जब राजपूतों का मुगलों से मोहभंग हुआ

                  

                          


यह जगत प्रसिद्ध है कि राजपूतों और मुगलों के डेढ़ सौ साल से ज्यादा तक रोटी और बेटी के घनिष्ठ संबंध  रहे। दो दर्जन से ज्यादा राजपूतानियों की मुगलों से शादियां की गई। लेकिन  एक दौर ऐसा भी आया जबकि राजपूतों का मुगलों से मोहभंग हो गया। मेवाड़ के शासक को पहले से ही खफा थे। बाद में जयपुर और अन्य घरानों के भी राजपूत नाराज हो गए। भारत में मुगलों की सल्तनत खत्म होने का यह भी एक कारण रहा।

इतिहासकारों के अनुसार राजपूतों और मुगलों के रोटी और बेटी के संबंधों की शुरुआत सबसे पहले 6 फरवरी 1562 को आमेर के राजा भारमल की बेटी जोधाबाई की सम्राट अकबर के साथ शादी से हुई। इसके बाद तो यह सिलसिला चल निकला। अकबर के साथ केवल जोधाबाई ही नहीं, अलग-अलग राजाओं ने पांच अन्य राजपूत राजकुमारियों की शादी की। इसके बाद उनके पुत्र जहांगीर के साथ चार  राजपूत राजकुमारियां ब्याही गईं।  औरंगजेब जिसे मुगलों का सबसे क्रूर शासक माना जाता है, उसकी दो रानियां राजपूत थीं। औरंगजेब के पुत्र और पौत्रों की भी राजपूत रानियां थीं। बहादुर शाह प्रथम को तो जयपुर के संस्थापक महाराजा जय सिंह द्वितीय की बहन ब्याही थी। उसका विवाह उनकी इच्छा के विरुद्ध उनके छोटे भाई विजय सिंह ने किया था। इस पर बहादुर शाह प्रथम ने आमेर पर चढ़ाई कर जय सिंह द्वितीय को अपदस्थ कर विजय सिंह को जागीर दे दी थी।

जय सिंह द्वितीय हालांकि शुरू में औरंगजेब के बहुत प्रिय थे। आठ साल की उम्र में जब वह उनके दिल्ली दरबार में मिले तो सम्राट  ने उनके दोनों हाथ अपने दोनों हाथों में लेकर उनसे पूछा था-‘‘अब बताइए’’? इस पर जय सिंह ने जिस सूझबूझ से भरा जवाब दिया- ‘‘आलमपनाह, अपने यहां हिंदुओं में शादी मेंवर वधू का एक हाथ अपने हाथ में लेकर उससे पूरी जिंदगी संबंध निभाने का वायदा करता है। आपने तो मेरे दोनों हाथ ले ले लिए, अब मुझे क्या चिंता करनी’’? इससे सम्राट बहुत खुश हुआ था।  औरंगजेब ने ही जय सिंह को यह नाम दिया। इनका मूल नाम तो विजय सिंह था। सम्राट ने विजय सिंह नाम उनके छोटे भाई को दे दिया। जबकि उसके छोटे भाई का मूल नाम जय सिंह था। 11 साल की उम्र में यानि 1700 में जय सिंह राजगद्दी पर बैठ गया था। तब औरंगजेब ने ही उन्हें सवाई की उपाधि प्रदान की। महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय। सवाई का मतलब बुद्धि और वीरता में सवाया।  कुछ इतिहासकारों के अनुसार जय सिंह को सवाई की  उपाधि फरुख सियर ने दी।

खैर मुगलों ने उन्हें तीन बार मालवा का सूबेदार बनाया। आगरा के सूबेदार की भी जिम्मेदारी दी। उन्हें अनेक उपाधियों से विभूषित किया। फिर भी उनका मुगलों से मोहभंग हो गया था। पहली बार जब वह 1700 में राजगद्दी पर बैठे तो दक्षिण में लड़ाई के लिए जय सिंह को बुलाया। कई बार बुलाबे पर भी  यह नहीं गए। जबरन बुलाए जाने के आदेश पर ही वह 1701 में दक्षिण में गए।

औरंगजेब के पौते मालवा के सूबेदार  शाह बिदर बख्त ने जब इन्हें अपना नायब सूबेदार बनाना चाहा तो औरंगजेब ने रोक दिया था। यही नहीं औरंगजेब ने अपने जीते-जी इन्हें कोई महत्वपूर्ण पद नहीं देने दिया। एक बार यह भी आदेश जारी कर दिया था कि जय सिंह को दरबार में कभी मसनद पर नहीं बैठने दिया जाए, उसे जमीन पर बिछी सुजनी पर बैठने के लिए कहा जाए। 

1708 में जब बहादुर शाह प्रथम ने उन्हें अपदस्थ कर उनके छोटे भाई को गद्दी पर बैठाया तो उन्होंने हिंदू राजाओं को पत्र लिखकर मुगलों के खिलाफ उन्हें एकजुट किया। इसके लिए उन्होंने मुगलों को परास्त करने के लिए उदयपुर  महाराणा से बात करने और मराठों से भी हाथ मिलाने के लिए कहा। इसके लिए सबसे पहला पत्र दुर्गादास को लिखा।

इतिहासकारों के अनुसार मुगलों की सेना में 80 प्रतिशत तक राजपूत, जाट और  अन्य हिंदू थे। इन्हीं के बल पर वह इतने सालों तक राज करने में कामयाब रह सके। जब इनका मोहभंग हुआ तो वे भी नहीं रहे।



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