जमीन तो लेनी ही होगी


आजकल जमीन अधिग्रहण कानून का मुद्दा सुर्खियों में हैं। अंग्रेजों के जमाने के बने कानून के अलावा आजाद भारत की सरकारों द्वारा 1894, 2013 में बनाए गए कानूनों, भाजपा सरकार के अध्यादेश और अब प्रस्तावित विधेयक की बखियां उधेड़ी जा रही हैं। इनके माध्यम से एक दूसरे के दल को घसीटा जा रहा है। अपनी कमीज साफ साबित करने के लिए दूसरे कमीन को मैला किया जा रहा है। राजनीति में किसानों का हमदर्द बनने का सबसे आसान तरीका भूमि अधिग्रहण कानून का विरोध है। क्या कभी सोचा है कि अब तक कुल भूमि अधिग्रहण कुल जमीन का दस प्रतिशत से भी कम है। बाकी किसानों की क्या हालत है, वे किन स्थितियों में आजीविका जी रहे हैं। उनकी स्थिति सुधारने के लिए कोई प्रयास नजर नहीं आता। लोकसभा चुनाव से पहले सभी राजनीतिक दलों ने बड़े-बड़े वायदे किए थे। भाजपा ने किसानों से उनकी उपज का डेढ़ गुना मुनाफा देने का वायदा किया था, किसी को इसके वारे में याद है? सभी भूमि अधिग्रहण कानून पर पिले पड़े हैं।
किसानों की हालत लगातार खराब हो रही है। पहले ८० प्रतिशत लोग खेती पर निर्भर थे, अब उनकी संख्या घटकर ६५ प्रतिशत रह गई है। यही हालत रही तो अगले २० सालों में यह संख्या ४०-४५ प्रतिशत पर आ सकती है। इसका बड़ा कारण कोई जमीन अधिग्रहण नहीं है। जितनी जमीन अधिग्रहीत की जाती है, उससे ज्यादा जमीन तो किसानों से प्राइवेट बिल्डर सीधे खरीद लेते हंैं। वे भी औने-पौने दामों पर। शहरों के आसपास देख लीजिए कितनी तेजी से उनका विस्तार हो रहा है? महानगरों से १०-१५ किलोमीटर दूर तक चारों तरफ की जमीन खरीदी जा चुकी है।  खेती पर निर्भरता कम होने का सबसे बड़ा कारण बढ़ती आबादी और जरूरतें हैं। पहले किसी पर  ४० बीघा जमीन थी, उसके चार बेटे हो गए, उनके पास १०-१० बीघा जमीन रह गई। जिनके पास दस बीघा जमीन थी, उनके पास ढाई-ढाई  बीघा जमीन रह गई।  किसी ने बीमारी में जमीन बेच दी तो किसी ने शादी के लिए तो किसी ने अन्य कारण से। जितने लोग जमीन अधिग्रहण से भूमिहीन हुए हैं, उससे ज्यादा प्राइवेट बिल्डरों द्वारा खरीदी गई जमीन से हुए हैं। तात्पर्य कि किसानों के हाथों से जमीन खिसक रही है। अनेक ऐसे लोग हैं जिन्होंने सीलिंग कानून की आंखों में धूल झोंककर हजारों  बीघा जमीन एकत्रित कर ली है। वह भी औने-पौने दामों पर। अनेक के भुगतान भी सालों साल लटके रहते हैं। उनके बारे में सबको पता है अधिकारियों को और राजनेताओं को भी लेकिन कोई नहीं बोलता। जब किसी सार्वजनिक कार्य के लिए जमीन अधिग्रहीत होती है, तब तमाम अडंगे डाले जाते हैं, विरोध की राजनीति की जाती है।
गांवों के लिए एक बड़ी मुश्किल शराब ने पैदा कर दी है। पश्चिम उत्तर प्रदेश के तमाम गांव ऐसे हैं जिनमें ६०-७० प्रतिशत तक लोग शराब पीते हैं। इसके बाद झगड़े करते हैं। मद्य निषेध विभाग शहर की किसी कोठरी में छुपा बैठा रहता है। कुल मिलाकर किसानों का हालत बद से बदतर हो रही है। किसान अंदर से टूट रहे हैं। इसी सब का नतीजा है कि हाल ही में ओलावृष्टि और वर्षा से फसलों में हुए नुकसान के बाद उत्तर प्रदेश के आगरा मंडल में एक दर्जन से ज्यादा किसानों की मौत हुई। किसी को हार्ट अटैक हुआ तो किसी ने जान दे दी।  यह पहला मामला है जबकि यहां के किसानों में हताशा जागी। अभी तक किसानों की दुर्गति के लिए ओडिशा, आंध्र प्रदेश,  महाराष्ट्र का उल्लेख किया जाता था, अब उसकी आंच फैलकर यहां तक आ गई है। प्रदेश सरकार ने फसलों में नुकसान की भरपाई के लिए जो राशि देने की घोषणा की है, वह किसानों के लिए ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर है।
जहां तक जमीन अधिग्रहण की बात है, वह तो करनी ही पड़ेगी। इसे रोकना किसी के हित में नहीं है। जिस तरह आबादी बढ़ रही है, उनके लिए मकान, दुकान, स्कूल, कालेज, रोड आदि अवस्थापना सुविधाओं की जरूरत है। रोजगार के लिए भी संसाधन हों।  उनके लिए जमीन चाहिए ही। अब सैकड़ों साल पुराने जमाने की व्यवस्था में नहीं लौट सकते जबकि ग्रामीण पूरी तरह से खेती पर निर्भर थे। यातायात के लिए बैलगाड़ियां थीं, कपड़ों के लिए कपास, खाने के लिए अन्न और रहने के लिए कच्चे-पक्के मकान।
गौरतलब है जब सारे कानूनों को आसान बना रहे हैं तो जमीन अधिग्रहण कानून को क्यों जटिल बनाना चाहते हैं? जिससे आसानी से जमीन नहीं ली जा सके।  इसे भी आसान करिए,  जिससे उस पर जल्दी से काम शुरू हो सके।  मौजूदा समय में बहुद से ऐसे प्रोजेक्ट हैं, जिनमें जमीन अधिग्रहण में देरी के कारण प्रोजेक्टों की न केवल लागत आसमान पर पर पहुंच गई बल्कि अनेक प्रोजेक्ट खटाई में पड़ गए। तमाम समय और धन की बर्बादी हुई। इसलिए समझदारी इसमें है कि जमीन अधिग्रहण को आसान करिए पर उसके साथ किसानों के लिए सुविधाएं बढ़ा दी जाएं। जैसे- जिस किसान की जमीन ली जाए, उसे उसका बाजार दर से कई गुना मुआवजा दे दिया जाए। उनके परिवारों में नौकरियां दी जाएं।    और भी सुविधाएं दी जाएं जिससे उन्हें यह महसूस नहीं हो कि वे भविष्य को लेकर असुरिक्षत हैं, वे हंसी-खुशी जमीन दे सकें।  यह कहना बेईमानी है कि इसी तरह जमीन सिकुड़ती गई तो खाने के लाले पड़ जाएंगे। याद होगा कि अब से कोई तीस-चालीस साल पहले कहा जाता था कि  इसी तरह आबादी बढ़ती गई तो खाने के लिए अनाज नहीं होगा लेकिन आजादी बढ़ी और खूब बढ़ी। अब क्या अन्न की कोई कमी है? इतना अन्न पैदा होता है कि उसे रखने के लिए जगह नहीं है। यह भी तर्क उचित नहीं है कि  बहु फसली जमीन का अधिग्रहण नहीं किया जाए, ऊसर और अनुपयोगी जमीन ली जाए। ऊसर और अनुपयोगी जमीन यदि उधर-उधर पड़ी है, तो उस पर सड़क कैसे बन सकती है। जहांं सुविधा की जरूरत है, वहीं पर जमीन चाहिए।
किसानों के हित की बात करिए, उनके लिए रोजगार के साधन पैदा करिए, कल कारखाने गांवों में ले जाइए। अच्छे शिक्षा संस्थान गांवों में खोलिए।  किसानों को बुराइयों से बचाए। किसान निष्कपट, सरल और परिश्रमी हैं, उनके साथ राजनीतिक छल मत करिए। इसी में देश का भविष्य है।

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