एक ऐसे प्रधानमंत्री जिनका सामान फेंक दिया गया था

        

                                


अब जब राजनीति में भ्रष्टाचार चरम पर है। एक बार चुनाव लड़ने पर जनप्रतिनिधियों की  संपत्ति कई गुना बढ़ जाती हैं, विधान सभा  तक के चुनावों में  लोग करोड़ों फूंक देते हैं, पर इसी भारत में एक ऐसे भी प्रधानमंत्री रहे जो आधा दर्जन से ज्यादा बार जनप्रतिनिधि रहे, सारी प्रमुख जिम्मेदारियां संभाली, वह सभी राजनेताओं से ज्यादा जीए, करीब सौ वर्ष । पर अपनी पूरी जिंदगी में अपना कोई मकान तक नहीं बनवा सके। ये थे- गुलजारीलाल नंदा।

नंदा साहब एक बार नहीं दो-दो बार प्रधानमंत्री रहे, पहली बार प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के निधन पर उन्हें 13 दिन यह जिम्मेदारी निभानी पड़ी। दूसरी बार लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद उनके कंधों पर यह जिम्मेदारी आई। दोनों बार में वह कुल 26 दिन प्रधानमंत्री रहे। भले ही कार्यवाहक थे। लेकिन प्रधानमंत्री तो थे ही। उन्होंने विषम स्थितियों में देश को संभाला।  उनका कद प्रधानमंत्री स्तर का था। हर बार उन्हें इस जिम्मेदारी के उपयुक्त समझा गया तो कोई तो बात उनमें थी।

वह बहुत ही ईमानदार, सरल, सादगी पसंद और गांधीवादी काबिल इंसान थे। आज भले ही लोग उन्हें याद नहीं करें पर राजनीति में उन्होंने जो मानदंड स्थापित किए उसके लिए उन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। भुलाया भी  नहीं जाना चाहिए  ऐसे लोगों की चारित्रिक नींव पर ही हमारे लोकतंत्र बुनियाद खड़ी है।

वह दो बार विधायक रहे तो पांच बार लगातार सांसद। वह गृह मंत्री से लेकर कई विभागों के केंद्रीय मंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष भी रहे। पंचवर्षीय योजनाओं के रूप में देश के विकास में उनकी सूझबूझ का अहम योगदान है। इतना सब होने के बावजूद वह अपने के लिए कोई संपत्ति एकत्रित नहीं कर सके। जब उनका देहांत हुआ तो उनके बैंक एकाउंट में 2474 रुपये थे। जीवन में एक बार उनके साथ ऐसा भी हुआ जबकि किराया नहीं चुकाने पर मकान मालिक द्वारा उनका सामान बाहर फेंक दिया था। संपत्ति जुटाने की उन्होंने कभी परवाह नहीं की।  वह गरीबों के भी मददगार रहे। 

वह सिद्धांतों के पक्के थे। एक बार जब वह गृह मंत्री थे, उनकी बेटी डा. पुष्पा यूनिवर्सिटी में फार्म भरने के लिए उनकी गाड़ी ले गई तो वह बहुत खफा हुए। उन्होंने गाड़ी का आठ मील का किराया खुद जमा किया। वह व्यक्तिगत कार्य केलिए कभी भी सरकारी संसाधनों का इस्तेमाल नहीं करते थे।  लोकतंत्र में उनकी इतनी गहरी आस्था थी कि इंदिरा गांधी द्वारा  1975 में लगाई गई इमरजेंसी से वह नाराज हो गए। इसके बाद वह कभी चुनाव ही नहीं।  इंदिराजी ने  डा. कर्ण सिंह और कई वरिष्ठ कांग्रेसजनों को उन्हें मनाने के लिए भेजा। इसके बाद इंदिरा गांधी खुद भी जन्म दिन के बहाने इनके आवास पर आईं। पर वह अपने फैसले से टस से मस नहीं हुए। तब वह रेल मंत्री थे।

चार जुलाई 1898 मौजूदा पाकिस्तान के सियालकोट में जन्मे नंदाजी ने लाहौर, आगरा विश्वविद्यालयों से स्नातकोत्तर और कानून की डिग्री लीं।  इलाहाबाद विश्वविद्यालय से श्रमिक समस्याओं पर शोध कार्य किया। वह बौंबे के नेशनल कालेज में अर्थशास्त्र के व्याख्याता रहे। इसी बीच वह स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े। वह लंबे समय तक अहमदाबाद की टैक्सटाइल इंडस्ट्री की ऐसोसिएशन के सचिव रहे।  1932 के सत्याग्रह आंदोलन और 1942 के असहयोग आंदोलन में उन्हें जेल जाना पड़ा। 

वह बांबे विधान सभा में दो बार विधायक भी रहे। जिसमें उन्होंने श्रम और आवास मंत्रालय का कार्यभार संभाला।  इन्होंने ही 1947 में इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन (इंटक) की स्थापना की। इनकी प्रतिभा को देखकर इन्हें दिल्ली बुला लिया गया। यहां उन्होंने केंद्रीय गृह मंत्री से लेकर रेल मंत्री, योजना, श्रम एवं रोजगार मंत्री की जिम्मेदारियां संभाली। 

उन्होंने कई पुस्तकेंं भी लिखीं-‘सम आस्पेक्ट्स आफ खादी एप्रोच टू द सेकंड फाइव ईयर प्लान’, ‘गुरू तेगबहादुर: संत एंड सेवियर’,‘हिस्ट्री आफ इडजस्टमेंट इन  द अहमदाबाद टेक्सटाइल’, ‘फार ए मौरल रिव्योल्युशन’ तथा ‘सम बेसिक कंसीड्रेशन’ आदि।  इन्हें 1997 में देश के सर्वोच्च भारत रत्न सम्मान और सर्वश्रेष्ठ नागरिक सम्मान पदम विभूषण से भी नवाजा गया। वह 15 जनवरी 1998 को इस दुनिया से विदा हो गए। 



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