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Showing posts from 2015

प्रवासी हिंंदी साहित्य एवं ब्रिटेन

                 डा. सुरेंद्र सिंह प्रवासी हिंदी साहित्य के सबंध में जाने माने साहित्यकार एवं हंस के संपादक रहे राजेंद्र यादव की राय अच्छी नहीं रही। उनके शब्दों में प्रवासी हिंदी साहित्य नास्टालजिया (अतीत की झलक) भर है। उन्होंने जामिया मिलिया के एक कार्यक्रम में कहा- ‘‘अभी जो प्रवासी हिंदी साहित्य रचा जा रहा है, वह कुछ खास नहीं है’’। हंस में प्रकाशित एक लेख में अजित राय ने तो इसे हिंदी का ‘अंधकार युग’ तक कह डाला।  अनेक समीक्षक उनके स्वर में स्वर मिलाते दिखते हैं,  किसी ने कहा है कि इसमें आत्म आश्वस्ति नहीं है।  लेकिन दूसरे तमाम विद्वान उनके इस कथन से सहमत नहीं हैं। प्रवासी हिंदी साहित्यकार सुधा ओम धींगरा के अनुसार यह अतीतजीवी नही भारतजीवी है। ब्रिटेन के प्रवासी हिंदी साहित्यकार तेजेंद्र शर्मा ने प्रवासी साहित्य के इस दौर को हिंदी साहित्य का ‘स्वर्णयुग’ कहा है। तेजेंद्र शर्मा की बात से पूरी तरह सहमत न हुआ जाए तो भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि यदि मूल हिंदी साहित्य अपने देश और समाज के लोगों को समझने का आईना है तो प्रवासी हिंदी साहित्य दुनिया को समझने का। सात समंदर पार बैठे हम बहुत से

सात सौ करोड़ का ब्याय फ्रैंड

सात सौ करोड़ का ब्याय फ्रैंड डा. सुरेंद्र सिंह भाई लोग छह महीने से ढूढ़ रहे थे, कुंओं में बांस डाल रहे थे, खाक छान रहे थे, घर-घर अलख जगा रहे थे। लेकिन मुआ कुछ मिल ही नहीं रहा था। जाने कितनी बार अपने लोगों को प्रोत्साहित किया, जल्दी लाओ खोज के, पुरस्कार मिलेगा।  डांट भी लगाई,- ‘‘निकम्मो, कुछ करो, हाथ पर हाथ धरे बैठे रहोगे तो टापते रह जाओगे। फिर कुछ हाथ नहीं आने वाला’’। आखिर सफलता मिली ‘जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी बैठ....’। समय तो लगा पर मन की कुछ मुराद पूरी हुई, लो मिल गया- पूर्व आईपीएल अध्यक्ष ललित मोदी का मामला। सुषमाजी भ्रष्टाचार के मामले में बहुत बड़ी-बड़ी बातें करती थीं, ‘अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे’। दीजिए इस्तीफा। सबसे सरल और बड़ी मांग यही है। भूल गए क्या? इन्होंने भी तो खूब मांगे थे, इस्तीफे। जरा सी कोई बात हो, दो इस्तीफा, मनमोहन सिंह तक का इस्तीफा मांगा गया था।  मोदी पर क्रिकेट के भ्रष्टाचार और मनी लाड्रिंग आरोपों के चलते बीसीसीआई ने आजीवन प्रतिबंध लगाया था। सात सौ करोड़ के घपले के अरोपी को विदेश मंत्रालय ने विदेश जाने की अनुमति दी है। कोई छोटा-मोटा मामला नहीं है। पचास करोड़ की गर्लफ्

सपने सुहाने

डा. सुरेंद्र सिंह एक मंत्री जी लोगों को खासतौर से युवाओं को रेबड़ी की तरह सपने बांट रहे थे, -‘‘जिंदगी में यदि बड़ा बनना है तो बड़े से बड़े सपने देखिए। जब तक ऐसा नहीं करेंगे, बड़े नहीं बन सकते। सपने जरूरी है’’।  सपनदास तो कब से बड़ा बनने की चाह लिए हुए है। उसकी तो मानो बिन मांगे मुराद पूरी हो गई।  कोई तो मिला जो बड़े आदम बनने की सलाह दे रहा है, वरना तो सभी की यही कोशिश रहती है कि केवल वही बड़ा बना रहे, दूसरे सभी उससे नीचे रहें।  सपनदास ने ठान ली, मैं इस आदमी की बात जरूर मानूंगा, किसी और की बात मानूं या न मानूं। इसकी बातों में सार है। लिहाजा सायं को खूब अच्छी तरह खा पीकर और भजन-पूजन करके सोया। भगवान से वायदा भी किया कि आज अच्छा सा बड़ा होने का सपना दिखा दे सवा सौ रुपये का प्रसाद बाटूंगा। लेकिन उस रात कोई सपना ही नहीं आया। आधी से ज्यादा रात तो सपने के इंतजार में ही बीत गई इसके बाद जब आंख खुली तो दिन निकल चुका था। दफ्तर लेट पहुंचा और अफसर की डांट खानी पड़ी।  उसे ऐसी गुस्सा आई कि अपना मूड़ फोड़ ले। पूरी रात में साला एक सपना नहीं। बाकी रातों में न चाहने पर भी सपने पर सपने आते रहते हैं, ठीक से नींद तक न

बेड़ा गरक-9

डा. सुरेंद्र सिंह कक्षाएं दो महीने पहले से चालू हैं लेकिन बीकॉम और बीए इतिहास का अभी तक एक भी पीरिएड नहीं लगा। कैसे लगें? इनके लिए कोई प्रवक्ता नहींं है? कोर्स पिछड़ा जा रहा है, छात्र हल्ला करते हैं। कहां से आ जाएं प्रवक्ता? मैनेजर खर्च बढ़ाने के लिए तैयार ही नहीं हैं। उन्होंने लक्ष्मण रेखा खींच रखी है, इससे आगे कदम मत बढ़ाना। चाहे जो हो। कालेज कमाने के लिए खोला है, गंवाने के लिए नहीं। जब पानी सिर से ऊपर जाने लगा तब प्रिंसिपल ने बड़ी हिम्मत के साथ बात चलाई, शायद बात बन जाए नहीं तो दो टके का जवाब सुनने के लिए वह पहले से तैयार हैं। -‘‘सर, न हो तो कॉमर्स और इतिहास के लिए एक-एक प्रवक्ता रख लें? थोड़े दिनों के लिए। चार-पांच महीने के बाद हटा देंगे। इतने में ही काम चल जाएगा’’। मैनेजर की त्योरियां चढ़ते ही प्रिंसिपल सकपका जाते हैं। वह बात संभालने की कोशिश करें तब तक वह गोली दाग देते हैं- ‘‘अकल कहां चरने चली गई है? लगता है, तुम्हारे वश की बात नहीं है। कहां से लाओगे हर प्रवक्ता के लिए आठ-दस हजार रुपये प्रति माह?’’ चपरासी से-‘‘बुलाओ एकाउटेंट मेहरोत्रा को। कोई काम है, इस पर। फीस आती नहीं है....दिन भर क

बेड़ा गरक-8

डा. सुरेंद्र सिंह कई दिन से मुरछाए डा. गनेश सिंह के चेहरे पर सुरमई रौनक सी है, जैसे अंधे के हाथ बटेर लग गई हो। मैनेजर साहब पूछते हैं क्या बात है, कुछ हुआ? वह उत्साह के साथ जवाब देते हैं, -‘‘पांच-पांच में पच्चीस तय कर दिए हैं। इसी तरह दो-तीन और मामले फंस जाएं तो अपना बेड़ा पार’’। -शाबाश। इसी तरह लगे रहो’’। -‘‘सर कल ही पैसे भुगतान करने होंगे’’। -‘‘चिंता मत करो’’। अगले दिन जब वे वापस आते हैं तो चेहरे पर १२ बज रहे होते हैं। मैनेजर को हालचाल पूछने की जरूरत नहींं होती, चेहरा सारा बयान कर देता है। डाक्टर साहब के मुंह से बड़ी मुश्किल से निकलता है, -‘‘दूसरे लोग १२-१२ में सबको तोड़ ले गए सर’’। यह वाक्या यूपी बीएड काउंसलिंग का है। रोज ऐसे चमत्कारिक और इससे बढ़कर वाक्ये हो रहे हैं। एक तो जितनी कुल सीटें हैं, उससे कम ने बीएड की संयुक्त प्रवेश परीक्षा दी। इसके बाद उनमें से आधे से भी कम प्रवेश लेने के लिए काउंसलिंग केंद्रों पर आ रहे हैं, नतीजतन सभी कालेजों की सीटें खाली रहना स्वाभाविक हैं। इसलिए बीएड सीटें भरने को मारामारी मची है। ऐसी कुटिल चालें महाभारत में भी नहींं चली होंगी, जो इस वक्त चल रही हैं। बड़

बेड़ा गरक-7

डा. सुरेंद्र सिंह ये बाबूजी हैं, ऐसे ही जैसे दूसरे कालेजों के बाबू। फीस जमा करना, मार्कशीट काटना, प्रवेश करना, छात्रवृत्ति के फार्म भरना, कालेज का हिसाब-किताब रखना इनके पास ऐसे ही काम हैं जैसे दूसरे बाबुओं के। लेकिन ये आंखों पर मोटे चश्मे वाले गुजरे जमाने के काम से काम रखने वाले बाबू नहीं हैं, आधुनिक हैं। इनकी ंन केवल आधुनिक चाल-ढाल है बल्कि सोच भी आधुनिक है और ठाठ-वाट भी आधुनिक। इनके लिए निष्ठा-विष्ठा पुराने जमाने की चीज है। जो कुछ मिल जाए, वह अपना। ‘सबै भूमि गोपाल की’। ये नौकरी एक कालेज की बजाते हैं लेकिन ईमानदारी से काम दूसरे कालेजों के लिए करते हैं। कालेज से छु्ट्टी ले ली,  माताजी बीमार हैं, पहुंच गए दूसरे कालेज मे एडमीशन की लिस्ट देने। कभी नाना-नानी को मरी बता दिया। कभी पापा, भाई, भतीजे सबकी तकलीफों को अपने धंधे में भुनाते रहते हैं। दूसरे कई कालेजों के मालिकों से सीधे घर के से संबंध हैं। धंधा का धंधा, यदि एक कालेज से लात मारी जाए तो दूसरा तैयार। किसी को दस एडमीशन दिए तो किसी को बीस। एक साल में चालीस-पचास तक पहुंचा देते हैं। दूसरे जिलों और राज्यों के अपने जैसे लोगों से भी इनके स

बेड़ा गरक-6

डा. सुरेंद्र सिंह कहने के लिए ये नेताजी हैं, झकाझक सफेद कमीज और ऐसी ही पेंट। बातें बहुत बड़ी-बड़ी। किसी का भी कोई काम मिनटों मे करवाने का वायदा।  कोई एक बार बात कर ले फंसे बिना नही रह सकता। हाथ में भारी सा बैग। उनका यह बैग ऐसा-वैसा नहीं है,  कई डिग्री कालेजों का चलता-फिरता कार्यालय है। इसमें कालेजों के ब्रोशर से लेकर प्रवेश फार्म, बैंक एकाउंट खुलवाने के लिए कालेज की मोहर लगे तथा हस्ताक्षरित फार्म आदि भूसे की तरह भरे रहते हैं। जहां भी जाते हैं, वह यह बताना नहीं भूलते कि वे फलां पार्टी के प्रदेश स्तरीय पदाधिकारी हैं। एक बार एमएलए का चुनाव भी लड़ चुके हैं, आगे भी इसके लिए प्लानिग कर रहे हैं। कई कालेजो में इनका भारी रुतबा है। कारण यह है कि उन्हें चलवाने में उनका अच्छा खासा सहयोग रहता है। जाहिर है कि कालेज के मुख्य कर्ताधर्ता इन्हें सम्मान के साथ बुलाते हैं। साथ में खातिरदारी भी करते हैं। एकाध ने तो इन्हें अपने यहां आनरेरी कर्मचारी नियुक्त कर आईडेंटिटी कार्ड तक दे रखा है। घर पर कालेज के स्थानीय कार्यालय के बोर्ड भी लगे हैं। यह एक साथ अनेक मोर्चों पर तैयारी कर रहे हैं। यह घर-घर जाकर श्क्षिा

बेड़ा गरक-५

डा. सुरेंद्र सिंह ललुआ की पान की दुकान है। वह पढ़ा-लिखा ज्यादा नहीं है, मुश्किल से आठ होगा, इससे कम भी हो सकता है, ज्यादा हरगिज नहीं। लेकिन वह पढ़े-लिखों के कान काटता है। कालेजों के प्रवेश फार्म वह कालेज वालों से भी ज्यादा फर्राटे से भरता है। इस जमात में उसकी इतनी जान पहचान है उतनी किसी एमएलए की भी नहीं होगी। आसपास चारों ओर १०-१५ किलोमीटर के दायरे में शायद ही कोई ऐसा युवक होगा जो उसे नहीं जानता हो। कालेजों के प्रिंसिपल और मैनेजर उसे न केवल सम्मान के साथ बुलाते हैं बल्कि चाय भी पिलाते हैं। उसकी दुकान भी क्या है पिद्दी सी। एक छोटे से खोखे में पान के अलावा बीड़ी, सिगरेट, पान मसाला आदि से ज्यादा कागज भरे रहते हैं। वह भी रद्दी के नहीं, कालेजों के। किस कालेज में दाखिला लेना है, किसी के पास जाने की जरूरत नहीं, कालेज में पैर मत रखिए। ललुला से मिलिए। वह दुकान से ही एडमीशन करा देगा। बल्कि यह कहिए कर देगा। फीस भी ज्यादा नहीं लेगा। -‘‘ललुआ भाई हमें बीए में दाखिला लेना है’’। इतना बताने की जरूरत है। वह आसपास के तकरीबन सारे कालेजों की फीस और सुविधाएं एक ही सांस में बता देगा। यह छात्र के ऊपर निर्भर है,

बेड़ा गरक-४

डा. सुरेंद्र सिंह एडमीशन के लिए मारा-मारी मची है समरभूमि की तरह। चारों ओर हाथपैर मारे जा रहे हैं। कहीं से भी लाओ, एडमीशन कराओ। अनेक लोग जुटा रखे हैं, क्या टीचर, क्या बाबू, घर के नौकरों तक को जिम्मेदारी दे रखी है। दलाल भी लगे हैं। इस मौके पर मैनेजर भी खाली हाथ क्यों रहें? वह भी लगे हैं,  अपने मित्रों और जान पहचान वालों से। एक स्वजातीय बंधु इंटर कालेज के प्रिंसिपल से सहायता की गुहार करते हैं -‘‘भाई मदद करो, साला डिग्री कालेज क्या ले लिया? बुरे फंस गए हैं, आफत मोल ले ली है। पैसे के पैसे गए, अब दाखिले ही नहीं हो रहे। इसमें तो ब्याज भी नहीं निकलेगी।  ज्यादातर सीटें खाली पड़ी हैं। -‘‘आप चिंता न करें, दस-बीस जितने भी होंगे, मैं देख लूंगा। आप फार्म भिजवा दें। भरकर फीस समेत भिजवा दूंगा। एक विनती है, बच्चे पढ़ने कालेज में नहीं आएंगे। केवल इम्तिहान देंगे, वे लोग अपना काम करते हैं’’। -‘‘वह कोई बात नहीं। हाजिरी भरवा देंगे’’। -लेकिन हमारा ख्याल रखना’’। -‘‘इसकी आप चिंता बिल्कुल न करें। आपका हिस्सा आपको घर बैठे मिल जाएगा’’। कई दिन बाद मैनेजर एक प्रवक्ता को भेजकर भरे हुए फार्म मंगवाते हैं। किसी के साथ आ

बेड़ा गरक-३

डा. सुरेंद्र सिंह डिग्री कालेज में एडमीशन के लिए आधा सीजन बीत चुका है, अभी तक ऐसी स्थिति नहीं बनी कि क्लास चल सकें। ज्यों-ज्यों दिन बीतते जाते हैं, प्रिंसिपल के चेहरे पर चिंता की लकीरे उतनी ही गहरी होती जाती हैं, ‘जवान बेटी के हाथ पीले करने की चिंता की तरह’। प्रबंधक  कई बार डांट चुके हैं, -‘‘कुछ करो, ऐसे ही हाथ पर हाथ रखे रहोगे’’। लिहाजा प्रिंसिपल को उपाय सूझा  क्यों न इंटमीडिएट कालेजों की मदद ली जाए। बच्चे तो यहीं आते हैं। लेकिन संबंध कैसे स्थापित किया जाए, यह एक अहम समस्या है।  दोनों के स्तर में अंतर है।  इंटरमीडिएट कालेज वाले तो डिग्री कालेज वालों के सामने पानी भरते हैं। पर मतलब निकालने को ‘गधे को बाप बनाना पड़ता है’, ‘कभी-कभी उल्टी गंगा भी बह जाती है’।  सो पहले लिस्ट बनाकर उन्हें चाय पर आमंंत्रित करते हैं। रोजाना उन्हें फोन पर दोस्ती भरी बातें कर उन्हें फंसाने की कोशिश करते हैं लेकिन वे कोई न कोई व्यस्तता का बहाना बना छिटक कर चालान लोमड़ की तरह दूर हो जाते हैं। चाय के नाम पर एक नहीं फटकता। लिहाजा प्रिंसिपल को अब उनके पास जाने में भी एतराज नहीं है. ‘प्यासा कुंए के पास जाता है’, कुंआ

बेड़ा गरक-२

डा. सुरेंद्र सिंह अब ये शिक्षा के भावी कर्णधार हैं? देश का उज्ज्वल भविष्य हैं? परिवार वालों को इनसे बहुत उम्मीद हैं। इसलिए नहीं कि यह पढ़ाई में एक्ट्रा आर्डिनरी हैं, नंबर तो ऐसे ही घिसे-पिटे लाते हैं किसी तरह ले-देकर पास हो जाते हैं। एप्लीेकेशन लिखते हैं तो उसमें दस गलती करते हैं, कालेज का नाम तक सही नहींं लिख सकते। इनकी विशेषता है कि ये अपनी पढ़ाई का खर्च खुद निकाल लेते हैं, किसी पर बोझ नहीं बनते। बीएससी द्वितीय वर्ष में पढ़ रहे हैं। पढ़ाई में कम दूसरे कामों में ज्यादा व्यस्त रहते हैं। इनका मानना है कि पढ़ाई में क्यों टाइम खराब करें? पास तो हो ही जाएंगे। नौकरी नंबरों से नहीं जुगाड़ और पैसे से मिलती है। सो हर वक्त जुगाड़ में लगे रहते हैं। कालेज भी इनसे खुश है, क्योंकि यह उसकी भी मदद करते रहते हैं। कौन छात्र क्या हरकत करता है, किसने किससे क्या कहा आदि-आदि। कालेज का अधिकांश स्टाफ इन्हें नाम से जानता है। अभी प्रिंसिपल के पास आए हैं, गेट के पास खड़े होकर मुलाकात के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं। कई मिनट हो गए, प्रिसिपल के सामने बैठे सज्जन अभी तक कुर्सी से चिपके हुए हैं। प्रिंसिपल सवाल की मुद

सैमरी या मैगी

डा. सुरेंद्र सिंह मैगी! मैगी! मैगी! बच्चे लोग मैगी के पीछे पड़े थे, ऐसे ही जैसे नौजवान लड़कियों के पीछे। यही चाहिए, केवल यही चाहिए, चाहे जान चली जाए। दावत में सौ तरह के व्यंजन हैं, एक से एक बढ़कर, जायकेदार लेकिन बच्चों का जमघट  मैगी के ही इर्दगिर्द लगता। बच्चे ही नहीं हर वय के लोग इसके दीवाने हो चले थे। वह तो भला हो केंद्रीय ग्रह मंत्री जेपी नड्डा का उन्होंने आंखेंं खुलवा दी। इसके बात तड़ातड़ इसकी बिक्री पर प्रतिबंध लगने लगा है। देखते ही देखते आधा दर्जन से ज्यादा राज्यों में प्रतिबंध लग गया है।  पर कहीं महीने-दो महीने, तो कहीं तीन महीने के लिए। इससे ज्यादा नहीं। ऐसा करने में गुंजाइश रहती है, प्रतिबंध को और आगे बढ़ा सकते हैं और यहीं तक भी रहने दे सकते हैं। इसके अपने-अपने गणित हैं। मैगी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, कुछ तो यह जानबूझ भी इसके फटे में पैर रख रहे थे। जब यह हानिकारक है तो स्वास्थ्य बर्धक कौन सी है, हर चीज में तो मिलावट है, आटे से लेकर मिर्च-मसाले, दूध, घी, पनीर, लौकी, तोरई, गोभी, टमाटर, यहां तक कि पानी भी शुद्ध नहीं है, फिर अकेले मैगी में क्या रखा है? किसी में थोड़ा ज्यादा तो किसी

बेड़ा गरक

डा. सुरेंद्र सिंह क्यूएस वर्ल्ड यूनिवर्सिटी रेकिंग पर तो बेकार में गुस्सा करते है, उसने हमारे किसी भी विश्वविद्यालय को दुनिया के दो सौ श्रेष्ठ विश्वविद्यालयों मेंं नहीं माना। लेकिन स्थिति इससे भी ज्यादा  खराब है। बल्कि खराब से भी खराब है। न केवल उच्च श्क्षिा बल्कि माध्यमिक शिक्षा और उससे नीचे प्राथमिक शिक्षा। पूरा अवा का अवा खराब हो चला है। शिक्षा का बेड़ा गरक है। बानगी के तौर पर इनसे मिलिए, ये जनाब बीएससी (मैथ) प्रथम वर्ष में दाखिले के लिए आए हैं। इंटरमीडिएट में शायद ही किसी दिन पढ़ने के लिए गए होंगे। लेकिन नंबर पूरे ८५ प्रतिशत। प्रिसिंपल के सामने ऐसे तन कर बैठे हैं, जैसे ये नहीं वे ही प्रिंसिपल हों, उनकी आंखों में आंखें डालकर पूछ रहे हैं, आपके यहां क्या परसेंटेज बन जाएगी? यहां भी वह पढ़ेंगे नहीं, सिर्फ परीक्षा देंगे। नकल की गारंटी हो तो एडमीशन लें। पढ़ाई किसे चाहिए, सबको तो परसेंटेज की जरूरत है। आप क्या सोच रहे हैं प्रिसिंपल साहब उसे डांट कर भगा देंगे। उससे कहेंगे तुम्हारी ऐसा कहने की हिम्मत कैसे हुई? यदि ऐसा करेंगे तो यह उनकी भारी भूल होगी। इससे वे नाकारा साबित हो सकते है। मैनेजमेट की

गली के कुत्ते

डा. सुरेंद्र सिंह गली के कुत्ते भी कुत्ते होते हैं, उनमें और दूसरे कुत्तों में इतना ही अंतर है, जितना फाइव स्टार आदमी और सड़क के आदमी में। फाइव स्टार कुत्ते कारों में चलते हैं, एयरकंडीशंड में रहते हैं लेकिन गली के कुत्ते गलियों में जहां अक्सर भों-भौं करते कुटते-पिटते, डांट खाते रहते हैं। फाइव स्टार कुत्ते केवल अपने मालिक की रक्षा करते हैं, लेकिन गली के कुत्ते पूरे मोहल्ले की। कितना ही इन्हें तिरस्कृत कर लो, लात-लाठी से मार लो, लेकिन ड्यूटी से विचलित नहीं होते। हर वक्त सोते-जागते एक ही धुन, क्या मजाल रात में कोई अनजान इंसान आ जाए। यहां तक कि अपनी बिरादरी वालों को भी फटकने नहीं देते। ये अपनी ड्यूटी के लिए ऐसे ही मुस्तैद हैं जैसे शिक्षा मित्र और अनुबंिधत कर्मचारी। ये ड्यूटी देते हैं, परमानेंट वाले वेतन और रिश्वत लेते हैं। गली के कुत्ते रिश्वत नहीं मांगते। चुगलखोरी नहीं करते। विश्वासघात भी नहीं करते।  जिम्मेदारी से नहीं हटते।  कुत्ते जिसकी खाते हैं, उसकी बजाते हैं और आदमी... जब कोई फाइव स्टार कुत्ता कार में जा रहा होता है तो वह गली के कुत्तों को ऐसे घूरता है-जैसे उसके सामने वे तुच्छ प्राणी

ऊपर का चक्कर

डा. सुरेंद्र सिंह ऊपर का चक्कर बहुत महान होता है, जो काम हनुमानजी भी नहीं करा सकते उसे ऊपर का चक्कर करा सकता है।  सारी दुनिया एक तरफ और ऊपर का चक्कर एक तरफ। यदि दोनों में छिड़ जाए तो फतह सौ आने ऊपर के चक्कर की होगी। मैंने डिक्शनरियों में देखा, गूगल पर बहुत तलाशा लेकिन इसका मीनिंग कहीं नहीं मिला। फिर भी ध्यान लगाया। ऊपर का चक्कर चीज ही ऐसी है- निराकार, साकार, अव्यक्त, चर-अचर, अजर-अमर, सर्वव्यापक। बहुत पहले भी इसका चक्कर था और अब जबकि लोग २१ सदी में पहुंचने के बाद २२ सदी में जाने की तैयारी चल रही है तब भी इसके प्रभाव में कहीं कोई कमी आती नहीं दिख रही।। जब जेम्सवाट की खोज पर बनी दुनिया में पहली रेलगाड़ी चली तो बहुत से लोग समझे, इस पर ऊपर का चक्कर है। कई साल पहले एक बाबा आते थे, होटल में रुकते। प्रेस कांफ्रेंस करके बताते कि वह बाबरी मसजिद विवाद हल कर सकते हैं। मैंने पूछा कैसे? यह तो बहुत बड़ा काम है, इसके नाम पर जाने कितने ही दंगे फसाद हो चुके हैं। जो काम बड़े-बड़े नेता नहीं कर सके, सरकार भी इसके सामने लाचार है...। वह रहस्यपूर्ण मुद्रा में बताते- ऊपर के चक्कर से। मैं पूछता- यह ऊपर का चक्कर क्य

मन की बात

      डा. सुरेंद्र सिंह मन बेलगाम घोड़ा की तरह है, पागल हाथी की तरह है। मन पवन से भी तेज चलायमान है, पानी से भी पतला है। सर्वगम्य है, जहां कोई नहीं पहुंच सकता, वहां यह पहुंच सकता है। यदि मन के साथ चले तो यह अंधेरे कुएं में गिरा देगा। इसलिए मन की लगाम कस कर रखो। जिसका मन पर वश, वही सर्वस्व। शास्त्रों की इस तरह की न जाने कितनी बातें सुन-सुन कर कान पक गए हैं और मन थक गया हैं। अब ‘मन की बात‘ हो रही है। देश के मुखिया के मन की बात है तो इसमें जरूर कोई तथ्य की बात होगी। मैं ठहरा धर्म भीरू, शास्त्रों को सही मानूं या ‘मन की बात’।  यह ‘मन की बात’ है या ‘मन के लड्डूओं की बात’? मन में लड्डू कभी फूटते हैं और फूटकर ही रह जाते हैं, इससे आगे कोई क्रिया नहीं होती। मन सपने की तरह है, इसमें कुछ भी संभव है। यह राजा को रंक बन सकता है और रंक को राजा। इससे कारू का खजाना मिल सकता है, बदन के कपड़े भी उतर सकते हैं,  ‘हर्र लगे न फिटकिरी, रंग चोखा ही चोखा’। मन आश्वस्ति देता है। बेसहारों का सहारा है। यदि मन नहीं हो तो आदमी पागल हो जाए। यह मन ही तो है जो सब कुछ ला सकता है।  यह दिमाग और शरीर में संतुलन बनाकर रखता है।

सूटबूट और सूटकेस

      डा. सुरेंद्र सिंह लोग कहें कुछ भी, सूटबूट और सूटकेस का अन्योन्याश्रित संबंध है, ऐसे ही जैसे आग और धुंआ। आग है तो धुआं जरूर होगा और धुआं है तो आग। लेकिन मैदाने जंग में भाई लोग लड़े जा रहे हैं -‘‘तेरे पर सूटबूट है’’। -‘‘तेरे पास सूटकेस है’’। -‘‘तेरे पर कई सूटबूट हैं’’,  -‘‘तेरे पर कई सूटकेस हैं’’। तू-तू, मैं-मैं इतनी जोर से है कि दूसरे लोगों के लिए यह समझना मुश्किल हो चला है कि आखिर ये कहना क्या चाह रहे हैंं? क्यों कहना चाह रहे हैं। अरे भाई जिसका जो सामान है, उसके लिए है, तुम्हें क्यों जलन हो रही है। भगवान ने दिया है ‘छप्पर फाड़ के’। पहले किसी को ससुराल जाना होता तो एक दूसरे से मांग कर सूटबूट और सूटकेस ले जाते ताकि रिश्तेदारी में धाक बन सके। कोई समझे कि हम हैं।  कई को इसमें गर्व का अहसास होता कि वह लोगों के काम आ रहे हैं ‘परहित सरिेस धरम नहिं कोई’ तो कुछ लोग उन्हें छिपाकर रख देते कह देते-‘‘हम पर कहां हैं? बहुत पहले खराब हो गए’’। कुछ लोगों पर सूटकेस होता तो कुछ पर सूटबूट। दोनों एक दूसरे के काम आते। काम चलता रहता। कोई-कोई इतने ओछे, एक बार काम न चलाया तो उलाहना देते- ‘‘तूने हमें सूटक

ह्वाइटनर

                 डा. सुरेंद्र सिंह ह्वाइटनर मुआ निकम्मा सिर्फ कागज पर ही लगता है। यदि यह दिल पर लग जाता तो न जाने कितनों की जानें बच जाती, कितनों को डाक्टरों के चक्कर लगाने से मुक्ति मिल जाती सेहत ठीक रहती, ब्लड प्रैशर नहीं बढ़ता और न जाने क्या से क्या हो जाता, दुनिया बदली-बदली सी नजर आती। घर-घर के दोस्त-दोस्तों के, आस-पड़ोस के रिश्ते खराब होने से बच जाते। लेकिन क्या किया जाए, यह सिर्फ कागज का ही मुरीद है। कागज पर कोई गलती है फौरन लगाओ, फौरन उसे छिपाओ।  भूल सुधार के लिए यह साफ सुथरा तरीका है। नेताओं की तरह। अंदर से चाहे कितने ही कलुषित हैं लेकिन बाहर एकदम झकाझक टिनोपाल युक्त। पहले भी क्या था जो एक बार लिख गया, वह लिख गया, पत्थर की लकीर। मुगलकालीन स्मारकों की दीवारों पर सैकड़ों साल पहले लिखे को देख लो, आज भी वैसा ही दमकता है। कोई माई का लाल उसे बदल नहीं सकता। जो एक बार गलती हो गई, वह हो गई। पहले स्याही भी ऐसी पक्की थी जो छुड़ाए नहीं छुटती। बाद में गलती सुधार जमाना आया। पहले गलती सुधार कार्बन पेंसिल आई। उसके साथ रबड़ का अटल संंंबंध स्थापित हो गया। गलती हो तो फौरन सुधारो। एक हाथ में पेंसि

लड़कियां फिर आगे

            डा. सुरेंद्र सिंह लड़कियां फिर-फिर आगे हैं। कोई भी रिजल्ट आ रहा हो. यूपी बोर्ड, सीबीएसई अथवा आईसीएसई, यह तय है लड़कियों को ही आगे रहना है। पिछले कुछ सालों से बदले सूचकांक की तरह यह नियति जैसा है। पहिया जब आगे को घूमता है तो घूमता चला जाता है जब उल्टा चलता है तो उल्टा ही चला जाता है। लड़कियों का मामला भी अब कुछ ऐसा ही है। किसी भी सर्वेक्षण या मार्केर्टिंग के लिए चार लड़कों और इतनी ही लड़कियों को भेज दो, सायं को रिजल्ट यही होगा, लड़कियां आगे। प्रशासनिक कार्य हो, अनुशासन का मामला हो, लड़कियां ही आगे। रास्ते में जरा लड़कियों को छेड़कर देखिए, कोई-कोई लड़की ऐसी दुर्गा बन जाती है, लड़कों को दुम दबाकर भागना पड़ता है। बहुत पहले यह धारणा थी कि लड़की का मतलब फिसड्डी, शरीर से ही नही, दिमाग से भी। लड़कों की तुलना में दबी-दबी सी। मेरे भाई का लड़का है। बहन उससे तीन साल बड़ी है। लेकिन वह उस पर इस तरह रौब गांठता है कि वही उसका अभिभावक हो। कहां जा रही है, किससे बात कर रही है, स्कूल से आने में देर क्यों हुई? ऐसी जाने कितनी जन्मजात आदतें हैं लड़कों की वे लड़कियों को अपने सामने दो टके की नहीं समझते। मैंने

किसने किस की क्लास ली

         डा. सुरेद्र सिंह अब लो यह भी मुद्दा है। किस ने किसकी क्लास ली? किसने किस की कक्षा अटैंड की। खैर मोदी ने देर से ही सही पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की क्लास अटैंड कर ली। उन्होंने लीक नहीं तोड़ी। तकरीबन सभी प्रधानमंत्री अपने से पूर्व प्रधानमंत्रियों की क्लास अटैंड करते रहे हैं। अटल बिहारी वाजपेयी और चौधरी चरण सिंह ने भी ऐसा किया। अटल ने पीवी नरसिंह राव की क्लास अटैंड की और चौधरी चरण सिंह ने श्रीमती इंदिरा गांधी की। ज्यादातर प्रधानमंत्री पदभार ग्रहण करने के तत्काल बाद ही ऐसा करते आए हैं। कई बार पहले क्लास अटैंड कर लेते हैं, बाद में पदभार संभालते हैं। अपनी-अपनी समझ और सुविधा है। मोदी के बारे में यह कह सकते हैं कि उन्होंने देर से इस पर ध्यान दिया लेकिन प्लानिंग तो मनमोहन सिंह की ही चला रहे थे। सारी योजनाएंं उनकी कार्यान्वित कर रहे थे। नाम नहीं ले रहे थे तो क्या? नाम में क्या रखा है।  गैस पेपर से तो उन्हींं के से काम चल रहे हैं।  प्राचीन काल में अपने यहांं गहरे से गहरे दुश्मनों की क्लास अटैंड करने मेंं परहेज नहीं किया गया। भगवान राम ने रावण से शिक्षा ली। उनके द्वारा लक्ष्मण को

मंदिर-मंदिर

                      डा. सुरेंद्र सिंह खेल कई तरह के हैं। कुछ लोग कबड्डी-कबड्डी खेलते हैं, कुछ क्रिकेट-क्रिकेट, कुछ हाकी ही हाकी, तो कुछ लोग मंदिर-मंदिर खेलते हैं तो कुछ लोग भ्रष्टाचार-भ्रष्टाचार खेल रहे हैं। अपनी-अपनी पसंद के खेल हैं। कुछ लोग खेल के नाम पर पूरी जवानी गुजार देते हैं, जो लत पड़ गई, वह बुढ़ापे में भी नहीं जाती। किसी न किसी तरह खेल से ही जुड़े रहते हैं। कुछ लोग खेल न जानने पर खेलों के सर्वेसर्वा बन जाते हैं। ऐसे ही कुछ लोग दशकों तक एक ही खेल खेलते रहते हैं। विरले होते हैं तो समय से संन्यास ले लेते हैं। खेल से जिंदगी आसान हो जाती है। खेल न हो तो जिंदगी कितनी उबाऊ और नीरस हो जाए। पुरखों ने बहुत सोच समझकर इन्हें ईजाद किया। महानगरों में जिन्हें दिन में टाइम नहीं मिलता वे रात में खेलते हैं। कुछ लोग जिन्हें इसके लिए अवसर नहीं मिलता, वे काम को खेल की तरह खेलते हैं। खेल-खेल में लकड़ी काटने में लकड़हारे की कुल्हाड़ी नदी में गिर गई। रोने लगा, अब किससे खेले? यक्ष को दया आई। वह लोहे की जगह पीतल की कुल्हाड़ी नदी से निकाल लाया। शायद इससे खुश हो जाए। लकड़हारा फिर भी रोने लगा। यक्ष पीतल की

प्रधान सेवक

                  डा. सुरेंद्र सिंह अपने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब प्रधानमंत्री नही हैं, प्रधान सेवक हैं। चुनाव के दौरान भी उन्होंने बोला था अब जबकि उनके कार्यकाल को एक साल पूरा हो चुका है, उन्हें याद है। वह अपनी जिम्मेदारी से बचने का प्रयास नहीं कर रहे।  तीन लोक से न्यारी मथुरा के फरह स्थित दीनदयाल धाम में २५ मई २०१५ को भी उपलब्धियों के साथ इसकी घोषणा कर दी है। लकीर हमेशा बड़े लोग बनाते हैं, छोटे उस पर चलने के लिए बने होते हैं। गृह मंत्री चाहें तो अपने को गृह सेवक कह सकते हैं। वित्त मंत्री भी अपने को वित्त सेवक कह सकते हैं। केंद्र सरकार के जो मंत्री अपने को मंत्री कहेंगे वे अनुशासनहीन माने जाएंगे और जो सेवक कहलाएंगे वे अनुशासित, आज्ञाकारी, पुरस्कार के हकदार।  मंत्री के स्थान पर सेवक कहलाने में अनेक सुविधा हैं। मंत्री के स्तर से कोई काम न होने का उलाहना दे तो झट कह सकते हैं, वह मंत्री नहीं सेवक है। अपने अखिलेश भइया के लिए अगला समय चुनौती भरा है। इसके बाद उन्हें चुनाव की अग्निपरीक्षा से गुजरना है। वे चाहे तो मोदीजी का अनुसरण कर सकते हैं। अच्छी बातें दुश्मनों से भी सीखने में हर्ज नहीं

दरवाजा बंद हो जाए

       डा. सुरेंद्र सिंह आदमी की पहचान केवल शक्ल-सूरत, पहनावे-ओढावे, बोल-चाल, चाल-ढाल से ही नहीं, दरवाजे से भी होती है। सही पूछी जाए तो सबसे अच्छी, पुख्ता और सटीक पहचान दरवाजे से ही होती है। वैसे तो आदमी की तरह दरवाजे भांति-भांति के होते हंैं-नाटा दरवाजा, मीडियम दरवाजा, बड़ा दरवाजा, विशाल दरवाजा, डिजाइनदार दरवाजा, सादा दरवाजा, टाट का दरवाजा, पुरानी दरी का दरवाजा, लकड़ी का दरवाजा, लोहे का दरवाजा, स्टील का दरवाजा, पीतल का दरवाजा। कुछ लोग घर चाहे कैसा हो लेकिन मुख्य दरवाजा व्यकित्व की तरह प्रभावशाली बनवाते हैं। वैसे तो किसी दरवाजे की दूसरे दरवाजे से शक्ल-सूरत नहीं मिलती। कुछ दरवाजे एक जैसे दिखने पर भी उनकी भाव-भंगिमाएं अलग-अलग होती हैं।  कुछ दरवाजे एकदम खुले रहते हैं, चाहे कोई आओ-जाओ बेरोकटोक। कुत्ते, बिल्ली और दूसरे जानवर भी उनके यहां सम्मान पाते हैं। वे किसी को भी रोकना अपनी तौहीन समझते हैं, सभी अल्ला की संतान हैं, इसमें भेदभाव कैसा। उन्हें चोरी-चकारी का भी डर नहीं। कुछ दरवाजे खुलने और बंद होने का इंतजार करते हैं। कोई दरवाजे पर आए तो उसके स्वागत में पलक पांवड़े बिछाकर खुद-व-खुल जाते हैं औ

असली फील गुड

     डा. सुरेंद्र सिंह इसे अपने केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली का नहले पर दहला कहें या उलटबांसी? कबीरदासजी की उलटबांसी में तो मछली पेड़ोंं पर चढ़ती हैं, समुद्र में आग लगती है। लेकिन जेटली साहब ने वह कर दिखाया है जो कोई नहीं कर सका। आजादी के बाद कितनी ही सरकारें आईं और गईं। कितने ही कानून बने और संशोधित हुए। कितने ही विभाग गठित हुए, बड़े-बड़े अधिकारी नियुक्त हुए और रिटायर हो गए। लेकिन भ्रष्टाचार का कोई बाल बांका नहीं कर सका। सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे भी शायद अब इसलिए शांत हैं कि अब लोकपाल की जरूरत ही कहां रह गई है? लोकपाल तो भ्रष्टाचार के मामलों की जांच के लिए होता। जब भ्रष्टाचार ही नहीं है तो लोकपाल कैसा? मोदी सरकार एक साथ कई मोर्चों पर लड़ रही है। अच्छे दिन न सही, महंगाई कम न सही, किसानों को राहत न सही, किसान विरोधी भूमि अधिग्रहण बिल ही सही, अयोध्या में राम मंदिर न सही, बेरोजगारों को रोजगार न सही, डीजल और पेट्रोल की कीमतों पर कंट्रोल न सही, कश्मीरी पंडितों की कश्मीर में वापसी न सही, लेकिन भ्रष्टचार तो खत्म किया। राजनीतिक और सरकारी भ्रष्टाचार। बताइए कहीं हुआ? एक साल में और क्या किसी

और कितनी बलि?

                 डा. सुरेंद्र सिंह राजस्थान के गुर्जर फिर एक बार आंदोलन पर हैं। इसके तहत रेललाइनें उखाड़ आदि कर तमाम लोगों को परेशानी में डाला जा रहा है। अब तक इनके आंदोलनों में तकरीबन सौ लोगों की बलि चढ़ चुकी है। २००७ और २००८ के हिंसक आंदोलनों में चार दर्जन से ज्यादा मौतें हुई, इसमें पुलिस अधिकारी भी शामिल हैं।  यह आंदोलन अभी और कितनी बलि लेगा? कुछ नहीं कहा जा सकता। गुर्जर देश की आजादी के बाद से ही आरक्षण की लड़ाई लड़ रहे हैं तब से अब तक न जाने कितनों को आरक्षण मिल चुका है। लेकिन इनकी मांग पूरी नहीं हो सकी है। इनकी पचास प्रतिशत कोटे के तहतं अनुसूचित जनजाति में पांच प्रतिशत आरक्षण की मांग जायज हो सकती है। माना जा रहा है कि आरक्षण नहींं मिलने के कारण ये अपनी समवर्ती मीना जाति से विकास की दौड़ में पिछड़ रहे हैं। लेकिन इसके लिए निर्दोष लोगों की जानें लेना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है, न पुलिस प्रशासन के लिए और न हीं आंदोलनकारियों के लिए।  कोई दो राय नहीं गुर्जर मार्शल कौम है, हजारों सालों के देश  के इतिहास के अलावा उनके आंदोलनों के स्वरूप से भी यह प्रतिध्वनित होता है, ये किसी के आगे झुकन

वादे हैं वादों का क्या

          डा. सुरेंद्र सिंह एक साल पूरा होने पर वादों को लेकर मोदी सरकार सवालों के घेरे में है। न केवल विपक्ष बल्कि मीडिया वाले सरकार और पार्टी से सवाल पर सवाल पूछ-पूछ कर उन्हें नंगा किए दे रहे हैं। बोलो, चुनाव के दौरान के वादों का क्या हुआ? क्या किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य मिलने लगा है? कालाधन विदेशों से वापस आ गया है, महंगाई कुछ कम हुई है? क्या अयोध्या में श्रीराम मंदिर बन गया है? क्या कश्मीर से धारा ३७० हट गई है? क्या लोगों के अच्छे दिन आ गए हैं? वादों को लेकर बहुत सारे सवाल दर सवाल हैं।  लेकिन अखिलेश यादव वादों को लेकर चतुर हैं। वह किसी को पूछने का अवसर ही नहीं दे रहे, कोई पूछे उससे पहले ही वे गोली दाग देते हैं कि उनकी सरकार ने अपने सारे वायदे पूरे कर दिए। शायद ही कोई जनसभा हो जिसमें वे, उनकी सरकार के मंत्री और नेता यह कहना भूलते हों। पश्चिम बंगाल में ममता और बिहार में नीतीश कुमार भी अपने सारे वादे पूरे नहीं कर पाए। मनमोहन सिंह और उनके पहले की सरकारों के भी तमाम वायदे अधूरे रह गए। उनसे तो कोई कुछ नही कहता, सब बेचारे मोदी के पीछे पड़े हैंं। -‘‘हमें किसी योजना के बारे में

मोदीजी की विदेश यात्राएं

    डा. सुरेंद्र सिंह एक साल का हनीमून मनाने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब जीवन के कड़े यथार्थ से टकराने लगे हैं। चाहे भूमि अधिग्रहण का मामला हो या प्राकृतिक आपदा से तबाही के बाद किसानोंं को  अपर्याप्त सहायता आदि तमाम मुद्दों से उन्हें जूझना पड़ रहा है।  सबसे ज्यादा आलोचना का शिकार उनकी विदेश यात्राएं हैं। कोई कह रहा है कि वह विदेश में देश की राजनीति कर रहे हैं तो कोई उन्हेंं विदेश का प्रधानमंत्री बता रहा है। यह भी कहा जा रहा है कि वे अपनी सरकार के किसी मंत्री खासतौर विदेश मंत्री का नंबर ही नहीं आने दे रहे, खुद ही सारी विदेश यात्राएं कर ले रहे हैं। अखबार ही नहीं सोशल साइट्स भी उनकी विदेश यात्राओंं पर चुटकियों से भरी पड़ी हैं। कोई कह रहा है कि मोदी अपने देश से ज्यादा विदेश में रहते हैं तो कोई उनकी विदेश यात्राओंं ब्योरेबार विवरण दे रहा है। ऐसी टिप्पणियां भी की जा रही हैं कि अब मोदी स्वदेश लौटकर आएंगे अथवा नहीं? इसमें कोई दो राय नहीं कि आजादी के बाद मोदी एक साल के भीतर सबसे ज्यादा विदेश यात्राएं करने वाले देश के पहले प्रधानमंत्री बन गए हैं। वह पिछले साल सबसे पहले भूटान से यात्रा शु

अरुणा की अरुणिमा

                       डा. सुरेंद्र सिंह कभी-कभी कोई छोटी सी जिंदगी और उसकी एक घटना भी एक मिसाल बन जाती है। जो वर्तमान ही नहीं अगली पीढ़ियों के लिए भी अंधेरे  में झिलमिलाती रोशनी का काम करती है। अरुणा न केवल जीकर बल्कि कर भी ऐसी ही एक मिसाल बन गई है। अरुणा ने अपने जीवन में कोई ऐसा काम नहीं किया, जिसके लिए उसे लोग उसे याद करें, यह भी कह सकते हैं कि उसे इसके लिए अवसर ही कहां मिला? २२ वर्ष की उम्र में जबकि वह जूनियर नर्स थी, दरिंदे ने बहशी हरकत कर उसकी जिंदगी तबाह कर दी। इसके कारण वह ४२ वर्षों तक जिंदा लाश बन कर रही।  कर्नाटक के हल्दीपुर की रहने वाली अरुणा शानबाग की तकलीफदेह  जिंदगी मानवता के लिए मील का पत्थर है। इस दौरान आर्थिक आदि परिस्थितियों के चलते जहां उसके परिवारीजन तक उससे मिलने के लिए भी नहीं आए। वहीं उनकी सहयोगियों ने जिस प्रकार उसकी सेवा की, वह अतुलनीय है। वे न केवल अरुणा के लिए इच्छा मृत्यु मांगने वाली उसकी पत्रकार मित्र पिंकी विरानी के खिलाफ लड़े बल्कि उसका शव परिवारीजनों तक देने के लिए खिलाफ हो गए। यह इंसानियत समाज के लिए प्रेरणास्पद है। इससे प्रमाणित होता है कि समाज में अभी 

यूपी बोर्ड का रिजल्ट

                         डा. सुरेंद्र सिंह यूपी बोर्ड का रिजल्ट जब-जब आता है, तब-तब न कुछ न कुछ अपना निशान छोड़ जाता रहा है, जैसे-बाढ़, भूकंप, चेचक, पैरालेसिस आदि। बाढ़ के बाद मकानों की दीवारों पर चिन्ह रह जाते हैं, लोग उंगली के इशारे से बताते हैं, यहां तक पानी चढ़ा था। भूकंप में भी निशान बनते हैं, वे अलग तरह के होते हैं। आप कहेंगे कि इसमें तो तबाही ही तबाही है, तमाम लोग मारे जाते हैं। लेकिन सब  जगह तो नहीं। कहीं-कहीं एकाध की जान लेकर भूकंप बाकी को बख्श देता है। रिजल्ट में भी हर वर्ष अनेक बच्चों को लील जाता है। रिजल्ट में कम नंबर दिखे झट जान दे दी, जान न हुई गाजर-मूली हो गई। कंबख्तो, ऐसे क्यों करते हो, रिजल्ट तो हर साल आता है, तकरीबन एक ही समय पर । पहली बार में न सही तो अगली बार में सही। यह कोई कुंभ थोड़े ही है जो बारह साल में आएगा। जो घोड़े से गिरता है वही तो सवारी करता है। फेल नहीं होंगे तो पास कैसे होगे? मत भूलें, फेल भी कभी-कभी टॉपर हो जाते हैं । चेचक शरीर पर दाग छोड़ जाती है तो पैरालेसिस का असर भी रह जाता है। ऐसे ही निशान रिजल्ट के होते हैं।  पहले हाईस्कूल में पास होना भारी मुश्किल था। 

ऊंची उड़ान

                   डा. सुरेंद्र सिंह यह खुशी से बल्लियों उछलने का अवसर है तो गीत गाने का भी। क्योंकि लखनऊ में अब एक नहीं पूरे दो-दो फिल्म सिटी बनने जा रही हैं। एक आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस वे पर दूसरा उन्नाव के पास ट्रांस गंगा हाईटेक सिटी परियोजना में। जाहिर है कि इससे रोजगार तो बढ़ेगा ही, राजस्व भी बढ़ेगा। सबसे बड़ी बात यह है कि किराया कम खर्च होगा। सस्ते में फिल्म सिटी दिख जाया करेंगी।  जिस किराये के कारण मेरठ और आगरा वाले अधिवक्ता अपने-अपने यहां हाईकोर्ट खंडपीठ के लिए दशकों से आंदोलनरत हैं, वहां फिल्म सिटी की वह ख्वाहिश अपने अखिलेश भैया की कृपा से बिन मांगी मुराद की तरह पूरी होने जा रही है। यूपी वालों के लिए कहां मुंबई और कहां लखनऊ और उन्नाव ? जमीन-आसमान का अंतर है। यह कोई पहली बार नहीं है, जब यूपी में फिल्म सिटी बनने जा रही है। यहां फिल्म सिटी कभी-कभी बनती ही रहती हैं। एक बार आगरा में एडीए की शास्त्रीपुरम परियोजना फेल हुई तो उसमें भी फिल्म सिटी बनाने की मुहिम चली। बड़े-बड़े अधिकारियों ने खूब इंटरव्यू छपवाए। पूरे महानगर और आसपास दिन-रात एक ही चर्चा बच्चे-बच्चे की जुबान पर आ गई। अब यहां भी फिल

अब कब बढ़ेंगे?

    डा. सुरेंद्र सिंह कुछ चीजें ऐसी होती हैं जो अनायास होती हैं, उनके होने से पहले किसी को भनक तक नहीं लगती, वे हो जाती हैं, जैसे भूकंप। कुछ चीजें ऐसी भी होती हैं, जिनका इंतजार रहता है। ये तो होंगी ही, ये ब्रह्म सत्य की तरह अटल हैं , जैसे मानसून, बेमौसम वर्षा, रिजल्ट, जैसे महंगाई, जैसे पेट्रोल, डीजल की कीमतें। जब परीक्षा दी है तो रजिल्ट  आएगा ही आएगा। बरसात के मौसम में मानसून भी आएगा, लेट भले ही हो जाए। ऐसे ही पेट्रोल और डीजल की कीमत बढ़नी हैं तो बढ़ेंगी ही। कोई विधाता की करनी को कैसे रोक सकता है?  पहले पेट्रोल, डीजल की कीमतों में उतार आना शुरू हुआ, तब आए दिन कुछ न कुछ पैसे घट जाते। यह भाग्य वाले का करिश्मा था।   अब चढ़ाव के दिन हैं तो आए दिन कीमतें चढ़ती ही जाती हैं। १५ दिन पहले पेट्रोल के दाम ३.९६ रुपये प्रति लीटर और डीजल के दाम २.३७ रुपये प्रति लीटर बढ़े अब फिर से पेट्रोल ३.३६ रुपये और डीजल २.८३ रुपये प्रति लीटर बढ़ गया है।  अब कब बढ़ोत्तरी होगी? १५ दिन में या इसके कम ज्यादा में। इसका सबको इंतजार जरूर होगा? पहले कमी पैसों में होती थी, अब बढ़ोत्तरी रुपये में हो रही है तो रुपये में ही चलती च

छोरियां हैं, जरा बच के

    डा. सुरेंद्र सिंह एक वो छोरियां हैं जो रुपहले पर्दों पर दिखती हैं, हर दम यारों के इर्द-गिर्द चक्कर चकई की तरह घूमती हैं, क्षण में मुरझा जाती हैं तो क्षण में खिलखिला उठती हैं। एक वे छोरियां हैं जो महानगरों में दिन पर दिन बदलती फैशन को भी मात देती रहती हैं। वे फैशन से नहीं फैशन इनसे चलती हैं। फिल्मों वाले शायद इन्हीं की नकल कर-करके अपना काम चलाते हैं। इन्हीं लिए उनके इर्द-गिर्द मधुमक्खे मड़राते रहते हैं, ‘आ बैल मुझे मार’, कहावत शायद इन्हीं के लिए बनी है।  नाजुक इतनी कि जरा सी धूप इनके चेहरे को जला डाले, बचने को मुंह ढंककर चलती हैं।  जमीन पर जरा पैर टेड़े-मेड़े पड़ जाएं तो मोच आ जाए। इसलिए जमीन पर उचक-उचक और गिन-गिन कर पैर रखती हैं। एक ये गांव की छोरियां हैं, जिनके कारण हैंडपंप हैंचू-हैंचू करते हैं। यदि शहरी छोरे चलाएं तो दो हत्थे मारने में सांस फूल जाए लेकिन इनके सामने आज्ञाकारी बालक की तरह चलते हैं। ये दिन भर में कितना पानी जमीन से खींच लेती हैं, इसका कोई हिसाब किताब इनके पास भी नहीं होगा। अब घर से हैंडपंप तक दो चक्कर पीने के पानी के हो गए। अब तीन चक्कर परिवार के लोगों के नहाने के हो ग

इस्लामिक स्टेट

     डा. सुरेंद्र सिंह छोटे और नासमझ बच्चे जमीन पर रेंगते चीटों को पकड़ कर जब चाहे तब रगड़ देते हैं, उन्हें मार देते हैं। वे अपने मन में समझते हैं कि वह हमारा भगवान है तो हम चीटों के। उसके हाथ में हमारा जीवन है तो हमारे हाथ में इनका जीवन। देखो मैंने इसकी टांग तोड़ दी, इसकी गर्दन तोड़ दी, इसकी जीवन लीला समाप्त कर दी, मैं चाहूं तभी तक इनका जीवन है।  इस्लामिक स्टेट, तहरीक-ए-तालिबान सरीखे आतंकवादी संगठन ऐसे ही भ्रम का शिकार लगते हैं।  १२ मई को जिस इस्लामिक स्टेट ने पाकिस्तान के कराची शहर में बस में सवार ४५ लोगों को गोलियों से भूना वह बहुत ज्यादा पुराना संगठन नहीं है। इसके तार बेशक अलकायदा स भीे जुड़े रहे है,  लेकिन वर्ष २००६ में इराक में इसकी नींव पड़ी।  अबू बकर अल बगदादी इसके नेता बने। जब तक वहां अमेरिकी सेनाएं रहीं, इसे सिर नहीं उठाने दिया गया।  २०१० में इसे ताकत मिली। २०१३ में इसका विस्तार इराक से बढ़कर सीरिया तक हुआ। तब इसका नाम इस्लामिक स्टेट इन इराक एंड लेवंट (एलएसआईएस) हो गया। इसके बाद उसी साल दिसंबर में इसने इराक में शिया आधारित सरकार बनाई। इसका पहला केंद्र इराक का फलूजा शहर बना। इसके बा

पीछे पड़ा भूकंप

           डा. सुरेंद्र सिंह लगता है अब भूकंप पीछे ही पड़ गया है, ‘पिछौरिया डालकर’। पहले सालों, कभी-कभी दशकों बाद आता था लेकिन अब आए दिन। जब देखो तब भूकंप चला आ रहा है, अपनी सारी शक्तियों को लेकर। किसी को होश नहीं लेने देता, जब तक इंसान संभल नहीं पाता तब तक फिर से हमला कर देता है। आखिर यह चाहता क्या है। या तो यह अनाड़ी है या फिर इसकी हम लोगों से तगड़ी दुश्मनी है । अरे भाई जो करना है एक बार में कर ले, वैसे ही इस दुनिया में कौन सा सुख है, जिनके पास साधन हैं, उनके पीछे आयकर, प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई वाले पड़े रहते हैं जिनके पास कुछ नहीं है, वे दो जून की रोटी के लिए रोज मर-मर कर जीते हैं। कम से कम तड़फा-तड़फा कर तो मत मार। भूकंप कब आएगा और कहां आएगा? इसका किसी को पता नहीं। भूवैज्ञानिक और अन्य विज्ञानियों की तो एक सीमा है, वे विचारे ईमानदारी से स्न्वीकार भी कर रहे हैं कि अभी विज्ञान इतना सक्षम नहीं है कि इसकी ऐसी भविष्यवाणी कर सकें जिससे बचाव किया जा सके।  लेकिन ये पंडित, पुजारी और ज्योतिषी जो सब कुछ जानने का दावा करते हैं, भगवान से अपने सीधे तार जुड़े बताते हैं, ये  ही कुछ बताएं। इनके ऊपर जन