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Showing posts from March, 2015

नकल की अकल

इंडिया में आजकल परीक्षाओं का दौर है। कुछ बोर्डो की परीक्षाएं खत्म हो चुकी हैं तो विश्वविद्यालयों आदि की कुछ परीक्षाएं चल रही हैं। परीक्षाएं हों और नकल नहीं हो, यह संभव ही नहीं है। दोनों अन्योन्याश्रित हैं। इन्हें विच्छेदित करना किसी के वश की बात नहीं। किसी जमाने में नकल करना पाप था। कोई सोच नहीं सकता था कि परीक्षा में नकल। पर अब नकल शाश्वत है,  आत्मा की तरह अजर-अमर है। न इसे शस्त्रों से छेदा जा सकता है और नहीं जलाया जा सकता। उत्तर प्रदेश में एक बार कल्याण सिंह ने कोशिश की थी, अब विचारे कहीं दिखते हैं, राज्यपाल बनकर मन को संतोष भले ही दे लें लेकिन सत्ता में फिर कभी नहीं आ सके। अब राज करेगा वो नकल कराएगा जो। हाल की बात है, औचक निरीक्षण को जिला विद्यालय निरीक्षक एक केंद्र पर पहुंचे तो दंग रह गए थे, कक्षों में जितने बच्चे परीक्षा दे रह थे, उससे ज्यादा उसमें नकल कराने वाले भरे पड़े थे किसी लोकप्रिय नेता की जनसभा में भीड़ की तरह। इसके अलावा बहुत से लोग जंगलों पर लटके थे, कुछ छतों पर , पिछवाड़े मैदान में अलग से। जैसे किसी बड़े छत्ते पर मधुमक्खियां चिपकी और भिनभिना रही होती हैं, वैसे ही नकल थी। ए

जमाना जूतों का

     एक दिन सुबह-सुबह बच्चे ने कहा-‘‘जूते पर लेख लिखना है’’। मैं कहना ही चाहता था कि कोई और अच्छा सा विषय नहीं मिला? इस बीच श्रीमतीजी उबल पड़ीं- ‘‘कितनी देर से बच्चा चिल्ला रहा है, छोटा सा काम भी नहीं कर सकते?’’  मोल भाव से लेकर पालिस, पहनाने और उतारने तक का सारा काम वह करती हैं, लेकिन लेख की तैयारी कराने को मुझ से कहती है। जरा सी बात पर जोर से चिल्लाना और फालतू के काम मुझ पर डाल देना उसकी पुरानी आदत है। पर दिन की शुरुआत में कौन झगड़ा मोल ले, यदि इस वक्त  मूड खराब हुआ तो पूरा दिन बुरा गुजरेगा, हो सकता है, खाना भी नसीब नहीं हो। सो आज्ञाकारी... की तरह काम में जुट गया- जूतों के बारे में कहा जाता है कि इनका इतिहास सात-आठ हजार साल पुराना है। विश्व के सबसे पुराने जूते (करीब 3500 ईसापूर्व) उत्तरी अमेरिका के आर्मेनिया प्रांत की एक गुफा में पाए गए। अपने यहां भगवान रामचंद्रजी जूते नहीं खड़ाऊं पहनते थे।  हमारे यहां के खड़ाऊं ज्यादा प्राचीन हैं या अमेरिका के जूते? सोचते-सोचते गहरी चिंतन मुद्रा में चला गया-    जूता  बहुत महत्वपूर्ण वस्तु है। इसका वर्णन किया जाए तो पोथी पर पोथी भर जाएंगी, लेकिन गुरू गु

बधाई बुखार

            अभी पिछले दिनोंं मोबाइल पर एक मित्र का बासोड़े का बधाई संदेश मिला। बासोड़ा हिंदुओं में त्योहार सा त्योहार नहीं है। होली के बाद  चैत्र मास में पड़ने वाले इस त्योहार के लिए एक दिन पहले खाना बनाकर उसे दूसरे दिन खाया जाता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से यह हानिकारक है। लेकिन त्योहार तो त्योहार है। इससे पीछा भी नहीं छुड़ा सकते।  एक तरह से इसे कुत्तों का त्योहार कहा जाए तो अत्युक्ति न होगी। वैसे तो गली के कुत्तों को रोजाना, लात, लाठी, ईंट-पत्थर आदि का सामना करना पड़ता है। साल में यही एक दिन ऐसा है जबकि कुत्तों को खोज-खोज कर ससम्मान खाना खिलाया जाता है।  कुत्ते पेट भर जाने पर दूर जाकर अंगड़ाई लेते हैं। लोग उन्हें बुलाते रह जाते हैं, वे खाने की तरफ मुंह करके नहीं देखते।  जो महिला कुत्तों को खाना नहीं खिला पाती, उसे लगता है कि त्योहार अधूरा सा रह गया। इसलिए अगली बार कोशिश करती है कि जल्दी से जल्दी कुत्ता पकड़कर उसे खाना खिला पुण्य लाभ लिया जाए, बाकी काम बाद में होते रहेंगे। बात हो रही थी बधाई की, कुत्तों और बासोड़े की बात फिजूल में कर बैठा। आजकर छोटे-बड़े हर त्योहार पर मित्रजनों के बधाई संदेश मि

वो तो मैंने झूठ बोला था

‘‘सांच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप, जाके हृदय सांच है ताके हृदय आप’’। कुछ लोग भक्तिकाल की इन पंक्तियों को आज भी गुनगुनाते रहते हैं और गाहे बगाहे इनके हवाले से उपदेश देने में संकोच नहीं करते, पर ऐसे लोगों की संख्या दिन पर दिन घट रही है। दुनिया को यदि दो भागों में बांटा जाए तो एक बड़ा हिस्सा झूठ बोलने वालों का होगा दूसरा छोटा सांचाधारियों का। पहले हिस्से में बड़े-बड़े मठाधीश आएंगे, दूसरे में पिद्दी से लोग, जिनकी कहीं कोई औकात नहीं होगी।  जमाना बदल गया है साहब। अब झूठ के बिना गुजारा नहींं कर सकते, एक दिन भी काटना मुश्किल हो जाएगा। आप ही बताइए जब अंग्रेजों के जमाने के कानून अप्रासंगिक हो सकते हैं भक्तिकाल तो और भी ज्यादा पुराना है। नेताजी अक्सर झूठ बोलते हैं।  पकड़े और विरोध किए जाने पर दूसरा झूठ बोल देते हैं, ऐसा उन्होंने नहीं कहा। प्रिंट मीडिया में यह चल जाता है, क्योंकि उनके पास कोई सुबूत नहीं होता सिवाय रिपोर्टर की डायरी के। जब से इलेक्ट्रानिक मीडिया आया है, यह कहना मुश्किल हो गया है, उसके पास सुबूत जो है। लेकिन झूठ के भी तमाम रूप हैं। नेताजी अब कहने लगे हैं, उनके कहने का यह आशय नहीं था,

राम नवमी

                  श्री राम साक्षात् परमब्रह्म परमात्मा हैं या महापुरुष? इसे लेकर विवाद हो सकता है। लोगों के अपने-अपने तर्क हैं। ज्ञान- विज्ञान के नित-नए उजागर हो रहे तथ्यों ने परमात्मा तत्व के अस्तित्व पर भी सवाल खड़े किए हैं।  लेकिन उनकी चाह सबको है, सबको चाहिए राम। हिंदुओं में चाहे  वे आधुनिक पश्चिमी सभ्यता से सराबोर हों,  सात समंदर पार रहते हों अथवा दूरदराज के किसी गांव में, चाहे किसी बड़े से बड़े पर आसीन हों अथवा कोई निर्धन भिखारी। सबके अंतर्मन में राम की लालसा है। राम को कोई माने या नहीं माने लेकिन राम के गुणों को मानने से कोई इंकार नहीं कर सकता। चाहे कोई अपने जीवन में राम के गुणों को अमल में नहीं ला सके लेकिन कामना यही रहती है कि राम जैसे गुण हों। हरेक को राम जैसे भाई, पुत्र, पिता और पति की अभिलाषा है। यही नहीं अधिकारी, उद्यमी, व्यवसायी, राजनीतिज्ञ भी ऐसे ही चाहिए।  कल्पना करिए राम जैसे व्यक्ति राजनीति में हों। तब क्या भ्रष्टाचार रहेगा? तब कोई व्यक्ति दु:खी नहीं रहेगा। विषमता समाप्त होगी, किसी को आत्महत्या करने की जरूरत नहीं होगी। सभी को यथायोग्य अवसर मिलेंगे। यदि सभी लोग राम जैस

कल क्या होगा?

             अंग्रेजी में कहावत है ‘टुमारो नैवर कम्स’। हिंदी में इसी की तर्ज पर कहा जाता है-‘कल किसने देखा है’। यह बात आज भी उतनी ही सच है, जितनी हजारों, लाखों साल पहले और कल भी रहेगी। कल क्या होगा, इसकी कल्पना सभी करते रहे हैं। फिर भी कल अनिश्चिंत है, यह कभी आभासी है तो कभी अनाभासी। रामायण के रचयिता ने पुष्पक विमान की कल्पना की, महाभारत के रचयिता ने आग्नेयास्त्रों की जो परवान चढ़ीं। बॉलीवुड की कई फिल्मों में ऐसी कल्पनाएं हैं, जिनके अभी तक साकार होने की दूर-दूर तक उम्मीद नहीं दिखती। फिर भी कल क्या-क्या हो जाएगा, इसकी उम्मीद से डोर हमेशा बंधी रहती है।  हजारों सालों पहले जब ताड़ पत्रों पर लिखा जाता तब क्या कोई यह उम्मीद कर सकता था कि इसके स्थान पर कागज और मशीनें आ जाएंगी। क्या कोई यह सोच सकता था कि संचार का माध्यम आज जैसा आसान हो जाएगा जिसमें सात समुंदर आर-पार बैठे व्यक्ति आपस में ऐसे बतिया सकेंगे जैसे वे आमने-सामने हों। एक क्लिक से तस्वीरें कहीं से कहीं भेजी जा सकेंगी। जब फिल्में शुरू हुई, तब बहुतों को सिनेमाघरों में बैठने पर डर लगता था कि कार उन्हें कुचल न दे। आज जब हम अपने को बहुत विकस

गांव की एक रात

           गांव की एक रात                                     डा. सुरेंद्र सिंह ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है’, सुमित्रानंदन पंत की ये पंक्तियां ग्राम्य जीवन के बारे में रोमांंचित, आकर्षित करती हैं। वैसे भी अपना गांव  से पुराना नाता है, उसी धुल मिट्टी में पला-पढ़ा हूं। गांव की वे तारे भरी रातें भुलाए नहीं भूलतीं। आसमान के वे प्रतिक्षण बदलते दृश्य। -ये है अपनी जगह अटल ध्रुव तारा, ये रहे सप्तऋषि, ये है तीन पैना, बृहस्पति, शुक्र जाने कितने ही तारागणों के नाम चाचा समझाते। कभी-कभी कोई तारा टूटता, तेज प्रकाश फैलाता हुए तेजी से दौड़ता फिर गुम हो जाता। चाचा बताते यह किसी का चोला टूटा है। हर इंसान मरने के बाद इसी तरह तारागणों में शामिल हो जाता है। फिर जब जन्म लेता है तो तारा टूट कर उसे नया चोला मिल जाता है। जीवन का तत्समय प्रचलित अर्थ वह बहुत सरलता बताते। फिर आकाशगंगा का वर्णन करते- ‘‘देर रात्रि को ऐरावत हाथी इससे होकर इंद्र की सभा में जाता है। सभा के बाद सभी को पसों भर-भर के बताशों का प्रसाद मिलता है। एक बार इंद्र की सभा में जाते हुए हाथी की पूंछ से एक परिवार के लोग लटक लिए। पहले परिवार के मुखिय

जमीन तो लेनी ही होगी

आजकल जमीन अधिग्रहण कानून का मुद्दा सुर्खियों में हैं। अंग्रेजों के जमाने के बने कानून के अलावा आजाद भारत की सरकारों द्वारा 1894, 2013 में बनाए गए कानूनों, भाजपा सरकार के अध्यादेश और अब प्रस्तावित विधेयक की बखियां उधेड़ी जा रही हैं। इनके माध्यम से एक दूसरे के दल को घसीटा जा रहा है। अपनी कमीज साफ साबित करने के लिए दूसरे कमीन को मैला किया जा रहा है। राजनीति में किसानों का हमदर्द बनने का सबसे आसान तरीका भूमि अधिग्रहण कानून का विरोध है। क्या कभी सोचा है कि अब तक कुल भूमि अधिग्रहण कुल जमीन का दस प्रतिशत से भी कम है। बाकी किसानों की क्या हालत है, वे किन स्थितियों में आजीविका जी रहे हैं। उनकी स्थिति सुधारने के लिए कोई प्रयास नजर नहीं आता। लोकसभा चुनाव से पहले सभी राजनीतिक दलों ने बड़े-बड़े वायदे किए थे। भाजपा ने किसानों से उनकी उपज का डेढ़ गुना मुनाफा देने का वायदा किया था, किसी को इसके वारे में याद है? सभी भूमि अधिग्रहण कानून पर पिले पड़े हैं। किसानों की हालत लगातार खराब हो रही है। पहले ८० प्रतिशत लोग खेती पर निर्भर थे, अब उनकी संख्या घटकर ६५ प्रतिशत रह गई है। यही हालत रही तो अगले २० सालों में

कमाल का बाल

बाल भी क्या नातुच्छ चीज है। कहीं से भी तोड़ दो, मरोड़ दो, फेंक दो। उफ् नहीं करता। कितना बेशरम है? कटने की देर नहीं होती, झट दोबारा से हाजिर। मेरा पड़ोसी अपने बालों को कटवा-कटवा कर परेशान है। रोज जाना पड़ता है केश कर्तकजी के पास। जेब भी ढीली होती है। कुछ लोग हैं जो दिन में दो बार सेव करते हैं। भगवान जाने क्या हालत रहती होगी उनकी, कैसे मेंटेन करते हैं। हरवक्त तरोताजा चमकते रहते हैं। बालों को वह अपने दुश्मन की तरह मुंह उठाने का कभी अवसर नहीं देते। कुछ हिम्मत वाले हैं जो उन्हेंं सालों साल शान से धारण किए रहते हैं, जैसे- शिवजी के गले में विष। तुलसी या संसार में भांति-भांति के लोग हैं। कई साल पहले फीरोजाबाद के एक सज्जन अपनी लंबी मूंछों के कारण दूर-दूूर तक चर्चा में थे। मूछें भी क्या थीं, काली स्याह, मुंह से लेकर तक पैर लंबीं। वह उन्हें अंटा लगाकर रखते। तेल लगाते, सफाई करते। जितना वक्त आम आदमी अपने पूरे शरीर की देखभाल पर देता, वह उससे भी कहीं ज्यादा अपनी मूंछंों पर देते। जब चर्चा मद्धिम पड़ती वह अखबारों के दफ्तरों में आ जाते या जब किसी पत्रकार के पास कोई खबर नहीं होती तो झट से मूंछों वाले बाबा को

पांच पेड़

कहानी जब से मेरे पड़ोसी ने प्रधानमंत्री मोदी का पानीपत में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना के शुभारंभ के दौरान का भाषण पढ़ा है, वह बल्लियों उछल रहा है। वह कभी इधर उछलता है तो कभी उधर। उसके हाथ में अखबार में छपी खबर की कटिंग भी है, जिसे वह हाथ में इस तरह लहराता है, जैसे कारू का खजाना हो। कोई उसे पढ़कर देखे, तब तक झट उसे जेब में रख लेता है।  इतना खुश उसे कभी नहीं देखा गया, न बेटे के हाईस्कूल में फर्स्ट क्लास पास होने पर और नहीं, बिटिया का अच्छा रिश्ता तय होने पर। लेकिन वह बताता किसी को नहीं कि वह इतना खुश क्यों है? बस इतना ही कहता है, आ हा हाहा.. अब तो मजे आ गए । देखना, कुछ ही दिनों में क्या से क्या करता हंू। वह चाहता है कि इसका फायदा कोई और नहींं उठा ले। वह बात को जितना छुपाने की कोशिश करता है, लोगों में उतनी ही उसके प्रति उत्कंठा जाग रही है। लोगों ने मुझे कहा- ‘‘पता करो मास्टर जी, क्या बात है? आप इसके बहुत से कामों में आते रहते हो। यह आपको भी नहीं बताएगा तो अपने बाप को भी नहीं बताएगा।’’ मैंने कहा- ‘‘किसी के काम आना एक बात है और किसी से काम निकालना अलग।’’ लेकिन लोग मानने को तैयार ही नहीं थ