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Showing posts from April, 2020

गधे के सींग

                                                                -डा. सुरेंद्र सिंह  इस कोरोना  युग में कुछ लोग बहुत सक्रिय हैं। उनकी सक्रियता और बुद्धिमता दोनों देखते और दाद देते बन रही हैं।  जहां लोग हाथ पै हाथ धरे बैठे हैं। कभी छत पर तो कभी नीचे। कभी आंगन में तो कभी कमरे में। कभी टीवी पर तो कभी फोन पर। पर वे ऐसा बहुत कुछ कर -गुजर रहे हैं जो न भूतो न भविष्यति। ऐसे मौके  हमेशा और हर किसी के भाग्य में नहीं।  हर किसी के वश में भी नहीं जो  दिन दहाड़े किसी की  भी आंखों में धूल झोंक सके।  अखबारों में बड़े-बड़े अक्षरों में छपा है कि आन लाइन परीक्षाएं कराएंगे।  ऐप्प तैयार  है। पहले आवासीय संस्थानों को लेंगे। इसके बाद संबद्ध महाविद्यालयों को। आन लाइन ही फीस ले लेंगे और आन लाइन ही रिजल्ट  देंगे,  तुरंत दान महा कल्याण । है न कमाल?  लौकडाउन चलता है, चलता रहे, उनकी बला से। उनका  काम न रुकेगा। आगे की दुनिया इसी तरह से चलेगी। प्रदेश में ऐसा करने वाले वे सर्वप्रथम होंगे। खूब बधाइयां आ रही हैं, मान गए गुरू, आपने तो कमाल कर दिया। एक ही बार में छक्का नहीं अट्ठा मार दिया। अब करे कोई मुकाबला। यह है छठी इ

क्या अब भी श्रीराम मंदिर की जरूरत?

                                                                  डा. सुरेंद्र सिंह क्या अब भी कोई मंदिर बनाए जाने की जरूरत है, खासतौर से धार्मिक नगरी  अयोध्या में भगवान श्रीरामजी का भव्य मंदिर? यह एक स्वाभाविक सा सवाल है जो हर उस पढ़े-लिखे इंसान के जेहन में कौंध सकता है, जो कोरोना काल के इस भयावह दौर से गुजर रहा है और विज्ञान में आस्था रखता है। अयोध्या में भगवान श्रीराम के मंदिर की बात यहां इसलिए भी प्रासंगिक है क्योंकि जिस आस्था के साथ यह लड़ाई पिछले साढ़े तीन सौ साल से लड़ी गई, इसके लिए सैकड़ों निर्र्दोषों की जानें गई, संपत्ति का भारी नुकसान हुआ है, देश की राजनीति में भी काफी उतार- चढाव आए।  भारी जद्दोजहद के बाद अब इसके लिए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने नौ नवंबर 2019 को आदेश जारी कर रास्ता साफ कर दिया है। अदालत  के आदेश पर सरकार ने श्री राम जन्मभूमि तीथ क्षेत्र ट्रस्ट का गठन कर आगे की कार्रवाई शुरू कर दी है।  मंदिर के लिए 2.77 एकड़ वह जमीन मिल गई है जिसे इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पहले तीनों पक्षों के बीच विभाजित करने के आदेश दिए थे। इसके अलावा पीवी नरसिंह राव सरकार द्वारा अधिग्रहीत 67.703 एक

बढ़ता चुनाव खर्च

                  डा. सुरेंद्र सिंह चुनाव खर्च देश का सबके बड़ा मुद्दा है, यही बहुत सी समस्याओं की जड़ है। चाहे योग्य पदों के लिए अयोग्य लोगों की •ार्ती हो, चाहे जीवन रक्षक दवाओं के नाम पर घटिया दवाओं की खरीद, चाहे कोई घटिया निर्माण कार्य, चाहे अमीर-गरीब के बीच बढ़ती हुई खाई हो, इस के कारण है।  बढता चुनाव खर्च ही •ा्रष्टाचार की जननी है। लोग •ा्रष्टाचार के खात्मे के लिए लोकपाल की तो मांग करते हैं लेकिन चुनाव खर्च के मुद्दे पर मौन हो जाते हैं। लोकपाल इतनी बड़ी  समस्या का क्या उखाड़ लेगा? कुछ बड़े नेताओं की गर्दन यह •ाले ही नाप दे लेकिन समस्या को जड़ से नहीं समाप्त कर सकता। जब तक चुनावों में ज्यादा खर्च की यह व्यवस्था है, •ा्रष्टाचार बना रहेगा। चुनाव का सरकारी खर्च तो सरकार करती है। इससे ही वह पस्त होती रही है।  इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों के इस्तेमाल से इसमें कुछ कमी आई है। लेकिन प्रत्याशियों द्वारा किए जाने वाला प्रचार खर्च बढ़ता ही जा रहा है। पुराने जन प्रतिनिधि बताते हैं कि शुरूआत में कुछ सौ रुपये में विधायक और हजारों में खर्च करके संसद का चुनाव जीत जाते थे। तब इतना •ा्रष्टाचार नहीं  था। ल

हाथ धोते रहना

                                                                                              -डा. सुरेंद्र सिंह करन सिंह साबुन से बीस सेकंड मल-मल कर हाथ धोकर बाथरूम से निकला ही था, यकायक  फोन की घंटी  बजी, देखा  चालीस साल  पुराने दोस्त का फोन। मन मयूर खुशी से झूम उठा, चलो अपने दोस्त अभी भूले नहीं हंै, कुछ तो अभी हैं चाहने वाले। उसके साथ की अनेक स्मृतियां दिमाग में घूम गई। फिर एक क्षण में ही मन आशंका से भर गया- क्या बात हो गई? क्यों फोन  किया। क्या काम हो सकता है? आजकल बिना काम किसे  बात करने की फुर्सत?  मन हुआ फोन नहीं उठाए। फिर कुछ सोच कर रिसीव कर लिया। उधर से आवाज आई -‘‘अरे भाई कैसे हो, कोरोना है, बचकर रहना, एक-एक घंटे बाद हाथ धोते रहना। मास्क लगाना नहीं भूलना,  घर में ही रहना, हमारे और आप जैसों के लिए ही सबसे ज्यादा खतरा है’’। फिर कोरोना से बचने के और तरीके बताने लगा। यह चर्चा करीब बीस मिनट चली। तब जाकर फोन बंद हुआ। सोचा, क्या एक बार फिर से हाथ धो आए?  धोए भी तो कितना धोए। वह हाथ धो-धोकर पहले से ही परेशान है। दिन में कई बार हाथ धोता है।  खाना खाए  या नहीं खाए लेकिन हाथ जरूर ध

अपना-अपना भाग्य

                                                                       डा. सुरेंद्र सिंह कोटा में आईआईटी सरीखी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे छात्र-छात्राएं भाग्यशाली  हैं, इस विकट लौकडाउन में भी उनके लिए छप्पर फाड़कर रास्ता निकाल लिया गया।  सरकार ने वीआईपी बसें भेज दीं। वे अपने घरों पर मां-बाप की छत्र-छाया में पहुंच गए हैं। कुछ जो रह गए हैं, वे उतने भाग्यशाली नहीं हैं। ऐसा भाग्य हर किसी को नसीब नही होता। विरलों का ही होता है। जो ऊपर से लिखा के लाए हैं, जिन्होंने पिछले जन्म में शायद कुछ  पुण्य कर्म किए होंगे। कानून सबके लिए एक समान है. यह कहने, टीवी चैनलों पर बोलने और अखबारों में लिखने की बात है। भाग्य उससे भी ज्यादा बलवान होता है। कानून अपनी जगह है, भाग्य अपनी जगह। दोनों का क्या मुकाबला? परमात्मा दिल्ली, बांद्रा, सूरत, हैदराबाद वालों जैसा भाग्य किसी को नहीं दे। पीड़ा झेलें और मार भी खाएं। ठीक है, उनकी संख्या भारी है। दिल्ली में अकेले ऐसे लोगों की संख्या दस लाख के करीब होगी।  मुंबई की ज्यादा आबादी  है, दो करोड़ से ज्यादा, लिहाजा यहां ऐसे लोगों की संख्या 15 लाख से भी ज्यादा होगी।

कितनी बदली-बदली सी होगी दुनिया

                                                                     डा. सुरेंद्र सिंह कोरोना तो जाएगा, जो आया है, उसे जाना ही होगा, उसे कोई नहीं रोक पाएगा लेकिन जाते-जाते अपनी निशानी जरूर छोड़ जाएगा। आदमी के स्टेटस का सिंबल बदल जाएगा। जो इंसान अभी तक अपने रूप- रंग, धन-दौलत, मान-मर्यादा पर इतरा रहा था, उसकी हेकड़ी निकाल जाएगा।  जैसे अब दोपहिया चलाने वाला किसी को टक्कर मारके चला जाए, उसे चेहरे से नहीं पहचान सकते क्योंकि वह हेलमेट लगाया हुआ होता है, वैसे ही अब राह चलते लोगों की पहचान मुश्किल होगी,  खास भाई क्यों नहीं हो, चाहे पत्नी हो, हर एक के चेहरे पर  शानदार मास्क लगा होगा।  मास्क के भीतर से कौन मुस्करा रहा है और कौन गुस्सा कर रहा है, इन भावों का क्या होगा या भाव ही मर जाएंगे। मास्क का  बाजार इतना बढ़ जाएगा कि गली-गली और मोहल्ले-मोहल्ले  तक में मास्क उपलब्ध होंगे । तरह-तरह के फेशनेबिल मास्क आ जाएंगे। कुछ पारदर्शी, कुछ रंग- बिरंगे, कुछ केवल मुंह ढंकने वाले, कुछ पूरे चेहरे और  बालों तक को कवर करने वाले। मेडीकेटेड, आईएसआई मार्का, इंपोर्टेड मास्क भी मिलेंगे। संपन्न लोग सोने, चांदी के भी

पंडितानी-2

                                                                                     डा. सुरेंद्र सिंह यह दुनिया  एक प्रकार का जंगल ही है। इसमें तरह -तरह के लो ग हैं; कोई नाटा, कोई मोटा, कोई लंबा, कोई भोला, कोई चालाक, कोई लूगा, कोई लंगड़ा, कोई अंधा, कोई कोढ़ी, कोई गिरगिट, कोई चोर-उचक्का, कोई ़डकैत, कोई साधु, कोई सफेदपोश,  कोई तस्कर, कोई अपहर्ता, कोई काला, कोई गोरा, कोई बीमार, कोई औसत स्वास्थ्य का तो कोई पहलवान, कोई स्वार्थी, कोई काम से काम रखने वाला, कोई परोपकारी, कोई धोखेबाज, कोई मंदबुद्धि, कोई विद्वान, कोई कुरूप तो कोई रूपवान, कोई फटेहाल, कोई मालामाल। किसी की सूरत किसी से नही मिलती  किसी की नाक लंबी तो किसी की ठोड़ी, किसी की आंखें बड़ी तो किसी की धंसी हुई। करोड़ों प्रकार हैं, इन्हीं में से एक पंडितानी है। कुछ लोगों  की  हम दोबारा सूरत नहीं देखना चाहते लेकिन पंडितानी  को  आप भुलाए नही  भूल सकते। वह अधेड़ से कुछ ही ज्यादा  की हो चली है, वृद्ध तो हरगिज नहीं कह सकते।  बाल सफेद हो चले हंै। पैरों से चलने में कु छ तकलीफ भी होती है। पर उसकी   किसी भी परिस्थिति  में खुश रहने की  आदत और बात-बात