘ दाऊद पाकिस्तान में ही है, फलां जगह पर है’’ तो कहती रहे। यह उसका काम है। पाकिस्तान सरकार ने जो कह दिया, कह दिया, यह पत्थर की लकीर।  यह उसका काम है। सब अपना-अपना काम कर रहे हैं। नीरज कुमारजी जब सीबीआई में डीआईजी थे, तब दाऊद से बात करते रहते थे। उसके सरेंडर के लिए तीन बार बातें कीं, यह उनका काम था। बड़े अपराधियों को सरेंडर ही तो करवाते हैं, उनकी शर्तों पर। पकड़ते थोड़े ही हैं। आप ही बताइए जरा, इतना बड़ा डॉन कैसे पकड़ सकते थे? उन्होंने अपना काम बहुत बखूबी किया। अपने उच्च अधिकारियों को भी इसके बारे में नहीं बताया, राज को राज रहने दिया। अब अपनी किताब में राज खोलेंगे, ‘डायलोग विद दा डॉन’। जैसे दूसरे तमाम बड़े लोग अपनी किताबों में खोलते रहते

अच्छे दिन

                 डा. सुरेंद्र सिंह यह कंपटीशन का युग है। चाहे पढ़ाई हो, नौकरी अथवा पुरस्कार, बिना कंपटीशन कहीं कोई गुजारा नहीं। मोहल्ले से लेकर पूरी दुनिया कंपटीशन के दौर से गुजर रही है। जिंदगी में आंखें खोलने से लेकर मरने तक पग-पग पर कंपटीशन ही  कंपटीशन हैं। बच्चा ठीक से रो भी नहीं पाता, मम्मी लगी हैं, उसे सजाने-संवारने, मेरा मुन्नू पड़ोसन के बच्चे से सुंदर दिखना चाहिए। सबसे ज्यादा तारीफ इसी के खाते में आएं। रोने के भी कंपटीशन हैं, आप कितना अच्छा रो सकते हैं, कितनी देर तक रो सकते हैं, यदि आप में यह हुनर है तो सीरियल, फिल्मों में रौल पा सकते हैं। यही नहीं गिनीज बुक में नाम लिखा अमर हो सकते हैं। कंप्यूटर में अपने लोगों का दुनिया में पहला नंबर है। सुनकर छाती चौड़ी हो जाती है, छप्पन इंच की। लेकिन चीन वाले कंपटीशन में दूसरे स्थान पर आ गए हैं, तीसरे नंबर पर ब्राजील के युवा हैं। मेरे देश के नौजवानों, कमजोर मत पड़ जाना, जुटे रहो, कोई आगे नहीं निकल पाए। नाक बचाने का एक तुम्हारा ही तो आसरा है। कभी-कभी रेलगाड़ियों में होड़ा-होड़ी हो जाती है, कौन कितना लेट होगी? देख हम दो घंटे लेट हैं, ये लो हम चार घंट

सिर्फ दो मिनट

                  डा. सुरेंद्र सिंह जिंदगी न जाने कितने मिनटों, घंटों, दिनों से बनी है, इससे किसी को कोई लेना-देना नहीं है। कोई इस पर ध्यान ही नहीं देता जितना दो मिनट पर। दो मिनट अमूल्य हैं। पूरी जिंदगी में दो मिनटों का ऐसे ही महत्व है जैसे आगरा का पेठा, मथुरा के पेड़े, अलीगढ़ के ताले, हाथरस की बालूशाही, इगलास की चमचम। दावत में तमाम व्यंजन खाने के बाद रसगुल्ला। ये तो चाहिए ही। जिन्हें डायबिटीज है, वे भी नहीं भूलते, अरे आज ही की तो बात है,  दो रसगुल्लों में क्या जाता है? दो मिनट तरह-तरह के होते हैं। यह आदमी-आदमी पर डिपेंड करता है। किसी का दो मिनट बीस मिनट का होता है तो किसी का घंटों का। ऐसे बिरले ही होते हैं जिनके दो मिनट वास्तव में दो मिनट होते हैं। ऐसे लोग सम्मान के हकदार हैं।  आप किसी का इंतजार कर रहे हैं, घंटों हो गए, आपने फोन कर उलाहना दिया तो उधर से यही जवाब आता है-‘‘बस दो मिनट’’। इसके स्थान पर वह चाहे पूरा एक घंटा लगा दे। फिर उससे पूछेंगे तो वही जवाब मिलेगा- ‘‘दो मिनट और’’। इसके  बाद भी टाइम में दो मिनट के रूप में बढ़ने की गुंजाइश रहती है-‘‘अब सिर्फ दो मिनट’’। मेरा का एक छोटा भाई ह