गांव की एक रात

           गांव की एक रात
                                    डा. सुरेंद्र सिंह
‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है’, सुमित्रानंदन पंत की ये पंक्तियां ग्राम्य जीवन के बारे में रोमांंचित, आकर्षित करती हैं। वैसे भी अपना गांव  से पुराना नाता है, उसी धुल मिट्टी में पला-पढ़ा हूं। गांव की वे तारे भरी रातें भुलाए नहीं भूलतीं। आसमान के वे प्रतिक्षण बदलते दृश्य। -ये है अपनी जगह अटल ध्रुव तारा, ये रहे सप्तऋषि, ये है तीन पैना, बृहस्पति, शुक्र जाने कितने ही तारागणों के नाम चाचा समझाते। कभी-कभी कोई तारा टूटता, तेज प्रकाश फैलाता हुए तेजी से दौड़ता फिर गुम हो जाता। चाचा बताते यह किसी का चोला टूटा है। हर इंसान मरने के बाद इसी तरह तारागणों में शामिल हो जाता है। फिर जब जन्म लेता है तो तारा टूट कर उसे नया चोला मिल जाता है। जीवन का तत्समय प्रचलित अर्थ वह बहुत सरलता बताते। फिर आकाशगंगा का वर्णन करते- ‘‘देर रात्रि को ऐरावत हाथी इससे होकर इंद्र की सभा में जाता है। सभा के बाद सभी को पसों भर-भर के बताशों का प्रसाद मिलता है। एक बार इंद्र की सभा में जाते हुए हाथी की पूंछ से एक परिवार के लोग लटक लिए। पहले परिवार के मुखिया ने पूछ पकड़ी फिर एक दूसरे का पैर पकड़कर लटके चले गए। रास्ते में एक बच्चे ने पूछा- दादा कितने बतासे मिलेंगे, उन्होंने पसों भर बताने के लिए दोनों हाथ खोले, सभी धड़ाम से नीचे गिर पड़े’’। मैं चाचा से कहता,  हम भी चलेंगे  और बीच रास्ते में प्रसाद के बारे में नहीं पूछेंगे।  लेकिन वह ऐरावत हाथी हमें कभी नहीं दिखा। नक्षत्र ज्ञान कराने के बाद कहानियों का नंबर आता। क्या कहानियां थीं, एक-एक कहानी एक रात में पूरी नहीं होती थीं। मैदान में तमाम लोग चारपाइयां बिछाकर लोग सुनते-सुनते सो जाते फिर अगली रात फिर से जम जाते।
ये यादें सघन हुई तो दशकों बाद मेरा भी मन गांव जाने को मचल उठा।  पिताजी तो कब से बुला रहे थे, लेकिन शहर की भागमभाग में फुर्सत ही कहां थी। अब रिटायर हंंू, समय ही समय है। मोटर साइकिल उठाई, मोबाइल फोन और चार्जर लिया, चल दिया। टूटी-फूटी सड़कों, उबड़-खाबड़ मार्गों से होता हुए गोधूलि के वक्त गांव पहुंचा। पहले जंगल में चरने के बाद गायें गांव को वापस लौटती तो चारों और धूल ही धूल उड़ने लगती। गोधूलि अब नाम की रह गयी है। गांव में एक भी न तो गाय है और न बैल। देखकर पिताजी बहुत खुश थे उन्होंने तो उम्मीद ही छोड़ दी थी मेरे आने की।
सबसे पहले मुलाकात हुए बचपन के एक दोस्त से। गुल्ली-डंडा, चोरा-चोरी, कबड्डी खेलने के लेकर जाने कितनी ही यादें उसके साथ जुड़ी हैं जो भुलाए नहीं भूलतीं। हम दोनों एक दूसरे से लिपट गए । लेकिन एक ही झटके में मैं उससे अलग हो गया। उसके मुंह से उठती शराब की बदबू से मेरा जी घबड़ाने लगा।
-‘‘ ८० प्रतिशत लोग पीते हैं। पुराना जमाना गया जबकि इससे नफरत थी, भले लोग उनके पास नहीं बैठते थे’’।
-‘‘क्या इसे किसी तरह रोका जा सकता है’’?
-‘‘किस-किस को रोकोगे बाबूजी। आपसे भी पैसे मांगने लगेंगे और मजबूरन आपको देने पड़ेंगे। खाने को चाहे घर में अनाज नहीं हो  लेकिन पीने के लिए चाहिेए।’’
मुझे अच्छी तरह याद है, एक बार मैंने दोस्त से साथ पास के कस्बे में चाय पी ली थी। दूसरे दिन पिताजी के पास खबर आ गई। इस पर मुझसे जो कहासुनी हुई, साले बदमाश, कुत्ते,  इस उमर में चाय पीएगा, दूध अच्छा नहीं लगता, छुप-छुपकर चाय पीता है। पिटाई नहीं हुई, सब करम हो गए। तभी मैंने कसम खा ली थी कभी चाय नहीं पियूंगा।  उसका अभी तक पालन कर रहा हूं। गांव में कोई शराब पीएगा इसकी तो कल्पना नहीं की जा सकती थी।
मेरा मन था गांव में कुछ और दोस्तों से मिलूं लेकिन उससे मिलने के बाह उत्साह ठंडा पड़ गया। कुछ-कुछ अंधेरा हो चला था।  गली में घोर गंदगी थी, उससे उठती बदबू सांस लेने में दिक्कत पैदा कर रही थी। घर के पास कीचड़ में पैर सन गया। पैर धोया पर कीचड़ की बदबू दिमाग में फिर भी भरी रही। खाना खाया। खाना वही था, जिसे शहर से छोड़कर गया था। उसमें न तो मट्ठा था, न दही और लाल मिर्च, हींग, जीरे की चटनी। कुएं के ताजी पानी की जगह हैंडपंप का गंधयुक्त पानी था।
सोने से पहले खुले में टायलेट करने जा रहा धा कि रास्ते में खड़े खूंठे से पैर टकरा गया। दायें पैर के अंगूेठे का नाखून टूट गया। खून बहने लगा। उसकी असहनीय पीड़ा।  इस बीच चाचा आ गए। मैं कुछ कहता, इससे पहले अपनी ही पीढ़ा बताने लगे-‘‘देख, छोटा बेटा मुंह से नहीं बोलता है, रोटी देना दूर। तुम्हारी चाची के मरने पर उसके कारज में भी नहींं बैठा। बड़ा बेटा थोड़ा लिहाज करता है लेकिन उसकी बहू गाली देती है। इस उम्र में कहां जाऊं। अपने आप मरा तो नहीं जाता लेकिन भगवान से प्रार्थना करता हंू, अब उठा ले। उनकी आंखों में आंसू आ गए। गांव वालों के बारे में बताने लगे फलां का बेटा पड़ोसी की बहू को भगा ले गया। फलां की हत्या उसके ही बेटे ने कर दी। फलां की बीमारी के चलते खेत बिक गया। फलां के परिवार में जमीन को लेकर फौजदारी हो गई। एक तरफ से आदमी मर गया। दूसरी तरफ से लोग जेल में बंद हैं। जमीन ज्यों की त्यों पड़ी है। रास्ते को  लेकर गांव के दो पक्ष हो गए हैं, जमकर मुकदमेबाजी चल रही है।
गांव की अनंत कथा सुनते-सुनते मैं थक और ऊब गया। चाचा चल दिए।
सोने के लिए पिताजी ने टिन शैड के नीचे चारपाई बिछा दी। पास में एक पंखा लगा दिया ताकि कोई दिक्कत नहीं हो। लेकिन दिक्कत तो दिक्कत ही थी। बदबू, पैर में दर्द, ऊपर से मच्छरों का हमला। ऐसा लगता था जैसे मच्छरों की बरसात हो रही है। ओढ़ने के लिए रजाई थी। रजाई के अंदर भी मच्छर थे। पंखा मच्छरों का कुछ नहीं बिगाड़ पा रहा था। पिताजी ने नीम के पत्तों को जलाकर धुआं किया, दम तो घुटा लेकिन मच्छर भाग गए। थोड़ी देर बाद जब धुआं शांत हुआ मच्छर फिर से आ गए। पिताजी ने रात में तीन बार उठकर नीम के पत्तों का धुआं किया। थोड़ी देर राहत मिलती फिर मच्छरों की बरसात। मच्छरों से यह लड़ाई किसी चक्रब्यूह से कम नहीं थी जिसमें घेरकर व्यक्ति को मारा जाता है। सब कोशिशों के बावजूद रात भर नहीं सो सका। पूरे शरीर को मच्छरों ने काट लिया। हाथ-पैरों के अलावा पेट और चेहरा पर भी चेचक जैसे दाग बन गए। पिताजी से पूछा-‘‘ ऐसा रोज होता है'', उन्होंने कहा- ‘‘हां, यहां, ऐसे ही सब लोग रहते हैं’’।
-‘‘पहले तो एक भी मच्छर नहीं था’’?
‘‘लेकिन अब है, पहले जैसा अब कुछ नहीं रहा’’।
दिन निकलने से पहले ही चारपाई से उठा, मोटर साइकिल उठाई और चल दिया। मां और पिताजी चाय और खाने के लिए कहते ही रह गए। मैंने किसी की एक नहीं सुनी।

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