प्रवासी हिंंदी साहित्य एवं ब्रिटेन

  
              डा. सुरेंद्र सिंह
प्रवासी हिंदी साहित्य के सबंध में जाने माने साहित्यकार एवं हंस के संपादक रहे राजेंद्र यादव की राय अच्छी नहीं रही। उनके शब्दों में प्रवासी हिंदी साहित्य नास्टालजिया (अतीत की झलक) भर है। उन्होंने जामिया मिलिया के एक कार्यक्रम में कहा- ‘‘अभी जो प्रवासी हिंदी साहित्य रचा जा रहा है, वह कुछ खास नहीं है’’। हंस में प्रकाशित एक लेख में अजित राय ने तो इसे हिंदी का ‘अंधकार युग’ तक कह डाला।  अनेक समीक्षक उनके स्वर में स्वर मिलाते दिखते हैं,  किसी ने कहा है कि इसमें आत्म आश्वस्ति नहीं है।  लेकिन दूसरे तमाम विद्वान उनके इस कथन से सहमत नहीं हैं। प्रवासी हिंदी साहित्यकार सुधा ओम धींगरा के अनुसार यह अतीतजीवी नही भारतजीवी है। ब्रिटेन के प्रवासी हिंदी साहित्यकार तेजेंद्र शर्मा ने प्रवासी साहित्य के इस दौर को हिंदी साहित्य का ‘स्वर्णयुग’ कहा है। तेजेंद्र शर्मा की बात से पूरी तरह सहमत न हुआ जाए तो भी इतना तो कहा ही जा सकता है कि यदि मूल हिंदी साहित्य अपने देश और समाज के लोगों को समझने का आईना है तो प्रवासी हिंदी साहित्य दुनिया को समझने का। सात समंदर पार बैठे हम बहुत से लोग विदेश को औत्सुक्य की नजर से देखते हैं, उसे स्वप्निल दुनिया मानते हैं। यह कहने वालो की कमी नहीं है कि वहां सब कुछ अच्छा ही अच्छा है तो अपने यहां बुरा ही बुरा। प्रवासी साहित्य इसकी हकीकत से न केवल पर्दा उठा रहा है बल्कि अपने मुल्क की गरिमा में चार चांद रहा है। किसी भी भाषा, संस्कृति और समाज का ज्ञान उसके साहित्य से होता है, इस मायने में प्रवासी हिंदी साहित्य मूल हिंदी साहित्य के फलक में अभिवृद्धि कर रहा है। अब जबकि देश की युवा पीढ़ी परदेशी भाषा और साहित्य पर जान छिड़क रही है, अपनी  भाषा को खराब और अनपढ़ों की भाषा मानकर उससे दूरी बना रही है, प्रवासी हिंदी साहित्यकार हिंदी का गौरव बढ़ा रहे हैं। सही मायनों में ये हिंदी को विश्व हिंदी बना रहे हैं। प्रवासी हिंदी साहित्य हिंदी की ताकत है। प्रवासी हिंदी साहित्यकारों के पास अपनी संस्कृति और संवेदना तो है ही, परदेशी संवेदना और संस्कृति भी है। यह सही है कि कुछ प्रवासी हिंदी साहित्यकारों की रचना शैली साधारण यानी अभिधामूलक है लेकिन कुछ ऐसे भी प्रवासी हिंदी साहित्यकार और उनका साहित्य है, जो हिंदी क्षेत्र के जाने-माने साहित्यकारों के साहित्य से किसी मायने में पीछे नहीं है। रचना शैली में समय के साथ परिमार्जन होता है।  इसलिए प्रवासी हिंदी साहित्य को केवल मूल हिंदी साहित्य के मानकों से नहीं परखा जाना चाहिए। दक्षिण भारत के हिंदी साहित्य की तरह ही यह हिंदी साहित्य की यह एक विशाल शाखा है।
प्रवासी हिंदी साहित्य की यह सीमा है कि अधिकांश देशों में इसे पहली पीढ़ी के लोग ही रच रहे हैं। भारत से जाकर विदेशों में प्रवास के दौरान ये लोग अपनी यादों और अनुभवों को सृजनात्मक रूप से संजो रहे हैं। इनके बाद की पीढ़ी का रुझान हिंदी साहित्य की ओर नहीं है। वे अंग्रेजी के साथ जर्मन, फ्रैंच आदि पर फोकस कर रहे हैं। पिछले एक-डेढ़ दशक में भारतीयों का विदेश जाना कई गुना बढ़ा है, प्रवासी हिंदी साहित्य में इजाफा इसी का परिणाम है।               
जिस प्रकार हिंदी कमोवेश विश्व के प्राय: सभी देशों में बोली और समझी जाती है, उसी तरह प्रवासी हिंदी साहित्य तकरीबन सभी देशों में रचा और पढ़ा जाता है। इनमें प्रमुख रूप से मारीशस, फीजी, सूरीनाम, ट्रिनिडाड एंड टुबेगो, गुयाना, संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, जर्मनी, फ्रांस, रूस, चीन, स्विटजरलैंड,  आस्ट्रेलिया आदि हैं। मौजूदा समय  में डेढ़ सौ से ज्यादा प्रवासी हिंदी साहित्यकार हैं।
इनमें से हिंदी साहित्य का सबसे गहरा और व्यापक संबंध यदि किसी देश से है तो वह नि:संदेह ब्रिटेन से है। पिछले एक दशक में इसमें जबर्दस्त इजाफा हुआ है। कोई दो राय नहीं कि अमेरिका में हिंदी भाषियों की संख्या ज्यादा है, ब्रिटेन में प्रवासी हिंदी साहित्यकारों की। इसका ऐतिहासिक और राजनीति कारण है। ब्रिटेन की जानी-मानी प्रवासी कथाकार उषा राजे सक्सैना के अनुसार प्रवासी हिंदी साहित्य को तीन कालखंडों में बांटा जाना चाहिए। एक 1930 से 1950 के बीच का, दूसरा 1950 से 1990 और तीसरा 1990 से अब तक। विनम्र अनुरोध है कि प्रवासी हिंदी साहित्य केवल वही नहीं माना जाना चाहिए जो विदेशी जमीन पर हमारे लोगों (भारतीयों) द्वारा लिखा जा रहा है। उसे भी प्रवासी साहित्य माना जाना चाहिए जो परदेशियों द्वारा भारतीय जमीन पर लिखा गया। इस दृष्टि से प्रवासी हिंदी साहित्य की जड़े और गहरी हो जाती हैं। भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना 1599 में हुई। इस कंपनी ने 1612 में सूरत में एक फैक्ट्री खोली, जिसमें व्यापारी अंग्रेज थे लेकिन पत्र व्यवहार हिंदोस्तानी भाषा में होता था । डा. जॉन गिलक्राइस्ट का ‘हिंदुस्तानी व्याकरण’ 1790 में प्रकाशित हुआ। सन् 1800 में कोलकाता में फोर्ट विलियम कालेज की स्थापना हुई, इससे हिंदी साहित्य को बल मिला। ब्रिटेन मेंं छापेखाने खोले जाने से हिंदी गद्य का विकास हुआ। विदेशी अध्येताओं के लिए हिंदी शिक्षण का श्रीगणेश गिलक्राइस्ट की पुस्तक ‘हिंदी मेनुअल’ के सन 1802 में प्रकाशन से हुआ। इसके बाद 1882-83 में पिंकाट द्वारा रचित ‘हिंदी मैनुअल’ सिविल सर्विसेज में आने वाले प्रत्येक अधिकारी के लिए अनिवार्य थी।
इसके अलावा ‘द शेक्सपिअर की ‘ए ग्रामर आफ हिंदुस्तानी लैंग्वेज’ 1813 में लंदन से प्रकाशित हुई।  ‘द इंग्लिश एंड हिंदुस्तानी डिक्शनरी विद दा ग्रामर प्रिफिक्सड’ सन 1811 में कलकत्ता से प्रकाशित हुई। इसी क्रम में ‘ए डिक्शनरी आफ हिंदुस्तानी एंड इंग्लिश’ 1817 में,  ‘एन इंट्रोडक्शन टू द हिंदुस्तानी लैंग्वेज’ सन 1845 में लंदन से प्रकाशित हुई। बीम्स ने 1872-75 में ‘भारतीय भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन’ प्रस्तुत किया। फोर्ब्स का ‘हिंदुस्तानी व्याकरण’ 1846 में, जॉन प्लाट्स का व्याकरण 1874 में, एच. एच कैलॉग का ‘हिंदी व्याकरण‘ 1875 में लंदन से और ग्रीव्स का ‘आधुनिक हिंदी व्याकरण’ 1896 में प्रकाशित हुआ।
1888 में प्रकाशित जॉर्ज ग्रियर्सन के ‘द मार्डन वर्नाकयूलर  लिटरेचर आव नादर्न हिंदुस्तान’ को हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास माना जाता है। डा. जार्ज ग्रियर्सन का तुलसीदास पर लेख ‘इन्साक्लोपीडिया एंड रिलीजन एंड एथिक्स’ सन 1921 में प्रकाशित हुआ। महाकवि के व्यक्तित्व को उजागर करने वाली यह उनकी उल्लेखनीय साहित्यिक रचना है। जेएन कारपेंटर को ‘थियोलोजी आफ तुलसीदास’ पर डाक्टरेट की उपाधि, लंदन विश्वविद्यालय से मोइनुद्दीन कादरी को ‘हिंदुस्तानी ध्वनि विज्ञान’ पर  लंदन विश्वविद्यालय से डाक्टरेट की उपाधि मिली। तत्समय लक्ष्मीधरन का जायसी की भाषा अवधी पर शोध प्रबंध और ए एच हार्ले की ‘ग्रामीण हिंदुस्तानी’ पुस्तक लंदन से प्रकाशित हुई। इसी श्रंंखला में डा. यमुना काचरू का ‘हिंदी क्रिया का अंतरणात्मक अध्ययन’ 1965 में डा. आरएस मेकग्रेगर का ‘ए स्टडी आफ अर्ली ब्रज भाषा’ शोध प्रबंध लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी के लिए स्वीकृत हुआ। 1883 में प्रकाशित प्रभु ईशु की कथा, यीशु विवरण, 1802 में प्रकाशित ‘न्यू टेस्टामेंट का हिंदी भाषातंर’, 1854 में नार्थ इंडिया टेक्स्ट एंड बुक सोसायटी की ओर से हिस्ट्री आफ बाइबिल का अनुवाद ‘धर्म पुस्तक का इतिहास’ उल्लेखनीय है। सन 1883 में कालांकाकर के राजा द्वारा ‘हिंदुस्थान’ समाचार पत्र का प्रकाशन कराया। विश्व में पहली बार भारत से बाहर समाचार पत्र के प्रकाशन का यह क्रांतिकारी कदम था। प्रवासी हिदी साहित्य की शुरुआत कुछ इसी तरह से हुई।
मौजूदा समय में न केवल कविता बल्कि कहानी, उपन्याय, लेख, रेडियो नाटक आदि सभी विधाओं में प्रवासी साहित्य की रचना की जा रही है। जाने-माने साहित्यकारों के अलावा कई संस्थाएं भी इस पुनीत कार्य में सक्रिय हैं। इनमें लंदन में ‘यूके हिंदी समिति’, ‘कथा (यूके)’, बर्मिंघम में  ‘गीतांजलि’ एवं ‘कृति (यूके)’, मैनचेस्टर में ‘हिंदी भाषा समिति’, योर्क में ‘भारतीय भाषा संगम’, नोर्टिंघम में ‘गीतांजलि’ प्रमुख हैं। ये संस्थाएं न केवल पत्रिकाएं प्रकाशित करती हैं -जिनका प्रसार देश के अलावा विश्व भर में है- बल्कि कथा और काव्य गोष्ठियां, राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय स्तर की बड़ी-बड़ी सेमिनार और सम्मान समारोह आयोजित करती हैं, यही नहीं, हिंदी की परीक्षाएं  भी कराती हैं। ब्रिटिश नागरिकों और प्रवासी भारतीयों की संस्था हिंदी प्रचार परिषद द्वारा त्रैमासिक पत्रिका ‘प्रवासिनी’ का संचालन किया जा रहा है। प्रवासी भारतीय साहित्यकारों की ओर से ‘प्रवासी टुडे’ पत्रिका और ‘प्रवासी दुनिया डाट काम’ आदि  वेब पत्रिकाओं का भी प्रकाशन शुरु हुआ है। ब्रिटेन की संसद में हर साल हिंदी सम्मान समारोह आयोजित किया जाता है।
ब्रिटेन के प्रवासी हिंदी साहित्यकारों में श्री नरेश भारतीय, डा. महेंद्र वर्मा, तितिक्षा शाह, डा. पद्मेश गुप्त, ऊषा राजे सक्सैना, अनिल जोशी, सत्येंद्र श्रीवास्तव, सरोज शर्मा, केके श्रीवास्तव, उषा वर्मा, शैल अग्रवाल, डा. कृष्ण कुमार, डा. वंदना मुकेश, गौतम सचदेव, जकिया जुबेरी, तोशी अमृता, दिव्या माथुर, प्रतिभा डावर, प्राण शर्मा, भारतेंदु विमल, महावीर वर्मा, कादंबरी मेहरा, कीर्ति चौधरी, कैलाश बुधवर, गोविंद शर्मा, मोहन राणा, रमेश पटेल के नाम प्रमुख हैं। इनमें से कई साहित्यकार हिंदी साहित्य की सेवा के लिए भारत में विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं।
सत्येंद्र श्रीवास्तव की एक कविता ‘चेरिंगक्रास’ की कुछ पंक्तियां लंदन की संंस्कृति के बारे में बहुत कुछ व्यक्त कर रही हैं-
‘‘रात आधी
सो रहे कुछ लोग
पुल के पास
दूर कुछ रंगीन चेहरे
मांगते सहवास
गाड़ियों और मनुष्यों की
झेलकर रफ्तार
ऊंघता शहर का
व्यस्ततम चेरिंंगक्रास’’
उषा वर्मा योर्क विश्वविद्यालय में अनेक वर्षों से हिंदी पढ़ाती हैं।  इनके चार कहानी संग्रह,  अनुवाद प्रकाशित हुए हैं।  भारतीय तथा विदेशी पत्र-पत्रिकाओं में ये काफी लिखती रही हैं। इनकी रचनात्मक संवेदनाओं में सामाजिक और सांस्कृतिक सरोकारों के साथ पश्चिमी समाज की विसंगतियों की सहज अभिव्यक्ति है। उषा वर्मा की कहानी ‘सलमा’  एक ऐसी भारतीय नारी की कहनी है कि जो लंदन में विवाहोपरांत पति की उपेक्षा का शिकार होकर असुरक्षा की भावना से आत्महत्या का प्रयास करती है। लेकिन बाद में वह सशक्त होकर पति का परित्याग कर पुनर्विवाह के लिए तैयार हो जाती है। इसी विषय पर उषा राजे सक्सैना ने माता पिता के अलगाव से बेटी में उत्पन्न मानसिक द्वन्द्व का सजीव चित्रण किया है। यद्यपि बेटी को सौतेले पिता से भरपूर प्यार मिलता है लेकिन उसके मन में यह सवाल कचोटता है कि आखिर उसके पिता ने उसे क्यों छोड़ा। इसका जवाब तलाशने के लिए वह उसके घर जाती है लेकिन पिता की मृत्यु हो जाने के कारण सवालों की गुत्थी अनसुलझी रह जाती है।
उषा राजे सक्सैना इग्लेंड को कर्मभूमि बनाकर प्रवासी हिंदी साहित्यकारों में काफी सक्रिय हैं।  इनके साहित्य में भारत, भारत की संस्कृति, सभ्यता और भाषा के हर तरह के अनुभव तथा विचार अभिव्यक्त हैं। अनेक विदेशी पत्र-पत्रिकाओं में ये छपती रही हैं। इनके दो कविता संग्रह, एक कहानी संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। संप्रति यह ब्रिटेन की ‘पुरवाई’ नामक पत्रिका की संपादक हैं।
दिव्या माथुर की कहानियां काफी रोचक है। उनकी भाषा उससे भी रोचक और जीवंत है, छोटे-छोटे वाक्य, गुंथा हुआ वाक्य विन्यास।  लगता है, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसी छोटे से कस्बे में बैठकर वह वार्तालाप कर रही हैं। उनकी ‘ठुल्ला किल्ब’ कहानी का एक वाक्यांश- ‘‘जयरामजी की प्रिया, बौत दिन पीछे मिली, मैं तोसे कहा कहूं, मरी आंख बनवाई थी। मरा कुछ दीखे नहीं था। तुम जानो डागडर ने कह कर दिया, तुम आराम करो’’।
लंदन में कार्यरत जेनेंद्र शर्मा हिंदी धारावाहिक लेखक, कहानीकार और कवि के रूप में विख्यात हैं।  इनकी ‘टेम्स का पानी’, ‘मेरे पासपोर्ट का रंग’ कविताएं काफी चर्चित हैं।  कुछ समय ‘वॉयस आफ अमेरिका’ में कार्यरत रही अलका शर्मा बीबीसी की हिंदी सेवा की अध्यक्ष हैं।  इनकी रचनाओं में भारतीय समाज की संवेदनाओं की अभिव्यंजना है। लंदन में भारतीय उच्चायुक्त रहे लक्ष्मीमल सिंघवी की साहित्यिक सेवाओं को भी नहीं भुलाया जा सकता। इनके कार्यकाल में हिंदी भाषा एवं साहित्यिक सृजन में काफी इजाफा हुआ। वर्ष 2000 में ‘हिंदी ज्ञान प्रतियोगिता’ के माध्यम से भी हिंदी के प्रति काफी सजगता आई। 
(भारतीय हिंदी परिषद के राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर में हुए 42वें राष्ट्रीय अधिवेशन के दौरान अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रस्तुत शोध पत्र ‘प्रवासी हिंदी साहित्य एवं ब्रिटेन’)




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