खामियां नई शिक्षा नीति की

                      
                            

 - डा. सुरेंद्र सिंह


केंद्र सरकार द्वारा 34 साल  बाद घोषित  नई शिक्षा नीति को आजकल चारों तरफ से खूब वाहवाही मिल रही है न केवल शिक्षा जगत के विद्वान बल्कि विपक्ष के कई नेता भी खुलकर इसकी  तारीफ कर रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि नई शिक्षा नीति में कई अच्छी बातें हैं। मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में कमियों के अंबार को देखते हुए उम्मीद की जा रही है कि उनसे कुछ तो निजात मिलेगी। पर वास्तव में नई शिक्षा नीति में अब तक जो बातें उभर कर आई हैं, उसके अनुसार तो यह एक बहुत अच्छे नारे की तरह है जो मन को तो मोहती है लेकिन इसमें खामियों की भी कमी नहीं है। जिस बड़े उद्धेश्य को लेकर यह तैयार की गई है, उससे उसकी पूर्ति असंभव है।


नई शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए एक बड़ा लक्ष्य निर्धारित किया गया है। इसके तहत उच्च शिक्षा में पंजीकरण 28.5 प्रतिशत से बढ़ाकर 50 प्रतिशत  करने का लक्ष्य वर्ष 2035 तक के लिए रखा गया है। बहुत अच्छी बात है, उच्च शिक्षा में पंजीकरण बढ़ना ही चाहिए। यदि शुरुआत से बात की जाए तो हमारे यहां नौ प्रतिशत लोग ही उच्च शिक्षा प्राप्त करते हैं, अमेरिका आदि विकसित देशों के मुुकाबले यह प्रतिशत बहुत कम है। माध्यमिक शिक्षा के बाद उच्च शिक्षा में जाने का प्रतिशत 28.3 बताया जा रहा है।  हमें यदि इसे आगे बढ़ाना है तो उच्च शिक्षा के प्रति युवाओं को प्रोत्साहित करना होगा। लेकिन हकीकत में  हमारे यहां उच्च शिक्षा के प्रति युवाओं में उत्साह कम हो रहा है, नई नीति में ऐसा कोई प्रावधान दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है, जिससे उच्च शिक्षा के प्रति आकर्षण बढ़ सके। सरकार द्वारा इसके विपरीत  स्थितियां जरूर पैदा की जा रही हैं। उदाहरण के लिए देश में 90 प्रतिशत से ज्यादा उच्च शिक्षा निजी संस्थानों के हाथ में है। उनमें सरकार द्वारा  अनुसूचित जाति, जनजाति से युवाओं के नि:शुल्क प्रवेश पर रोक लगा दी गई है। इससे उच्च शिक्षा में रजिस्ट्रेशन में भारी कमी  आएगी।  दूसरे उच्च शिक्षा ग्रहण करते वक्त युवाओं पर परिवार चलाने की जिम्मेदारी आ जाती है। विदेशों में लोग उच्च शिक्षा के साथ पार्ट टाइम नौकरी की व्यवस्था है, इसमें उन्हें इतना मिल जाता है, जिससे उनके परिवार का खर्च आराम से चल जाता  है। हमारे यहां फुल टाइम खाली रहने वाले पूर्ण शिक्षित युवाओं के लिए ही रोजगार नहीं हैं, ऐसे में पार्ट टाइम रोजगार की उम्मीद कैसे की जा सकती है। 


नई शिक्षा नीति में  कक्षा छह से रोजगार परक शिक्षा को भी जोड़े जाने का प्रावधान किया गया है, जिसके अंतर्गत कौशल विकास का प्रशिक्षण दिया जाएगा। पहली बात तो यह है कि हमारे यहां देश में जितने विद्यालय हैं, उनके लिए क्या कौशल विकास की ट्रेनिंग देने वाले योग्य टीचर हैं? इसके लिए नए टीचरों की भर्ती होगी या इन्हें ही प्रशिक्षित करेंगे।  देश में डिग्री कालेजों के लिए मानकानुसार योग्य शिक्षक नहीं हैं जिसमें कि पीएचडी और नेट क्वालीफाई चाहिए। ये पाठ्क्रम बहुत पहले से चल रहे है।  ऐसे में निचले स्तर के विद्यालयों के लिए जिनकी संख्या डिग्री कालेजों से कई गुना ज्यादा है, कौशल विकास सिखाने वाले कहां से आएंगे? जहां तक प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना की बात है, उसमें फर्जीफिकेशन ही ज्यादा हुआ है। जितने लोगों ने कौशल विकास के सर्टीफिकेट हासिल किए हैं, जिन्होंने नौकरी हासिल की है, उसमें कागजी खानापूर्ति अधिक और वास्तविकता कम है। उन सर्टीफिकेट धारकों से विद्यालयों में कुछ हद तक खानापूर्ति तो कर सकते हैं लेकिन वास्तव में प्रशिक्षण दिलाना मुश्किल होगा।


नई शिक्षा नीति के अनुपालन के लिए जिस इंफ्रास्ट्रक्चर की आवश्यकता होगी, क्या उसकी पूर्ति सरकार कर पाएगी। अभी तक की स्थिति तो यह है कि प्राथमिक विद्यालयों में टीचरों के भी बड़ी संख्या में पद खाली पड़े हंै।  उन्हें भरने में भी सरकार का बजट आड़े आता है, ऐसे में कौशल विकास के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए बजट कहां से आएगा? जहां तक प्राइवेट स्कूलों की बात है, उसका बोझ कारपोरेट क्षेत्र द्वारा बच्चों पर ही डाला जाएगा। इससे शिक्षा और महंगी होगी। 


यहां ध्यान रखने की बात यह भी है कि माध्यमिक विद्यालयों, डिग्री कालेजों में और शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों में अधिकांश प्रयोगशालाएं औपचारिकता पूर्ति के लिए हैं, प्रैक्टिकल के नाम पर खानापूर्ति और छात्र-छात्राओं से धनवसूली का खेल चलता है, ऐसे में निचले स्तर से कौशल विकास सिखाने की क्रांतिकारी उम्मीद कैसे की जा सकती है, जबकि सिस्टम तो वही है जो असली अनामिका को नौकरी देने की बजाय उसके कागजों की फोटोस्टेट से दर्जनों फर्जी अनामिकाओं को नौकरी दे देता है। कहीं ऐसा नहीं हो कि कौशल विकास का कार्य भी इसी तरह खानापूर्ति की भेंट चढ़ जाए।


एक बड़ी समस्या पाठ्यक्रमों की है। महाविद्यालयों में बाबा आदिम जमाने के पाठ्यक्रम चल रहे हैं। इन्हें पढ़ने के बाद नौकरी की कोई गारंटी नहीं है। बाबू बनने के लिए अलग से सीखना पड़ता है। अधिकांश पाठ्यक्रमों के नाम पर विषय का पुराना इतिहास ही ज्यादा पढ़ाया जाता है। इंजीनिरिंग के पाठ्यक्रम पूरे करने के बाद भी छात्र-छात्राओं को अलग से काफी कुछ पढ़ना और सीखना होता है। नई शिक्षा नीति में इसे कम तो किए जाने की बात तो है लेकिन एक निश्चित समय सीमा के भीतर अद्यावधिक किए जाने की नहीं। जबकि इसकी बहुत जरूरत है। 


उच्च शिक्षा की एक बड़ी विडंबना यह भी है कि साल में जितने दिन पढ़ाई की जाती हैं, उससे ज्यादा समय करीब छह महीने परीक्षा और मूल्यांकन के काम में गुजर जाता है। यदि परीक्षा और मूल्यांकन के लिए एक अलग सिस्टम बन जाए तो डिग्रियों लेने की समयावधि घटाई जा सकती है। नई शिक्षा का यह भी एक उद्देश्य होना चाहिए कि वह कम से कम समय में युवाओं को तैयार करके देश के विकास में लगाएं न कि उनकी अधिकांश जवानी पढ़ाई में ही गुजार दें ताकि बेरोजगारी का बोझ कम दिखाई दे।



नई शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा संस्थानों को स्वायत्त बनाने पर जोर है। इसके जरिए सरकार पैसे खर्च करने की अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ना चाह रही है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग भी पिछले कई सालों से स्वायत्तशासी संस्थान बनाने की ओर कदम बढ़ा रहा है। लेकिन इसका अनुभव अच्छा नहीं है। शिक्षा का निजीकरण किए जाने और प्राइवेट विश्वविद्यालयों के दुष्पपरिणाम सामने हैं। स्वायत्तशासी  स्ांस्थान बनाए जाने से शिक्षा का बेड़ा गरक हो सकता है।

Comments

  1. सरकार के अंतर्विरोधों को आपने बेबाकी पन से लिखा है ।
    शिक्षा नीति को लागू करने वाला ,सिस्टम की सड़ गया है। उसमें सोना भी डाला जाएगा वह पीतल ही बनेगा।

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