‘जय जवान जय किसान’ नारा क्यों?

        

                          


जब-जब किसानों या जवानों  की कोई बात आती है तब-तब प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी का यह नारा- ‘जय जवान जय किसान’ लोगों की जुबान पर आ जाता है। देश का यह सबसे लोकप्रिय नारा है। शास्त्रीजी के गुजर जाने के इतने सालों पर भी यह वेद वाक्य की तरह है। चाहे किसी पार्टी की सरकार हो चाहे कोई आंदोलन हो यह नारा सबके लिए अहम बन जाता है। अब जबकि किसान तीन बिलों के खिलाफ  आंदोलन पर है, तब भी यह नारा गूंजता रहता है। आखिर क्या बात है इस नारे में और क्यों  इसे देने की आवश्यकता पड़ी?

लाल बहादुर शास्त्री छोटे कद यानि पांच फुट दो इंच के इंसान थे। उन्होंने इसके माध्यम से दुनिया की सबसे बड़ी ताकत अमेरिका और पडोसी दुश्मन देश पाकिस्तान को चुनौती दी।  पूरे देश को एकजुूट भी किया। हुआ यह था चीन से 1962 के युद्ध में पराजय के बाद जवाहर लाल नेहरूजी की मृत्यु हो गई थी। देश की आर्थिक हालत खराब थी। ऐसे में भारत को कमजोर समझ पाकिस्तान ने अपने देश पर हमला बोल दिया था। शास्त्रीजी के नेतृत्व में भारतीय सेना ने इसका न केवल मुंह तोड़ जवाब दिया बल्कि पाकिस्तान के भीतर जाकर लाहौर तक कब्जा कर लिया था। इस पर अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति लिंडन बी जानसन ने शास्त्रीजी पर दबाव डाला कि वह अपनी सेना वापस करें। ऐसा नहीं किए जाने पर उन्होंने भारत को आयात किए जाने वाले लाल गेहूं की आपूर्ति रोकने की भी धमकी दी।  उस समय भारत खाद्यान्न के मामले में आत्म निर्भर नहीं था। फिर भी देश के जवानों और किसानों पर भरोसा कर शास्त्री  जी ने  इस चुनौती को स्वीकार किया।  उन्होंने  देश का सिर झुकने नहीं दिया। युद्ध समाप्त होने के चार दिन बाद 26 सितंबर 1965 को दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित सभा में उन्होंने किसानों और जवानों का आह्वान करते हुए यह नारा दिया था।  उन्होंने जवानों में जोश भरा तो  किसानों से भी अपील की कि उन्हें जहां भी जमीन मिले वे गेहूं उगाएं।  मंत्रियों और अधिकारियों के बंगलों में खाली पड़ी जमीन पर गेहूं उगाने के लिए कहा। उन्होंने खुद अपने बंगले में भी गेहूं उगाए। उन्होंने देश वासियों से कहा कि वे सप्ताह में एक टाइम का खाना छोड़ दें। इतने से अमेरिका से लाल गेहूं की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

बताते हैं कि सप्ताह में एक टाइम का खाना छोड़ने के आह्वान से पहले शास्त्री जी ने अपने घर में पत्नी  ललिता शास्त्री से इसका परीक्षण कराया कि क्या उनके बच्चे एक टाइम भूखे रह सकते हैं। यही नहीं जब वह ताशकंद में समझौता वार्ता के लिए गए तो वहां उन्होंने एक टाइम भोजन नहीं किया। उनके सेक्रेटरी के अनुरोध पर उन्होंने साफ कह दिया कि उनके देश के लोग भूखे रह रहे हैं ऐसे में वह कैसे भोजन कर सकते हैं? 

अमेरिकी राष्ट्रपति जानसन ने एक बार इन्हें अपमानित करने की कोशिश की। जब वह काहिरा जा रहे थे तब अपने राजदूत चेस्टर बोल्स के माध्यम से उन्हें अमेरिका आने का आमंत्रण दिया। इसके बाद जब तक वह इस पर सहमति देते, उस आमंंत्रण को वापस ले लिया। इससे शास्त्री जी को भारी ठेस लगी। इसका जवाब भी शास्त्री जी ने उसी भाषा में दिया। कुछ महीनों बाद जब वह कनाडा जा रहे थे तो अमेरिकी राष्ट्रपति ने इन्हें  अमेरिका आने का पुन: आमंत्रण दिया तो  शास्त्रीजी ने उसे ठुकरा दिया। 

दो अक्टूबर 1904 को वाराणसी के मुगलसराय में जन्मे शास्त्री जी का प्रारंभिक जीवन कठिनाइयों में गुजरा। जब यह 18 महीने के हुए तो पिताजी चल बसे। यह नाना के घर रहने लगे। कुछ दिनों बाद नानाजी की भी मृत्यु हो गई।  इनकी परवरिश में मौसा रघुनाथ प्रसाद का बहुत सहयोग रहा।  शिक्षा काशी विद्यापीठ से शास्त्री तक की पाई। इसी दौरान उन्होंने अपने नाम के आगे से श्रीवास्तव शब्द हटाकर शास्त्री जोड़ लिया। वह जातिवाद के खिलाफ थे। उन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत एक मामूली से क्लर्क से की।  गांधीजी के आह्वान पर वह स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय रहे। उन्होंने आजादी के असहयोग आंदोलन से लेकर ‘करो या मरो’ तक के आंदोलनों में भाग लिया। कई बार जेल भी गए।  वह नेहरूजी के बहुत भरोसे के लोगों में थे। वह उनके मंत्रिमंडल में रेल मंत्री और गृह मंत्री के महत्वपूर्ण पदों पर रहे। उनकी मृत्यु के बाद  नौ जून 1964 को वह प्रधानमंत्री बने। लेकिन इस पद पर वह 18 महीने ही रह सके। पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान से समझौता वार्ता के बाद ताशकंद में 11 जनवरी 1966 को वह इस दुनिया से चल बसे। लेकिन ईमानदारी, सादगी की मिसालें छोड़ गए। 

इस संबंध में कितने ही किस्से लोगों की जुबान पर हैं। भीड़ जब बेकाबू हो जाए तो उसे नियंत्रित करने के लिए लाठियों के स्थान पर पानी की बोछारों की शुरुआत उन्होंने की कराई थी। जब वह प्रधानमंत्री की शपथ ले रहे थे, तब वह फटी धोती पहने हुए थे। ताशकंद समझौता वार्ता के लिए जब वह गए थे, वह अपना खादी का सादा कोट पहने हुए थ। जो  वहां की सर्दी को झेलने में सक्षम नहीं था।  इस पर सोवियत संघ के प्रधानमंत्री ऐलेक्सी कोसिगिन ने उन्हें गर्म ऊनी कोट भेंट किया तो वह कोट उन्होंने अपने अधीनस्थ अधिकारी को पहना दिया क्योंकि उसके पास कोट ही नहीं था। इस पर सोवियस संघ के शासक कोसिगिन ने उन्हें सुपर कम्युनिस्ट की संज्ञा दी। यही नहीं वह इतने सरल थे कि अपने कमरे में बैठक के दौरान अधीनस्थों को  कई बार चाय खुद ही सर्व करते थे।



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