अपना-अपना भाग्य


                           
                                           डा. सुरेंद्र सिंह
कोटा में आईआईटी सरीखी प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे छात्र-छात्राएं भाग्यशाली  हैं, इस विकट लौकडाउन में भी उनके लिए छप्पर फाड़कर रास्ता निकाल लिया गया।  सरकार ने वीआईपी बसें भेज दीं। वे अपने घरों पर मां-बाप की छत्र-छाया में पहुंच गए हैं। कुछ जो रह गए हैं, वे उतने भाग्यशाली नहीं हैं। ऐसा भाग्य हर किसी को नसीब नही होता। विरलों का ही होता है। जो ऊपर से लिखा के लाए हैं, जिन्होंने पिछले जन्म में शायद कुछ  पुण्य कर्म किए होंगे।
कानून सबके लिए एक समान है. यह कहने, टीवी चैनलों पर बोलने और अखबारों में लिखने की बात है। भाग्य उससे भी ज्यादा बलवान होता है। कानून अपनी जगह है, भाग्य अपनी जगह। दोनों का क्या मुकाबला?
परमात्मा दिल्ली, बांद्रा, सूरत, हैदराबाद वालों जैसा भाग्य किसी को नहीं दे। पीड़ा झेलें और मार भी खाएं। ठीक है, उनकी संख्या भारी है। दिल्ली में अकेले ऐसे लोगों की संख्या दस लाख के करीब होगी।  मुंबई की ज्यादा आबादी  है, दो करोड़ से ज्यादा, लिहाजा यहां ऐसे लोगों की संख्या 15 लाख से भी ज्यादा होगी।  अकेले सुगर मिलों में ही संख्या डेढ़ लाख के करीब है, जबकि इस तरह के यहां अनेकों उद्योग हैं। हैदराबाद, सूरत और देश के अन्य महानगरों में इसे अभागों कीं संख्या करोड़ों में होगी, जो संकट की इस घड़ी में अपने वतन जाने के लिए बेताव हैं।
संख्या का भी भाग्य और समय होता है। कभी-कभी  यह संख्या बड़ी मन भावन लगती है। और कभी मनहूस, कानों को भी चुभती है, देखने में तो जुल्म जैसी महसूस होती है।  चुनाव का समय हो, कार्यकर्ता नेताजी के कान में कहे कि फलां जगह के हजारों वोट पक्के। नेताजी पीठ थपथपाते हैं- ‘‘चलो  एक अच्छा सा पद तुम्हारा भी पक्का’’। तुरंत आश्वासन मिल जाता है। कोई पार्टी अध्यक्ष को  आश्वस्त करे कि इस वर्ग के करोड़ों वोट हमारे हैं तो समझो एमएलए या एमएलसी की टिकट पक्की। एक पार्टी के लोग चुनाव के वक्त नारे लगाते हैं,-‘‘ जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी’’। वोटों की खूब फसल काटते हैंं. इसके बल पर वे कई बार सत्ता का सुख भी ले चुके हैं।अब सब चुप हंै क्योंकि अब इसका समय नहीं है।
अब  देश को कोरोना से बचाना है। देश बड़ा है या मजदूर?  कोरोना से बचाव जरूरी है या मजदूर का हित? मजदूर तो आते-जाते रहते हैं, सौ जाएंगे, पांच सौ आ जाएंगे। क्या कमी है, मजदूरों की।  तर्क दिए जा रहे हैं, चेनलों पर धाकड़ नेताओं के बीच बहस चल रही है, तर्क देने वालों की कोई कमी नहीं है। इन्हें बसों या रेल से भेजा गया तो सोशल डिस्टेंसिग का क्या होगा?  उनके कारण कोरोना  दूसरे लोगों में फैला गया तो कौन जिम्मेदार होगा? कोरोना को तीसरे चक्र में जाने से रोकना है तो इन्हें जहां की तहां रोकना होगा।  चाहे कुछ भी करो, कफ्र्यू लगा दो, जेल में डालो, गोली मारो, लेकिन रोको।
आखिर कोरोना के आंकड़ों को बढ़ने से रोकना है, देश की प्रतिष्ठा का सवाल है।  प्रतिष्ठा भी तो कोई चीज होती है अभी तो हमारा देश विश्व की सबसे बड़ी शक्ति अमेरिका, चीन, रूस,, ब्रिटेन, स्पेन, इटली, ईरान, जर्मनी सबसे आगे है, क्या बेचते हैं ये  हमारे आगे? क्या खाकर हमारा मुकाबला करेंगें ये मुल्क ? अब हमारे को विश्व शक्ति बनने से कोई नहीं रोक सकता। क्योंकि कोरोना के सबसे कम केस हमारे यहां ही हैं। केवल हमारे नेताजी  ही देश को संभालने की  क्षमता रखते हैं। वे ही विश्व के लीडर हैं।
 बांद्रा में ये लोग एक-एक कमरे में 20-20, 25-25 तक रहते हैं। उस कमरे में ये लोग खाना भी नहीं बना सकते। दूसरे महानगरों में भी समूह में मजदूर  रोके जा रहे हैं। खाने के वितरण केंद्रों का तो भगवान ही मालिक है, किलोमीटरों लंबी लाइन लगती हैं, चाहे जब वे एक-दूसरे से छू जाते हैं। सब्जी मंडियों में भी सोशल डिस्टेंसिंग के कोई मायने नहीं रह गए हैं ऐसे और भी अनेक जगह सोशल डिस्टें्सिंग का पालन नहीं हो रहा है तो कौन इसे देख रहा है। यहां मरें तो मर जाएं कौन इसकी जांच करने बैठा है, वैसे ही तमाम लोग आए दिन मरते रहते है, कीड़े-मकोडों की तरह।  कौन किसकी परवाह करता है। कुछ भूख से भी मर जाएं तो मर जाएं बला से, कोई फर्क नहीं पड़ता। भूख पर  किसकी नजर है? सब तो कोरोना, कोरोना कर रहे हैं। कोरोना से नहीं मरने चाहिए चाहे अन्य किसी कारण से मर जाएं। अर्थव्यवस्था धरातल पर जा रही है तो जाए, करोड़ों लोग बेरोजगार हो रहे हैं तो हो जाएं लेकिन कोरोना के आंकड़े फिट रहने चाहिए।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार अपने देश में जरूरत का 2.6 गुना खाद्यान्न पैदा होता है, फिर भी करीब बीस करोड़ लोग रोज भूखे रहते हैं। कभी यह खबर सुर्खियों में नहीं रहती तो अब कौन पूछ रहा है? खबरों का भी तो अपना भाग्य है। चार पैकेट  बिस्किट के बांटने वाले सुर्खियां पा जाते हैं, सैकड़ों किलोमीटर पैदल चल कर रास्ते में भूख-प्यास से दम तोड़ने वाले गुमनामी  के अंधेरे में डूबे रहते हैं। ऐसे मेंं जब खुद के वेतन के लाले पड़े हों और  चारों तरफ कफ्र्यू जैसे हालत हैं, तब किस टीवी और अखबार वालों को यह देखने की फुरसत होगी?
कुछ भाई लोगों की की ऐसे में भी उड़कर लग रही है। एक सच्ची घटना है। एक आपराधिक घटना में मुंशीजी ने दोनों पक्षों को पकड़ा, जब जेलों से सजायाफ्ता अपराधियों को छोड़ा जा रहा है, दोनों को खूब धमकाया, हवालात में बंद करने और जेल भेजने की धमकी दी। । कसूरवार से बीस हजार रुपये एेंंठे।  दस हजार रुपये के आटे के पैकेट वितरित करा खूब वाहवाही लूटी। बाकी अपनी जेब में रख मुंछों पर तांव फेर लिया।  यह भी भाग्य की बात है, यदि यही कोरोना विहीन दिन होते तो सबको हिस्सेदारी देनी पड़ती।

Comments

Popular posts from this blog

गौतम बुद्ध ने आखिर क्यों लिया संन्यास?

राजा महाराजाओं में कौन कितना अय्याश

खामियां नई शिक्षा नीति की