राजा महाराजाओं में कौन कितना अय्याश

               


                   

लोग मुगलों को अय्याश कहते हैं,  उनमें सबसे उदार रहे सम्राट अकबर को भी इसी श्रेणी में मानते हैं। क्योंकि उनकी एक से अधिक रानियां थीं। इनमें छह रानियां तो हिंदू ही थी। जहांगीर की नौ रानियां थीं जिनमें से चार हिंदू। शाहजहां की मुमताज समेत आठ  और औरंगजेब की नवाब बाई समेत अनेक रानियां थीं।

 लेकिन इस मामले में हिंदू राजा भी किसी से कम नहीं थे। सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे थे। भरतपुर के महाराजा सूरजमल की रानी किशोरी  देवी समेत छह रानियां थीं। महाराणा प्रताप की अजबदे पंवार समेत 11 रानियां और छत्रपति शिवाजी की आठ रानियां थीं। महाराणा प्रताप के पिता महाराणा उदय सिंह की 22 रानियां थीं। मारवाड़ के राजा अजीत सिंह की पांच दर्जन से ज्यादा रानियां थीं। सन 1724 में जब उनकी मृत्यु हुई तो 63 उनके साथ सती हुईं। जयपुर के संस्थापक महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय की 27 रानियां थीं।

 मध्यकाल का वह जमाना ही ऐसा था।  बेटियों की इज्जत थी ही कहां, बहन और बेटियां एक सुविधा की तरह  इस्तेमाल की जाती थीं। वे राजगद्दी पाने या राजगद्दी बचाने का साधन मात्र गईं थीं।  तभी तो जब अकबर ताकतवर बना तो राजपूत राजाओं में उन्हें बेटियां ब्याहने की होड़ लग गई। सबसे अत्याचारी कहे जाने वाले मुगल सम्राट औरंगजेब को भी दो हिंदू राजकुमारियां ब्याह दी गईं।

ऐसे ही महाराजा जय सिंह को राजकुमारियां ब्याहने की लाइन लग गई। बिना यह सोचे कि दो दर्जन से ज्यादा रानियों के बीच उनकी पुत्री की स्थिति क्या होगी।  जोधपुर के राजा अंत सिंह ने उन्हें अपनी बेटी ब्याह दी जबकि वे दोनों  कई बार युद्धों में आमने-सामने हुए। इसलिए जब उनकी शादी हुई तो जय सिंह को सहज विश्वास नहीं हुआ। वह जिरहबख्तर पहन कर शादी में शामिल हुए। 

महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय के आमेर के किले में रानियों के लिए इतनी चौकस व्यवस्थाएं थीं कि कोई अन्य पुरुष उनकी एक झलक तक नहीं निहार सकता था। किसी की परछाई तक वहां नहीं जा सकती थी। किले में ही उनके लिए चारों ओर से घिरा एक अलग परिसर था। वे अपने-अपने कक्षों से बाहर एक स्थान पर बैठकर गप्पैं हांक सकती थीं। आंगन में घूम-फिर सकती थीं। उनके लिए भूल भुलैयां थी, उसके आनंद ले सकती थीं। मंदिर और बगीचे थे। ऊपर के परकोटे से उन पर नजर रखने के लिए किन्नरों की ड्यूटी लगती थी। 

महाराजा तो अक्सर लड़ाइयों और मुगलों की सत्ता संभालने में ही लगे रहते। इसलिए जब कभी वह आमेर के किले में आते। जब वह आते तो रानियों के बीच भूल भुलइयों में खेलते। जो रानी उनके सामने सबसे पहले आती, उसी के साथ  रात बिताते। उदयपुर की सिसौदिया रानी का सबसे ज्यादा प्रभाव था। उनके लिए जयपुर में एक खास उद्यान बनवाया गया। हो भी क्यों नहीं, कई ब्याह हो जाने के बाद मेवाड़ के महाराणा प्रताप के पुत्र महाराणा अमर ने अपनी पौत्री जब उन्हें ब्याही गई तभी यह तय हो गया था कि उनकी पुत्री से पैदा संतान ही राज्य की उत्तराधिकारी होगी।

वृद्धावस्था में 1743 में जब  महाराजा की मृत्यु हुई तो उनकी तीन रानियां और कई उप रानियां उनके साथ सती हो गईं। उनकी याद में स्मारक बनवाया गया। उनकी सत्ता के लिए उनके दोनों पुत्रों में संघर्ष छिड़ गया। क्योंकि बड़े बेटे ईश्वरी सिंह ने पहले ही सत्ता पर कब्जा कर लिया। दोनों के बीच दो बार युद्ध हुआ। कई साल बाद ईश्वरी सिंह द्वारा आत्महत्या कर लिए जाने पर ही उदयपुर की सिसौदिया रानी का बेटा माधौ सिंह राज गद्दी पर बैठा। 



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