जमाना जूतों का

     एक दिन सुबह-सुबह बच्चे ने कहा-‘‘जूते पर लेख लिखना है’’। मैं कहना ही चाहता था कि कोई और अच्छा सा विषय नहीं मिला? इस बीच श्रीमतीजी उबल पड़ीं- ‘‘कितनी देर से बच्चा चिल्ला रहा है, छोटा सा काम भी नहीं कर सकते?’’  मोल भाव से लेकर पालिस, पहनाने और उतारने तक का सारा काम वह करती हैं, लेकिन लेख की तैयारी कराने को मुझ से कहती है। जरा सी बात पर जोर से चिल्लाना और फालतू के काम मुझ पर डाल देना उसकी पुरानी आदत है। पर दिन की शुरुआत में कौन झगड़ा मोल ले, यदि इस वक्त  मूड खराब हुआ तो पूरा दिन बुरा गुजरेगा, हो सकता है, खाना भी नसीब नहीं हो। सो आज्ञाकारी... की तरह काम में जुट गया-
जूतों के बारे में कहा जाता है कि इनका इतिहास सात-आठ हजार साल पुराना है। विश्व के सबसे पुराने जूते (करीब 3500 ईसापूर्व) उत्तरी अमेरिका के आर्मेनिया प्रांत की एक गुफा में पाए गए। अपने यहां भगवान रामचंद्रजी जूते नहीं खड़ाऊं पहनते थे।  हमारे यहां के खड़ाऊं ज्यादा प्राचीन हैं या अमेरिका के जूते? सोचते-सोचते गहरी चिंतन मुद्रा में चला गया-  
 जूता  बहुत महत्वपूर्ण वस्तु है। इसका वर्णन किया जाए तो पोथी पर पोथी भर जाएंगी, लेकिन गुरू गुन से भी ज्यादा इसकी अपरंपार महिमा का बखान पूरा नहीं हो सकता। जूता केवल कांटे-खोबरों से पैरों की सुरक्षा नहीं करते, करते होंगे कभी। यह पुराने जमाने की बात हो गई। अब इनका व्यक्तित्व बहुआयामी हो चला है। पार्टियों में जाइए तो अब लोग आगंतुकों  की पोशाक, रूप-रंग की ओर कम, जूतों की ओर  ज्यादा निहारते हंै। ‘‘देखो कहने को बड़ा आदमी बनता है, लेकिन कायदे के जूते भी नहीं पहन सकता ?’’
‘‘वह देखो क्या आलीशान जूते हैं?’’
 लोगों की हैसियत का आकलन जूतोें से होने लगा है। खाना खा रहे होंगे तो भी चर्चा जूतों की ही करते हैं। राजनीतिक मुद्दे जूतों के सामने एक मिनट भी नहीं ठहर पाते।
‘‘देखो अभी पंद्रह हजार रुपये के जूते खरीदे हैं।’’ दूसरा कहता है कि -‘‘बस, यह देखो बीस हजार रुपये के जूते हैं।’’
‘‘इग्लैंंड में एक करोड़ पांच लाख रुपये के जूते प्रदर्शनी में रखे गए। ठोस सोने के हैं, उसके ऊपर 2200 चमकते हीरे भी जड़े हैं।’’
 कपड़े चाहे सात-आठ सौ के हों, कोई नहीं पूछता, सब एक जैसे लगते हैं, लेकिन जूते कीमती होने ही चाहिए।
बात ही ऐसी है, यह जूतों का जमाना है। जो काम धन बल से, सिफारिश बल से, नेतागीरी बल  से नहीं हो सकता, वह जूतों से हो सकता है। ज्यादा पुराना वाक्या नहीं है, एक मेडिकल कालेज के छात्र अपने रिजल्ट में विसंगति को लेकर आंदोलन कर रहे थे, उन्होंने खूब धरना दिया, प्रदर्शन किया, ज्ञापन दिए, लेकिन बात नहीं बनी। उन्होंने एक दबंग मंत्री की शरण ली। मंत्रीजी ने रजिस्ट्रार को बुलाया। उसे पहले समझाया-‘‘ देख इन बच्चों का रिजल्ट सही करेगा या नहीं?’’ वह कायदा कानून बताने लगा। मंत्रीजी ऐसा जवाब कहां सुनने वाले थे, उनका धैर्य जवाब दे गया। उन्होंने आव देखा न ताव, बोले-‘‘देख, साले.. काम करेगा या नहीं, नहीं तो इतने जूते मारूंगा कि गिन नहीं पाएगा।’’ रजिस्ट्रÑार को काटो तो खून नहीं। मंत्रीजी ने अपने जूतों की ओर हाथ बढ़ाया, रजिस्ट्रार ने हाथ जोड़े,- ‘‘सर, कल काम हो जाएगा’’। अखबारों में सुर्खियों में खबर छपी ‘मंत्री ने छात्रों की समस्या को सुलझवाया’। अमेरिका के राष्ट्रपति और अपने एक कैबिनेट मंत्री पर जूता फेंक कर अमर होने की घटनाएं सर्वविदित हैं। बोलो- ‘जूता महाराज की जय’।
जूता कोई आज से नहीं पुराने जमाने से ही महत्वपूर्ण रहा है।  कल्पना करिए, जबकि  पहले-पहल इसे ईजाद किया होगा, जिसने भी पहना उसे देखने के लिए भीड़ लग गई होगी। अब ‘फेरारी की सवारी’ देखने के लिए इतने लोग इकट्ठे नहीं होते, जितने पहले जूते देखने के लिए आए होंगे। आगरा के देवकीनंदन सोन जूता प्रदर्शनियों में आदिम जूते की अनुमानित प्रतिकृति प्रस्तुत करते रहते हैं तो सबसे ज्यादा लोगों की निगाह अब भी उसी पर टिकती है। फिर आदिम जूता तो जूता था। पहले यह राजा महाराजाओं की शान रहा। इसके बाद जूता सभ्यता ने गति पकड़ी तो बड़े लोगों, फिर  आम आदमियों की शोभा बढ़ाने लगा। तीन-चार दशक पहले तक गांव-गांव में एकाध आदमी पर जूते होते थे। दूसरे लोग रिश्तेदारी खासतौर से ससुराल जाते तो जूते मांग कर ले जाते। रास्ते में जूते हाथ में लेकर चलते ताकि आने-जाने वालों को दिख जाएं, उसके पास जूते हैं। ससुराल के पास आने पर उन्हें अपने पैरों की शोभा बनाते। सायं को मुलाकात में श्रीमतीजी पूछती-क्योंजी, जूते  आपने खरीद लिए हैं या चाचाजी के घर से मांग कर लाए हो, पति महोदय मुस्कराते- ‘‘चुप रह, अभी तो अपने ही समझो।’’
महाकवि घाघ के समय में शायद जूते कम थे, वरना वह इस महान कृति पर अपनी कलम चलाने से कैसे चूकते। काका हाथरसी तक आते-आते स्थिति सुधर गई। उन्होंने इनकी महिमा का वर्णन खूब किया है। जूते कैसे भी हों, उनका अलग-अलग महत्व है। व्यक्ति-व्यक्ति के जूते में फर्क है। किसी के फटे जूते भी आदरणीय हो जाते हैं तो किसी के अच्छे-खासे जूते भद्द पिटवा देते हैं। आजादी से पहले 1935 के आसपास की बात है, प्रगतिशील लेखक संघ का सम्मेलन था। मुंशी प्रेमचंद को अध्यक्षता करनी था। वह सुबह ही दिल्ली में रेलवे स्टेशन पर उतर गए। आयोजक लोग उन्हें लेने के लिए मोटर गाड़ी से आए लेकिन उनके फटे जूते देखकर वापस लौट गए। उन्होंने माना फटे जूतों वाला व्यक्ति कथा सम्राट प्रेमचंद कैसे हो सकता है? काफी देर इंतजार के बाद प्रेमचंद तांगे में बैठकर आयोजन स्थल पर पहुंच गए। वह लोगों के साथ बातचीत में ठहाके लगा रहे थे, लोग उनके एक जूते से बाहर निकल रहे पैर के अंगूठे को निहार विस्मित हो रहे थे।
गांधीजी ने गरीबों से सहानुभूति में जूता पहनना छोड़ दिया था। वरना उनके चश्मे आदि की तरह जूतों के लिए भी जूतम पैजार हो रही होती। लोक नायक जय प्रकाश नारायण जूते पहनते थे। उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में बने स्मृतिगार में उनके जूते दर्शनों के लिए रखे हुए हैं।
जूतों को लेकर लोगों के अपने-अपने शौक हैं। कई साल पहले तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता के घर से सैकड़ों जूते चप्पल मिले तो लोगों को बहुत आश्चर्य हुआ, लेकिन अमेरिका के कैलीफोर्निया शहर की महिला डर्लेन फ्लिन ने उन्हें बहुत पीछे छोड़ दिया है। वर्ष 2006 में उन्होंने 7765 जूतों का संग्रह करके विश्व रिकार्ड बनाया था। इसके बाद 2012 में अपना ही रिकार्ड तोड़ते हुए 16400 जूते एकत्रित कर लिए हैं। दुनिया भर में यह महिला ‘शू लेडी’ के नाम से विख्यात है।  उसके घर में जूतों के आकार में फर्नीचर, कपड़े, कप और फोन हैं।
दुनिया भर में आगरा की पहचान ताजमहल के बाद जूते से हैं। देश में सर्वाधिक जूते आगरा से निर्यात होते हैं। जूते भांति-भांति के होते हैं। सुबह के अलग, दोपहर के अलग, रात्रि के अलग। खेलने के लिए अलग, डांस के लिए अलग, डायबिटीज वालों के लिए अलग।  तब तक श्रीमतीजी ने झकझोर दिया-‘‘सो रहे हो या बच्चे को पढ़ा रहे हो?’’

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