भारत किस युग की ओर?

                       

- डा. सुरेंद्र सिंह

हम अब देश को किस युग में ले जाने की कोशिश कर रहे हैं? 16वीं सदी में जबकि बाबर के हुक्मरानों ने अयोध्या में श्रीराम के मंदिर को तोड़ा अथवा त्रेतायुग में जबकि  श्रीराम धरती पर जन्मे, उन्होंने धर्म की स्थापना और अंसुरों के विनाश के लिए अनेक लीलाएं कीं। सम्मानित प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह पांच  अगस्त को अयोध्या में श्रीराम मंदिर के निर्माण के लिए शिला पूजन किया। अपने संबोधन में इसे पांच सौ साल के दरम्यान का सबसे बड़ा ऐतिहासिक कदम बताया। उसके दृष्टिगत इस तरह के अनेक सवाल उठना स्वाभाविक है।


बाबरी  मस्ज्जिद तोड़ने की घटना पहले ऐतिहासिक नहीं थी, दुनिया के किसी इतिहास में इसका जिक्र नहीं है। यदि यह घटना हुई भी तो इतनी तुच्छ थी कि इसे किसी  इतिहासकार ने लिखने लायक समझा ही नहीं जबकि बाहर से आए आताताइयों द्वारा अनेक मंदिरों को तोड़ने, लूटपाट किए जाने और नरसंहार का इतिहास में जिक्र है। चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने इस पर मोहर लगा दी है और जनमानस में भी इसके बारे में विश्वास है। इसलिए बाबरी मसजिद को ध्वस्त किए जाने, दंगों में हजारों लोगों की जानें जाने,  सरकारों के बनने- बिगड़ने,  सुप्रीम कोर्ट के आदेश से शिला पूजन आदि इतिहास की बहुत बड़ी घटना हो गई है। इसके लिए इतिहास में संशोधन करना होगा। इतिहास में ऐसे संशोधन होते रहते हैं।


 यदि हम 16वीं सदी की ओर जाना चाहते हैं, आक्रांताओं ने जो किया, उसका बदला लेना चाहते हैं तो अभी बहुत कुछ बाकी है।  काशी विश्वनाथ, मथुरा और अनेक स्थलों के स्वरूप में परिवर्तन करना पड़ेगा?  इससे और पीछे जाना चाहें तो कई मुल्कों को फिर से भारत में शामिल करना होगा। तमाम लोग जो बाहर से आए, उन्हें भी वापस करना होगा। क्या सरकार इसके लिए तैयार है? याद रहे पांच सौ साल और उसके बाद का जमाना अलग था। विदेशी शासकों के जमाने में  हिंदुओं की कोई सुनने वाला नहीं था। तब राम और कृष्ण की भक्ति ने  पीड़ितों को  बहुत संबल दिया। सैकड़ों सालों तकउनकी मान्यताओं और अस्तित्व को बचाए रखा। अत्याचारों से दुखी हमारे पुरखों की पुकार परमात्मा तक थी। इस जन्म  में नहीं अगले जन्म में और उस जन्म में भी नहीं तो परलोक में चैन से रहने तक की उम्मीदें  इन्हीं राम और कृष्ण को लेकर पालीं। मूर्तियों ने तब भी कोई मदद नहीं थी। अत्याचारी लुटेरों ने इन्हींं मूर्तियों के सामने हमारे पुजारियों का खून खच्चर किया और मंदिरों का सोना लूट ले गए। मूर्तियां अब भी किसी की कोई मदद नहीं कर रही हैं। इसी अयोध्या के निर्माणाधीन श्रीराम जन्मभूमि परिसर में दो पुजारी और दर्जनों  सुरक्षाकर्मी अब तक कोरोना की चपेट में आ चुके हैं। देश भर के मंदिर इसी कारण भक्तों के लिए बंद हैं।


अब जबकि देश आजाद है, हम पर हुकम चलाने वाले हमारे अपने बीच के हैं। हर पांच साल बाद  उन्हें परखने और अच्छा काम नहीं करने पर उन्हें बदलने का अधिकार हमारे पास है, क्या फिर से हमें उसी परमात्मा की शरण में ले जाना चाहते हैं? क्या हम अब कोरोना से मुक्ति के लिए उसी से प्रार्थना करें ? कोरोना के चलते जो करोड़ों लोगों की नौकरियां गई हैं, उनके लिए उसी परम पिता परमात्मा से उम्मीद करें। हमारी अर्थव्यवस्था धरातल की ओर जा रही है चारों तरफ हालात खराब हैं। कानून व्यवस्था की स्थिति खराब है। भ्रष्टाचार संभाले संभल नहीं रहा, इस सबके लिए परमात्मा की ओर देखें? 


यदि त्रेता युग की ओर जाना चाहते हैं तो धरती पर ऐसा कोई युग नहीं था। द्वापर, त्रेतायुग, सतयुग ये सभी साहित्य की बातें हैं जिसमें कल्पना अधिक होती है। दुनिया के इतिहास में ऐसा कहीं नहीं है जहां तरक्की पहले थी, इसके बाद ह्रास होता आया। चाहे जीवन जीने की व्यवस्था हो, चाहे जनसुविधाएं हो अथवा शासन व्यवस्था, इसमें उत्तरोत्तर विकास हुआ है। पिछली पीढ़ियों के बहुत से लोग इस बात को नहीं जानते लेकिन अब अधिकांश लोग पढ़े- लिखे हैं, सारी दुनिया को देख और समझ रहे हैं। उन्हेंअब  एक काल्पनिक दुनिया के नाम पर भरमा नहीं सकते।

त्रेता युग के अस्तित्व को मानें तो उस वक्त श्रीलंका पर विजय के बाद श्री राम ने  राज्य की स्थापना की थी। कई दशक पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री  राजीव गांधी ने रामजन्म भूमि का ताला खुलवाया और इसके बाद राममंदिर निर्माण के लिए शिला पूजन करा कर रामराज्य लाने का वायदा किया। क्या वे राम राज्य ला पाए? इसके बाद उनकी पार्टी की 15 सालों तक सरकार रही। क्या उन्होंने अपने पूर्व प्रधानमंत्री का वायदा पूरा किया? अब मौजूदा प्रधानमत्री मोदी और मुख्यमत्री आदित्यनाथ योगी ने भी राम राज्य लाने का वायदा किया है। क्या ऐसा संभव है? तुलसीदास कृत रामचरित मानस के अनुसार राम राज्य में कोई प्राणी दुखी नहीं था, कोई बीमार नहीं था। सभी सुखी थे। यह कल्पना आसमान से तारे तोड़कर लाने से भी बड़ी है। इसके नाम पर लोगों को भरमा तो सकते हैं लोगों की भावनाओं को वोटों में बदल सकते हैं। लेकिन सचाई को ज्यादा समय तक छुपा नहीं सकते। दुनिया बड़ी तेजी से बदल रही है।


तुकी के इस्तांबुल के एक मामले से इसे अच्छी तरह समझा जा सकता है।  रोमन सम्राट ने छठवी सदी में एक विशाल शानदार चर्च बनाया था। उसका नाम रखा गया था हगिया सोफिया यानी पवित्र  ज्ञान। सल्तनत बदलने पर पंद्रहवीं सदी  में उस चर्च को मसजिद में बदल दिया गया।  सत्ता ने फिर पल्टा खाया।  1934 में शासक वर्ग ने धर्म निरपेक्षता के रास्ते पर चलकर उसे म्यूजियम में बदल दिया ताकि सभी धर्मों के लोग यहां आ सकें। पाकिस्तान को ही ले लीजिए। यहां के बलोचिस्तान प्रांत में 200 साल पुराने गुरुद्वारे को  बंटवारे के दौरान कब्जाकर उसे गवर्नमेंट गल्र्स  हाईस्कूल के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा था। 73 साल बाद अब इमरान सरकार ने उसे सिखों को सौंप दिया है। जाहिर है कि दुनिया धर्मनिरपेक्षता और मानवीयता के ओर चल रही है।


बाबर और ऐसे ही कई आक्रांताओं ने नफरत फैलाई।  उसने हिंदुओं की आस्था के प्रतीक  राम के अस्तित्व को मिटाने की कोशिश की थी, उनका खुद का अस्तित्व मिट गया। आज कहां है बाबर? बर्बरता सेकोई दिलों में जगह नहीं बना सकता जबकि बाबर के समकालीन तुलसीदास ने अयोध्या के मंदिर के राम को जनमन का राम बना दिया।  बहुसंख्यक समुदाय में आज बिना राम के कोई कुछ नहीं करना चाहता। छोटे से छोटे और बड़े से बड़े, जीवन के हर कर्म की शुरुआत और समापन राम के नाम पर करना चाहते हैं। लोग जन्म से लेकर मृत्यु तक राम को नहीं भूलना चाहते। ऐसे राम को हम अयोध्या के मंदिर में बंद कर कुछ गलत तो नहीं कर रहे? मंदिर तो घर-घर में हैं। और राम लोगों के मन मंदिर में। कहीं हम बाबर को जैसे को तैसा जवाब देकर फिर से नफरत के बीज तो नहीं बो रहे? मंदिर चाहे कितना ही बड़ा और भव्य बना लीजिए, वह राम के कद से छोटा ही होगा।


नफरत फैला कर राज करने वालों को इतिहास माफ नहीं करता है। जैसे आज बाबर के प्रति लोगों में नफरत है, वैसे ही बाबर के रास्ते पर चलकर नफरत फैलाने वालों के खिलाफ भी हो सकती है। लंबे समय तक शासन में बने रहना कोई बड़ी बात नहीं है, बड़े स्मारक बनाना भी कोई बड़ी बात नहीं हैं, इंसानियत के लिए बड़ा काम करना सबसे बड़ी बात है। 



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