क्षत्रिय विरोधी नहीं थे महर्षि परशुराम

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 महर्षि परशुराम पर दो आरोप लगाए जाते है। एक यह कि वह क्षत्रिय विरोधी थे और दूसरे बहुत गुस्सैल। स्थिति यह है कि जब भी कभी परशुरामजी की बात आती है तो बहुत से क्षत्रिय नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं। ऐसे ही जब भी कोई आदमी भारी गुस्सा दिखता है और  वह बार-बार गुस्सा होता है तो लोग झटपट उसे परशुराम का वंशज कह डालते हैं।  पर हकीकत में महर्षि परशुराम तो न क्षत्रिय विरोधी थे और नहीं गुस्सैल। वह तो विष्णु के छठे अवतार थे। उन्हें भगवान का दर्जा प्राप्त था। यह दर्जा किसी को ऐसे ही नहीं मिल जाता है। इसके लिए बहुत ही कर्तव्यपरायणता, सहिष्णुताऔर त्याग करना पड़ता है।

महर्षि परशुराम के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने एक बार नहीं 21बार धरती से क्षत्रियों का समूल नाश किया।  यह बहुत ही अतिरंजित बात है। वास्तव में  यह हैहय वंशी क्षत्रिय राजा सहस्त्रार्जुन और परशुरामजी के बीच  धर्म और अधर्म की लड़ाई थी। यह ऐसी ही लड़ाई थी जैसे राम और रावण के बीच हुई। रावण पर्यादा पुरुषोत्तम राम की पत्नी का हरण कर ले गया था जबकि सहस्त्रार्जुन महर्षि की पिता जमदग्नि की कामधेनु गाय का हरण कर ले गया था। आप खुद ही विचार करिए जब एक बार सहस्त्रार्जुन परशुराम के पिता जमदग्नि के आश्रम में आए। तो उनकी उन्होंने खूब खातिर सेवा की गई। इसके बाद सहस्त्रार्जुन ने उन्हें दान दक्षिणा देने की बजाय उनकी उनकी कामधेनु गाय को जबरन ले गए। इस गाय से ही उनके परिवार का खर्चा चलता था। यह कहां का न्याय है जो आपकी सेवा करे, उसी की प्रिय वस्तु को जबरन ले जाएं। यह चोरी नहीं डकैती थी। यह पाप ही, नहीं घोर अपराध था।  इसे बर्दाश्त करना भी उचित नहीं था। क्योंकि इससे गलत परंपरा पड़ती। ऐसी स्थिति में कोई किसी का आतिथ्य कैसे करता? इसलिए परशुराम उस गाय को वापस लेने गए तो सहस्त्रार्जुन ने उनसे युद्ध किया। युद्ध में सहस्त्रार्जुन मारा गया। इसके बाद जब उसके पुत्रों ने परशुराम के पिता जमदग्नि को मार डाला तो फिर परशुराम ने भी उनके परिवारीजनों को मारा।  इस तरह दोनों पक्षों में कई बार युद्ध हुए, यह 21 बार भी हो सकते हैं और इससे कम ज्यादा भी। 

इससे ये साबित नहीं होता कि वह क्षत्रिय विरोधी थे?यदि वह क्षत्रिय विरोधी होते तो मर्यादा पुरुषोत्तम राम के कहने से वह पर्वत पर तपस्या के लिए क्यों जाते? राम भी तो क्षत्रिय थे। यदि वह क्षत्रिय विरोधी होते तो भीष्म पितामह और कर्ण को शस्त्र विद्या क्यों देते? ये दोनों भी क्षत्रिय थे। 

जहां तक परशुरामजी के गुस्सैल स्वभाव की बात है, वह  तुलसीदासजी के द्वारा मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्रजी के शील चरित्र को उच्च कोटि का प्रदर्शित करने के लिए ऐसा किया गया है।  यह तुलसीदासजी का परशुरामजी के बारे में यह अतिरंजनात्मक चरित्र चित्रण है। साहित्य में किसी पात्र को श्रेष्ठ साबित करने के लिए ऐसा होता रहता है। तुलसीदासजी ने अपनी रचनाओं में अनेक स्थानों पर अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किए हैं। जैसे-‘‘हनुमान की पूंछ में लग न न पाई आग, लंका सारी जरि गई गए निशाचर भाग’’। जो कवि ऐसी गैर सिर-पैर की बातें लिख सकते है, वह परशुराम को गुस्सैल क्यों नहीं दिखा सकता? 

 महर्षि परशुराम एक योगी थे, अनाशक्त योगी  वह ज्ञान का भंडार होने के साथ शक्ति संपन्न थे। उनमें नेतृत्व की क्षमता थी। वह चाहते तो अपना राज स्थापित कर सकते थे। वह राजवंश से थे, फिर भी उन्होंने कोई राज स्थापित नहीं किया।

उनके समय में राष्ट्र जैसी कोई बात नहीं थी। न आज जैसी पासपोर्ट की व्यवस्था थी और नहीं वीजा की। पूरी दुनिया में  सबै भूमि गोपाल की थी। लोग कहीं भी चलते रहते थे  आगे और आगे चलते रहते थे। परशुराम जी के बाबा महाराजा भृगु ईरान से आए थे।  महर्षि परशुराम भी जगह-जगह घूमते रहे। वह केरल में गए, वहां उन्होंने एक शस्त्र विद्या वदक्कन कलरी ईजाद की। लोगों को प्रशिक्षित किया। वह गुजरात में गए, मध्य प्रदेश में गए,  पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश के अलावा नेपाल में भी गए।  तब किसी के जीवन में कोई स्थायित्व नहीं था। परशुराम जी ने समाज में स्थायित्व प्रदान किया।  इस बीच उन्होंने तमाम गांव बसाए। एक नई सभ्यता का विकास  किया।

 उस जमाने में किसी के लिए भी शस्त्र जरूरी  था। जंगली जानवरों और लुटेरों से रक्षा जो करनी थी। इसलिए परशुराम खुद भी फरसा लेकर चलते थे। उनकी शिक्षा को आज भी अपना लें तो सत्ता और संपत्ति के लिए मची अंधी होड़ समाप्त हो सकती है। 



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