वादे हैं वादों का क्या

          डा. सुरेंद्र सिंह
एक साल पूरा होने पर वादों को लेकर मोदी सरकार सवालों के घेरे में है। न केवल विपक्ष बल्कि मीडिया वाले सरकार और पार्टी से सवाल पर सवाल पूछ-पूछ कर उन्हें नंगा किए दे रहे हैं। बोलो, चुनाव के दौरान के वादों का क्या हुआ? क्या किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य मिलने लगा है? कालाधन विदेशों से वापस आ गया है, महंगाई कुछ कम हुई है? क्या अयोध्या में श्रीराम मंदिर बन गया है? क्या कश्मीर से धारा ३७० हट गई है? क्या लोगों के अच्छे दिन आ गए हैं? वादों को लेकर बहुत सारे सवाल दर सवाल हैं। 
लेकिन अखिलेश यादव वादों को लेकर चतुर हैं। वह किसी को पूछने का अवसर ही नहीं दे रहे, कोई पूछे उससे पहले ही वे गोली दाग देते हैं कि उनकी सरकार ने अपने सारे वायदे पूरे कर दिए। शायद ही कोई जनसभा हो जिसमें वे, उनकी सरकार के मंत्री और नेता यह कहना भूलते हों। पश्चिम बंगाल में ममता और बिहार में नीतीश कुमार भी अपने सारे वादे पूरे नहीं कर पाए। मनमोहन सिंह और उनके पहले की सरकारों के भी तमाम वायदे अधूरे रह गए। उनसे तो कोई कुछ नही कहता, सब बेचारे मोदी के पीछे पड़े हैंं। -‘‘हमें किसी योजना के बारे में नहीं, अब सिर्फ वादों पर बताइए?’’
कंपनी वाले अपने प्रोडक्ट के बारे में विज्ञापन छपवाकर उपभोक्ताओं से बहुत सारे वादे करते हैं, लेकिन वास्तव में कुछ ही वादे पूरे होते हैं, वे कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं। अपने रामदेव बाबा पुत्र जीवक नाम से दवा बेच धड़ल्ले से झूठा वादा कर रहे थे। शादी विवाह में प्राय एक दूसरे से अनेक झूठे वादे किए जाते हैं, -‘‘लड़की को हाथों पर रखेंगे’’। -‘‘लड़के का घर भर देंगे’’। ‘‘जिंंदगी भर देंगे ही देंगे’’। जैसे उन पर देने के अलावा और कोई काम ही नहीं है।  प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे से झूठे वादे करते हैं, उसमें चांद तारे तोड़कर ले आने तक के वादे से शामिल होते हैं। प्राइवेट कालेज वाले छात्र-छात्राओं से झूठे वादे करते हैं। कंपनियों वाले नौकरी पर रखने से पहले युवाओं से ढेर सारे वादे करते हैं, उन्हें तीन महीने में ही परमानेंट कर देंगे, अमुक सुविधा देंगे। तमाम युवा भी जीतोड़ मेहनत करने, सत्यनिष्ठा से काम करने आदि के फरेबी वादे करने से नहीं कतराते। सरकारें अपने कर्मचारियों से आए दिन वादे करती रहती हैं लेकिन पूरे कुछ ही हो पाते हैं। वादों का शिकार शासन चलाने वाले आईएएस, आईपीएस भी होते हैं। फिर जनता तो जनता है गाजर-मूली की तरह। और तो और इन सबकी देखा देखी मानसून और मौसम भी वादे से डिग रहे हैं।  एक तरह से पूरी सृष्टि वादों पर चल  रही है। पता नहीं यह वादों का दौर कब से चला? आजादी के बाद से या अंग्रेजों के जमाने से अथवा और पहले से? द्वापर युग, सतयुग या त्रेता युग से? वादे खरे नोट की तरह काम करते हैं। नोट अपने में कागज के टुकड़े से ज्यादा नहीं है, लेकिन उनकी कीमत लाखों करोड़ो, अरबों में है। वादे भी अपने में कुछ नहीं लेकिन उनकी कीमत लाखों, करोड़ों, अरबों में हैं। नोट की कीमत में गिरावट आ रही है, वादों की कीमत भी गिर रही है। फिर जिस पर जितने ज्यादा नोट, वह बड़ा और जिस पर जिस पर ज्यादा वादे, वह बड़ा।
 समझदार नेता वादों का पुलिंदा रखते हैं। दिमाग की अटैचियों में भरकर चलते हैं। जब जैसी जरूरत पड़ी झट वैसा ही वादा। कभी-कभी वादों के ढेर लगा देते हैं। उन्होंने विशेषज्ञ नियुक्त कर रखे हैं, अच्छे से अच्छे वादे बनाओ, लुभावने और सच्चे दिखने वाले। वादों के भी वादे। वादों में भूत, वर्तमान और भविष्य है, इसमें ‘हर्र लगे न फिटकरी, रंग चोखा ही चोखा’। लोग समझते हैं,  जब तक दुनिया है, तब तक वादे चलते रहेंगे। लेकिन भाई कहा यह भी जा रहा है कि भविष्य में नोट खत्म हो सकते हैं। सरकार ने बीस हजार रुपये से ज्यादा के भुगतान चेक या आनलाइन किए जाने के आदेश कर दिए हैं। ऐसे ही वादे खत्म हुए तो क्या होगा? हे, वादों के बाजीगरो, तब के लिए भी सोचो? तब तक वादे हैं वादोंं का क्या?

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