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Showing posts from 2021

भारत में ऐसे आए मुसलमान

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                      पाकिस्तान के सिंध प्रांत और उसके आसपास  बहुत बड़े क्षेत्र में कभी जाटों का राज था। जाटों के रायवंश का राज।  उनकी तलवारों की धार और नुकीले तीरों की मार विदेशी आक्रांताओं पर बहुत भारी पड़ती थी। उन्हें झेलने की किसी में क्षमता नहीं थी। लेकिन अपने ही लोगों के छलकपट की राजनीति ने इसे कहीं का नहीं छोड़ा, वरना पाकिस्तान तो  क्या आज अफगानिस्तान भी अपने ही पास रहता। कोई तालिबान सिर नहीं उठा पाता। इतिहास के इन पन्नों पर जमा  भारी गर्द हटाने की अब किसी को फुर्सत नहीं है। कुछ लोग मुगलों के शासन को ही मुसलिम राज कहकर लोगों को उलझाते रहते हैं। वास्तव में मुसलिम आक्रांता यहां इससे बहुत पहले से आ गए थे। बात है, सातवी सदी की जबकि बगदाद के खलीफाओं ने यहां बार-बार हमले किए। खलीफा पर खलीफा बदलते गए लेकिन हमले बंद नहीं हुए।   एक बार  ईरान के बादशाह नीमरोज ने  सिंध के राजा राय महरसन द्वितीय पर हमला किया। उन्होंने बहुत ही बहादुरी से युद्ध लड़ा।  गले में तीर लगने से वह वीरगति को प्राप्त हुए फिर भी नीमरोज को क्षेत्र पर कब्जा नहीं करने दिया। सेना ने ईरानियों को मार भगाया।  इसके बाद राय साहसी द

वीरों के वीर राजा कुलचंद हगा

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                                                         भगवान श्रीकृष्ण की लीला स्थली व्रज में एक से बढ़कर एक महायोद्धा हुए। इनमें से कुछ को तो लोग आज भी याद करते हैं लेकिन करीब एक हजार साल पहले यहां के जिस एक राजा ने महमूद गजनवी से जमकर चक्कर ली। अपने जीते जी मथुरा पर आंच नहीं आने दी, मंदिर की छोड़ों  मंदिरों की परछाई तक नहीं छूने दी, लेकिन चिंता की बात यह है कि मथुरा तो मथुरा उनके वंशज भी उन्हें भूल रहे हैं। ये थे महावन के राजा वीरों के वीर चौधरी कुलचंद हगा। व्रज की मिट्टी की यह खासियत है कि इसने अन्याय को कभी बर्दाश्त नहीं किया। हजारों साल पहले भगवान श्रीकृष्ण ने नौ साल की उम्र में अपने अत्याचारी मामा कंस को पछाड़ा। श्रीकृष्ण का लालन-पालन जिस पुरानी गोकुल  मौजूदा महावन में हुआ।  उसी में जन्मे और पले-बढ़े राजा  कुलचंद ने मथुरा की रक्षा के लिए सीना तानकर टक्कर ली।  यदि मल्लयुद्ध होता तो वह महमूद गजनवी को चीरकर रख देते। वह छल फरेब से भरी फौज की लड़ाई थी। अपनी से कई गुना ज्यादा फौज से टक्कर लेना भी कोई कम बहादुरी नहीं थी। इसके लिए बड़ा कलेजा चाहिए। महमूद गजनवी ने  1017 में भारत में नौंवां आक

मंगली के नाम पर चलता है गोरखधंधा

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                                              क्या आपका अपना  बेटा, बेटी या अन्य कोई खास मंगली है तो  कृपया परेशान नहीं हों। यह सब बकवास है। मेरे पिताजी मंगली  हैं, ज्योतिषी द्वारा बताए गए मंगली। और मां गैर मंगली।  उन्होंने कभी किसी तंत्र-मंत्र का सहारा नहीं लिया। भगवान की कृपा से वह उम्र के 80 वसंत पार कर चुके हैं। अभी तक तो उन पर मंगल का कोई प्रभाव नहीं आया। उनके जैसे तमाम लोग हैं जो इसे नहीं मानते।  पर अब कंप्यूटर के इस युग में मंगली के चक्कर में बहुत से पढ़े-लिखे लोग  इतने परेशान हैंं कि उन्हें न दिन में चैन है और न रात में। वह अपने मंगली  पुत्र और पुत्रियों के लिए योग्य मंगली वर खोज नहीं पा रहे हैं। कई तो इस चक्कर में ओवरएज हो चुके हैं। बहुत से लोगों के लिए मंगली होना गले का ऐसा फंदा बन गया है, जिसे चाह कर भी फेंक नहीं पा रहे। मंगली की धारणाएं उनके तन-मन को दीमक की तरह खाए जा रही हैं।  गणितीय ज्योतिष के दुनिया के जाने-माने विद्वान अमेरिका की  विस्र्कोंंसन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डा. वीरेंद्रनाथ शर्मा का कहना है कि भविष्य बताने वाली ज्योतिष का कोई मतलब नहीं है। क्योंकि इसका कोई वैज्

कभी सैंडविच बेचते थे दिलीप कुमार

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                                                 हिंदी सिनेमा के शलाका पुरुष दिलीप कुमार कभी पूना में  सैंडविच बेचा करते थे।  कोई कल्पना कर सकता था ऐसा इंसान  कभी रुपहले पर्दे के शिखर पर होगा।  लेकिन जीतोड़ मेहनत, बुलंद हौसले और भाग्य ने उनके लिए इस असंभव को संभव बना दिया।  वह उन गिने चुने लोगों में थे जो घोर राजनीतिक दुश्मनी होने के बावजूद हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों में समान रूप से सम्मान पाते रहे। उन्हें पाकिस्तान ने अपना सर्वोच्च सम्मान ‘निशान- ए- इम्तियाज’ से नवाजा तो भारत ने भी  ‘पदम विभूषण’ से सम्मानित किया। टै्रजिडी किंग के नाम से मशहूर रहे दिलीप कुमार ने कभी अपने ऊपर विवाद की काली छाया तक नहीं पड़ने दी।  11 दिसंबर 1922 को मौजूदा पाकिस्तान के पेशाबर में जन्मे दिलीप कुमार अपने पिता के साथ आठ साल की उम्र में ही मुंबई आ गए थे। परिवार की स्थिति अच्छी नहीं थी। पिता फल बेचकर खर्चा चलाते थे।  मुफलिसी का दौर था। ऐसे में घरों में कलह होना स्वाभाविक है। ऐसे ही वातावरण में पिता से नाराज होकर वह एक बार पूना चले गए। वहां उन्होंने मिलिट्री केंटीन में सैंडविच की स्टाल लगाई। पैसा इकट्ठा होने प

कोई नवरत्न नहीं थे सम्राट अकबर के

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                                                       मुगल सम्राट अकबर की जब-जब चर्चा चलती है तो वह उनके नवरत्नों के बिना पूरी नहीं होती। इतिहास की बहुत सी किताबों में उसके नवरत्नों का जिक्र है। स्कूल-कालेजों की परीक्षा तक में यह सवाल पूछा जाता है। अकबर के नवरत्न कौन-कौन थे?  विकीपीडिया से लेकर अन्य सामाजिक साइटों पर इसकी जानकारी  भरी पड़ी है। यही नहीं फतेहपुरसीकरी जिसे अकबर ने अपनी राजधानी बनाया, वहां के गुलिंस्ता पार्क में नवरत्नों की मूर्तियां भी लगा दी गई हैं। यह गैरजिम्मेदारी की हद है क्योंकि अकबर के यहां नवरत्न जैसी कोई व्यवस्था  ही नहीं थी। जिन इतिहासकारों ने नवरत्नों का उल्लेख किया है, उन्होंने इसका कोई आधार या प्रमाण नहीं दिया। विकीपीडिया तक पर भी इसका संदर्भ नहीं हैं। कहने का मतलब है कि अकबर के नवरत्नों का सारा मामला हवा हवाई है। नवरत्नों के नामों में भी भेद है। कहीं कुछ है तो कहीं कुछ। ‘विकीपीडिया’ और ‘जागरण जोश’ के अनुसार अकबर के नवरत्नों में राजा बीरबल, मियां तानसेन, अबुल फजल, अबुल फैजी, राजा मान सिंह, राजा टोडरमल, मुल्ला दो प्याजा, फकीर अजीउद्दीन और अब्दुल रहीम खानाखान है

मिल्खा सिंह का सपना, कौन करेगा पूरा?

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                                               फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह ने भारत माता की गोद को गोल्ड मेडलों से भर दुनिया भर में इसकी यश पताका फहराई। पर अब उनके सपने को कौन पूरा करेगा जो उनके 91 वर्ष की उम्र में अंतिम सास लेने के बाद भी अधूरा रह गया है।  कोई तो होगा न। करीब 135 करोड़ लोगों का यह बहुत संभावनाओं वाला देश है। किसी के अंदर तो मिल्खा सिंह जैसी ज्वाला धधक रही होगी? 20 नवंबर 1929 को मौजूदा पाकिस्तान के गोविंदपुरा में जन्मे मिल्खा सिंह एक ऐसी जिंदा मिसाल थे जिन्होंने भाग्य की लकीरों और खराब से खराब परिस्थितियों को ठेंगा दिखाया। कोई कल्पना कर सकता था कि पढ़ने-लिखने की उम्र में जो  युवक पुरानी दिल्ली के रेलवे स्टेशन के बाहर झूठे बर्तन साफ करने का काम करता हो वह पूरी दुनिया के लिए नजीर बन जाएगा? उन्होंने ऐसा ्किया और सीना ठोक कर  किया। उनका कहना था कि हाथ में भाग्य की लकीरों का कोई मतलब नहीं है। जो कुछ होता है, करने से होता है। यदि हिम्मत हो तो बड़ी से बड़ी मुश्किलें भी आसान हो जाती हैं। मिल्खा सिंह ने अपनी जिंदगी में पग-पग पर मुश्किलें झेली। लेकिन कभी हार नहीं मानी। देश के बंटवारे के

तात्या टोपे की चोटी के बाल

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                                                    1857 की क्रांति के अमर नायक तात्या टोपे से अंग्रेज हुकूमत दहशत खाती थी। पर वह उनकी कभी हार न मानने की जिद और बहादुरी की दिल से हमेशा कायल रही। इसलिए सार्वजनिक रूप से फांसी लगाने के बाद उनकी चोटी के बाल लंदन के ब्रिटिश म्यूजियम में सुरक्षित रखे गए । पर क्या वे बाल देश के अमर सपूत तात्या टोपे के ही हैं? यह सवाल इसलिए भी स्वाभाविक है क्योंकि देश की आजादी के बाद उनके भतीजे नारायण राव टोपे ने स्पष्ट किया कि फांसी तात्या टोपे को नहीं, बल्कि उनके विश्वस्त एक दूसरे हमशक्ल नारायण भागवत को दी गई। तात्या टोपे तो उस घटना के कई दशकों बाद तक जिंदा रहे। 1862 में जब तात्या टोपे के पिता  की मृत्यु हुई तो वह उनके अंतिम संस्कार में शामिल थे। पता नहीं वह किस मिट्टी के इंसान थे जो वफादारी में हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए। जबकि अब तो अपने खासमखास भी धोखा दे जाते हैं। मूल रूप  से महाराष्ट्र में नासिक के निकट येवला गांव के रहने वाले तात्या टोपे ब्राह्मण परिवार से थे। वास्तविक नाम रामचंद्र पांडुरंग राव था। जन्म 16 फरवरी 1814 को हुआ। शुरू में पेशवा बाजीराव द्वि

शेरों का शेर खेमकरन सोगरिया

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                                                 आपने ऐसे कई योद्धाओं के नाम सुने होंगे जिन्होंने एक शेर का शिकार किया। उनमें से किसी को शेरखां तो किसी को शेर सिंह कहा गया। पर एक महायोद्धा ऐसे भी हुए जिन्होंने एक साथ दो शेर पछाड़े। वह शेरों के भी शेर थे। उन्होंने अपनी वीरता के जिंदगी भर झंडे गाढ़े फिर भी हमेशा गुमनाम ही बने रहे। ऐसे ही एक महायोद्धा थे, भरतपुर के खेमकरन सोगरिया। उन्होंने कभी मुगलों को टैक्स नहीं दिया।  सामंत और सरदार उसके नाम से थर-थर कांपते थे। 18वीं सदी में जाटों में बहादुरी के लिए अलीगढ़ के नंदराम, मथुरा के गोकुला, भरतपुर के राजाराम, चूरामणि, महाराजा सूरजमल और महाराजा जवाहर सिंह की तो खूब चर्चा होती है पर खेमकरन को  एकदम नजरअंदाज किया जाता है जबकि एक जमाने में उन्होंने मुगल सम्राट औरंगजेब की नाक में दम कर दी थी। लंबे समय तक दिल्ली से आगरा, आगरा से ग्वालियर और आगरा से अलवर तक रास्तों पर उनके दलों के आने-जाने को रोक दिया था। अठारहवीं शताब्दी की शुरुआत में उन्होंने चूरामणि के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया,  फिर बदन सिंह के साथ भी।  पर बाद मेंंं सत्ता की अंधी दौड़ में उसे

चौ. अजित सिंह ने नहीं होने दिया माल्या का कर्जा माफ

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                                         कमियां तो सब में होती हैं, किसी में कोई  तो किसी में कोई। लेकिन उन्हें बहुत कम लोग ही स्वीकार कर पाते हैं। राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष रहे पूर्व केंद्रीय मंत्री चौधरी अजित सिंह ऐसे ही गिने-चुने साफ सुथरी छवि वाले नेताओं में थे जो अपने  खिलाफ सुन सकते थे और अपने खिलाफ खुद बोल भी सकते थे। सार्वजनिक रूप से अपनी कमियां स्वीकार करने में उन्हें कोई हिचक नहीं थी। वह बहुत ही हंसमुख, सादा सरल और बात-बात पर कह कहे लगाने वाले इंसान थे। अमर उजाला के तत्कालीन चेयरमेन और प्रधान संपादक अशोक अग्रवाल नितांत व्यक्तिगत चर्चाओं में जब उन्हें कहते-‘‘जाट रे जाट, तेरे ऊपर खाट। उन्हें बुरा नहीं लगता।  इसके आगे की कहावत को वह खुद पूरा करते----- तेरे ऊपर कोल्हू’’।  इसके बाद  वह जाटों के बारे में एक-दो कहावतें अपनी ओर से सुनाते- ‘‘अनपढ़ जाट पढ़ा जैसा, पढ़ा-लिखा जाट खुदा जैसा’’,  ‘‘जाट में बुद्धि तब आए, जब बारह बज जाएं’’।  फिर दोनों ठहाके मारकर हंसते। एकदम निश्चल हंसी। एक बार का वाक्या है, आगरा के एक पांच सितारा होटल में वह पत्रकारों से बात कर रहे थे। अनेक राजनीतिक सवालों के ब

औरंगजेब की विद्रोही पुत्री

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                         प्यार प्यार होता है। कभी-कभी वह इतना मुखर हो जाता है कि  सामाजिक मर्यादाओं को नहीं मानता ,  मजहब और सत्ता की दीवारों से भी टकरा जाता है।  लैला-मजनू, शीरी- फराद  आदि के किस्से तो जन-जन की जबान पर हैं। ऐसा ही कुछ मुगल सल्तनत के सबसे क्रूर शासक रहे औरंगजेब के परिवार में भी हुआ। उसकी  एक पुत्री मामूली से एक शायर पर फिदा हो गई थी।   समय का सबसे ताकतवर शासक होने पर भी वह उसे न तो मना सका और नहीं झुका सका। अंतत: उसने कैद में ही तड़प-तड़प कर अपनी जान दे दी। छठे मुगल सम्राट औरंगजेब का शासन दुनिया की एक चौथाई आबादी पर रहा।  वह अपने को विश्व विजेता यानि आलमगीर कहलवाता था। किसी के सामने उसे सिर नहीं झुकाना पड़े, इसलिए उसने अपनी बहनों की शादी ही नहीं की। एक बहन को जहर का प्याला पीने को मजबूर कर दिया। पर उसकी एक बेटी ने उसे अंदर तक  हिलाकर रख दिया। वह थी- जेब-उन-निसा। औरंगजेब की छह पुत्रियां थीं।  जेबुन्निसा उनमें सबसे बड़ी और  मुख्य मलिका दिलरस बानो बेगम की सबसे बड़ी औलाद । उसका जन्म 15 फरवरी 1638 को दौलताबाद  के किले में हुआ। वह शादी से ठीक नौ महीने बाद पैदा हुई। वह गजब की  हसी

भारत का नेपोलियन हेमू विक्रमादित्य

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                                              फ्रांस क्रांति के नायक नेपोलियन बोनापार्ट को तो आप जानते ही हैं, एक नेपोलियन भारत में भी हुआ। जिसे बहुत कम लोग जानते हैं। शुरू में मामूली सा नमक विक्रेता फिर अपनी सूझबूझ से सेनापति से लेकर मुख्यमंत्री और  प्रधानमंत्री तक बना। बंगाल से लेकर आगरा, आगरा से लेकर कालपी,  ग्वालियर, पंजाब के कुछ हिस्सों,  दिल्ली तक को तलवार की नोक पर अपने कब्जे में कर  मुगलों को उसने खदेड़ दिया था। पानीपत की दूसरी लड़ाई में किस्मत ने उसके साथ धोखा किया वरना देश का इतिहास ही कुछ और होता। यह महायोद्धा कोई और नहीं हेमू उर्फ हेमचंद्र विक्रमादित्य था। मौजूदा हरियाणा में मेवात के रैवाड़ी परगने का हेमू मूल रूप से धूसर वैश्य था। ‘औरंगजेबनामा’ में उसे बंगाल का बनिया बताया गया है। खैर युवावस्था में वह नगर की सड़कों पर नमक बेचा करता था। एक बार उसके पिता के कारवां को डाकुओं ने घेर लिया, तब उसने वीरता से मुकाबला किया। वह कद, काठी में कोई बहुत मजबूत नहीं था लेकिन बहुत ही सूझबूझ वाला, अति वीर, साहसी और महत्वाकांक्षी था। अपनी इस जीवटता से ही वह आदिल शाह के शासन में शिखर तक पहुंचा। यह

फिर भी सरकार बेफिक्र क्यों?

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                                                      तीन कृषि बिलों के खिलाफ किसान आंदोलन को चलते इतना वक्त हो गया, सैकड़ों जानें जा चुकी हैं कभी सड़कें तो कभी रेलें रोकी जाती हैं, आंदोलन थमने की बजाय  लगातार फैल रहा है। अलग-अलग राज्यों में किसानों की बड़ी-बड़ी पंचायतें हो रही हैं। किसानों की यह संख्या छोटी-मोटी नहीं है, देश की साठ प्रतिशत से ज्यादा आबादी है, यह। किसानों की इस नाराजगी के  दुष्परिणाम पंजाब के निकाय चुनावों में आ गए हैं,वहां भाजपा को नागरिकों ने सिरे से खारिज कर दिया । फिर भी सरकार बेफिक्र क्यों हैं? जबकि आगे के दिनों में कई राज्यों के विधान सभा चुनाव होने जा रहे हैं? भ्रष्टाचार के खिलाफ 2011 में सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे का आंदोलन इससे काफी कम समय चला था। जैसे ही जनता ने आंदोलन के साथ जुड़ना शुरू किया, तत्कालीन कांग्रेस सरकार हिल गई थी। उसने आनन-फानन में उसकी मांग मानते हुए संसद में लोकपाल विधेयक पारित कर दिया था। फिर भी कांग्रेस अपने को अगले आम चुनाव में नहीं बचा पाई थी।  किसानों के इस आंदोलन को लेकर अकाली दल समेत अनेक सहयोगी उनका  साथ छोड़ चुके हैं? फिर भी सरकार बेफिक

किसान आंदोलनों का सात सौ साल का इतिहास

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                                    करीब सात सौ साल पहले अलाउद्दीन खिलजी ने जब उपज का आधा भाग लगान के रूप में वसूलना शुरू किया तो दिल्ली के आसपास के किसानों ने विद्रोह कर दिया था। तब सर्व खाप पंचायत ने इसका मोर्चा संभाला।  संभवतया यह पहला किसान आंदोलन था। तब सेना भी इस विद्रोह को  दबा नहीं पाई। उसे पंचायत की मांगें माननी पड़ीं।  तब से देश के विभिन्न भागों में समय-समय पर किसान आंदोलन होते रहे हैं। चिंता की बात यह है कि उनकी समस्याओं का अंत अभी तक नहीं हो सका। काफी लंबा इतिहास है इसका। चौदहवीं सदी में खिलजी के बाद जब सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक ने लगान की दर बढ़ाई और उसकी वसूली के लिए किसानों को सताया तो पटियाला जिले के किसानों ने सैनिक संघों का गठन कर उसका मुकाबला किया। सत्रहवीं शताब्दी में शाहजहां के शासनकाल में अधिक लगान और विभिन्न करों की सख्ती से वसूली की गई तो  1635 में भरतपुर में रोरिया सिंह के नेतृत्व में किसानों ने विरोध किया। 1659  में अलीगढ़ के नंदराम ने विरोध का झंडा उठाया। उन्होंने मथुरा, मुरसान और हाथरस में लगान देना बंद करा करा दिया। इसके बाद 1669  में मथुरा के गोकुल सिंह उर्फ

‘जय जवान जय किसान’ नारा क्यों?

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                                    जब-जब किसानों या जवानों  की कोई बात आती है तब-तब प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी का यह नारा- ‘जय जवान जय किसान’ लोगों की जुबान पर आ जाता है। देश का यह सबसे लोकप्रिय नारा है। शास्त्रीजी के गुजर जाने के इतने सालों पर भी यह वेद वाक्य की तरह है। चाहे किसी पार्टी की सरकार हो चाहे कोई आंदोलन हो यह नारा सबके लिए अहम बन जाता है। अब जबकि किसान तीन बिलों के खिलाफ  आंदोलन पर है, तब भी यह नारा गूंजता रहता है। आखिर क्या बात है इस नारे में और क्यों  इसे देने की आवश्यकता पड़ी? लाल बहादुर शास्त्री छोटे कद यानि पांच फुट दो इंच के इंसान थे। उन्होंने इसके माध्यम से दुनिया की सबसे बड़ी ताकत अमेरिका और पडोसी दुश्मन देश पाकिस्तान को चुनौती दी।  पूरे देश को एकजुूट भी किया। हुआ यह था चीन से 1962 के युद्ध में पराजय के बाद जवाहर लाल नेहरूजी की मृत्यु हो गई थी। देश की आर्थिक हालत खराब थी। ऐसे में भारत को कमजोर समझ पाकिस्तान ने अपने देश पर हमला बोल दिया था। शास्त्रीजी के नेतृत्व में भारतीय सेना ने इसका न केवल मुंह तोड़ जवाब दिया बल्कि पाकिस्तान के भीतर जाकर लाहौर तक कब्जा कर ल

एक ऐसे प्रधानमंत्री जिनका सामान फेंक दिया गया था

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                                          अब जब राजनीति में भ्रष्टाचार चरम पर है। एक बार चुनाव लड़ने पर जनप्रतिनिधियों की  संपत्ति कई गुना बढ़ जाती हैं, विधान सभा  तक के चुनावों में  लोग करोड़ों फूंक देते हैं, पर इसी भारत में एक ऐसे भी प्रधानमंत्री रहे जो आधा दर्जन से ज्यादा बार जनप्रतिनिधि रहे, सारी प्रमुख जिम्मेदारियां संभाली, वह सभी राजनेताओं से ज्यादा जीए, करीब सौ वर्ष । पर अपनी पूरी जिंदगी में अपना कोई मकान तक नहीं बनवा सके। ये थे- गुलजारीलाल नंदा। नंदा साहब एक बार नहीं दो-दो बार प्रधानमंत्री रहे, पहली बार प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के निधन पर उन्हें 13 दिन यह जिम्मेदारी निभानी पड़ी। दूसरी बार लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद उनके कंधों पर यह जिम्मेदारी आई। दोनों बार में वह कुल 26 दिन प्रधानमंत्री रहे। भले ही कार्यवाहक थे। लेकिन प्रधानमंत्री तो थे ही। उन्होंने विषम स्थितियों में देश को संभाला।  उनका कद प्रधानमंत्री स्तर का था। हर बार उन्हें इस जिम्मेदारी के उपयुक्त समझा गया तो कोई तो बात उनमें थी। वह बहुत ही ईमानदार, सरल, सादगी पसंद और गांधीवादी काबिल इंसान थे। आज भले ही लोग

जब राजपूतों का मुगलों से मोहभंग हुआ

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                                              यह जगत प्रसिद्ध है कि राजपूतों और मुगलों के डेढ़ सौ साल से ज्यादा तक रोटी और बेटी के घनिष्ठ संबंध  रहे। दो दर्जन से ज्यादा राजपूतानियों की मुगलों से शादियां की गई। लेकिन  एक दौर ऐसा भी आया जबकि राजपूतों का मुगलों से मोहभंग हो गया। मेवाड़ के शासक को पहले से ही खफा थे। बाद में जयपुर और अन्य घरानों के भी राजपूत नाराज हो गए। भारत में मुगलों की सल्तनत खत्म होने का यह भी एक कारण रहा। इतिहासकारों के अनुसार राजपूतों और मुगलों के रोटी और बेटी के संबंधों की शुरुआत सबसे पहले 6 फरवरी 1562 को आमेर के राजा भारमल की बेटी जोधाबाई की सम्राट अकबर के साथ शादी से हुई। इसके बाद तो यह सिलसिला चल निकला। अकबर के साथ केवल जोधाबाई ही नहीं, अलग-अलग राजाओं ने पांच अन्य राजपूत राजकुमारियों की शादी की। इसके बाद उनके पुत्र जहांगीर के साथ चार  राजपूत राजकुमारियां ब्याही गईं।  औरंगजेब जिसे मुगलों का सबसे क्रूर शासक माना जाता है, उसकी दो रानियां राजपूत थीं। औरंगजेब के पुत्र और पौत्रों की भी राजपूत रानियां थीं। बहादुर शाह प्रथम को तो जयपुर के संस्थापक महाराजा जय सिंह द्वितीय क

राजा महाराजाओं में कौन कितना अय्याश

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                                    लोग मुगलों को अय्याश कहते हैं,  उनमें सबसे उदार रहे सम्राट अकबर को भी इसी श्रेणी में मानते हैं। क्योंकि उनकी एक से अधिक रानियां थीं। इनमें छह रानियां तो हिंदू ही थी। जहांगीर की नौ रानियां थीं जिनमें से चार हिंदू। शाहजहां की मुमताज समेत आठ  और औरंगजेब की नवाब बाई समेत अनेक रानियां थीं।  लेकिन इस मामले में हिंदू राजा भी किसी से कम नहीं थे। सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे थे। भरतपुर के महाराजा सूरजमल की रानी किशोरी  देवी समेत छह रानियां थीं। महाराणा प्रताप की अजबदे पंवार समेत 11 रानियां और छत्रपति शिवाजी की आठ रानियां थीं। महाराणा प्रताप के पिता महाराणा उदय सिंह की 22 रानियां थीं। मारवाड़ के राजा अजीत सिंह की पांच दर्जन से ज्यादा रानियां थीं। सन 1724 में जब उनकी मृत्यु हुई तो 63 उनके साथ सती हुईं। जयपुर के संस्थापक महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय की 27 रानियां थीं।  मध्यकाल का वह जमाना ही ऐसा था।  बेटियों की इज्जत थी ही कहां, बहन और बेटियां एक सुविधा की तरह  इस्तेमाल की जाती थीं। वे राजगद्दी पाने या राजगद्दी बचाने का साधन मात्र गईं थीं।  तभी तो जब अकबर ताकतवर

क्षत्रिय विरोधी नहीं थे महर्षि परशुराम

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 /                                                           महर्षि परशुराम पर दो आरोप लगाए जाते है। एक यह कि वह क्षत्रिय विरोधी थे और दूसरे बहुत गुस्सैल। स्थिति यह है कि जब भी कभी परशुरामजी की बात आती है तो बहुत से क्षत्रिय नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं। ऐसे ही जब भी कोई आदमी भारी गुस्सा दिखता है और  वह बार-बार गुस्सा होता है तो लोग झटपट उसे परशुराम का वंशज कह डालते हैं।  पर हकीकत में महर्षि परशुराम तो न क्षत्रिय विरोधी थे और नहीं गुस्सैल। वह तो विष्णु के छठे अवतार थे। उन्हें भगवान का दर्जा प्राप्त था। यह दर्जा किसी को ऐसे ही नहीं मिल जाता है। इसके लिए बहुत ही कर्तव्यपरायणता, सहिष्णुताऔर त्याग करना पड़ता है। महर्षि परशुराम के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने एक बार नहीं 21बार धरती से क्षत्रियों का समूल नाश किया।  यह बहुत ही अतिरंजित बात है। वास्तव में  यह हैहय वंशी क्षत्रिय राजा सहस्त्रार्जुन और परशुरामजी के बीच  धर्म और अधर्म की लड़ाई थी। यह ऐसी ही लड़ाई थी जैसे राम और रावण के बीच हुई। रावण पर्यादा पुरुषोत्तम राम की पत्नी का हरण कर ले गया था जबकि सहस्त्रार्जुन महर्षि की पिता जमदग्नि की कामधे

दुनिया का एक और अजूबा जयपुर का हवा महल

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                                            गुलाबी शहर जयपुर का हवा महल दुनिया का ऐसा ही एक अजूबा है, जैसे- ताजमहल। ताजमहल वास्तुकला की अनुपम कृति है तो हवा महल भी । एक नहीं इसकी  ऐसी  अनेक खूबियां हैं जो इसके अलावा अन्य  कहीं नहीं हैं। हवा महल दुनिया में ऐसा एक मात्र महल हैजो बिना नींव के निर्मित है। राजस्थान की राजधानी जयपुर में यह ऐसी जगह पर हैं जहां गर्मियों में कुछ दिन सर्वोच्च तापमान रहता है। यहां के लू के थपेड़े किसी को भी बेहोश करने के लिए काफी हैं। लेकिन इस महल को इस तकनीक से निर्मित किया गया है कि गर्म हवा के  थपेड़े भी इममें शीतल बयार के झोंके बन जाते हैं। इसकी 953 छोटी-छोटी़ खिड़कियां और बलुई पत्थर से बनी अनगिनत जालियां इसमें वातानुकूलन का काम करती हैं। यदि आपको  जयपुर घूमना है तो कम से कम दो दिन का समय चाहिए।  तभी  इसके मुख्य दर्शनीय स्थलों को ठीक से देख सकेंगे।  यदि समय नहीं है तो फिर हवा महल ही एक ऐसी जगह है जिसकी ऊपरी मंजिलों से एक ही मिनट में पूरा जयपुर देख सकते हैं।  एक ही स्थान पर खड़े होकर उसके इर्द-गिर्द फैली पहाड़ियों को निहार सकते हैं, जयपुर घराने की शान सिटी पैलेस, ज

दुनिया की प्राचीन सर्वश्रेष्ठ वेधशाला

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                                                गुलाबी शहर जयपुर का जंतर-मतर भारत ही नहीं दुनिया की सर्वश्रेष्ठ प्राचीन  खगोलीय वेधशाला है। ग्रहों की स्थिति और काल गणना के उसके परिणाम अभी भी चौकाते हैं। इससे आज भी घंटे, मिनट और चौथाई मिनट तक के समय की सटीक गणना की जा सकती है। दुनिया अब कितनी बदल गई है, ज्ञान-विज्ञान ने भारी तरक्की की है। अंतरिक्ष के बारे में बहुत सारी नई जानकारियां आ गई  हैं, लेकिन कई मामलों में  इस वेधशाला की अहमियत अभी भी बनी हुई है। यह प्रमाणित करती है कि पुराने समय में हमारा देश खगोल शास्त्र के मामले में कितना उन्नत था। पूरी दुनिया के लिए भी  यह एक प्राचीन दुर्लभ रचना है। इसलिए यूनेस्को ने इसे विश्व विरासत का दर्जा दिया है। अमेरिका की विस्कोंसिन यूनिवर्सिटी के एस्ट्रोनोमी एंड फिजिक्स के प्रोफेसर  वीरेंद्रनाथ शर्मा कहते हैं कि यह भारत की शान है, इसे सहेज कर रखे जाने की जरूरत है। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी से मुलाकात कर उन्होंने इसे संरक्षित कराने का सार्थक प्रयास किया।  जयपुर शहर के संस्थापक महाराजा सवाई जय सिंह द्वितीय ने 1728-38 के बीच इसका निर्माण कराया। म

दारा सिंह का कुत्ता

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                                                        जी हां यहां उन्हीं दारा सिंह की बात है जिन्होंने पहलवानी के मामले में भारत का दुनियाभर में नाम रोशन किया,  जो कभी रुस्तमे हिंद रहे। उन्होंने अपने से करीब दुगने वजन के पहलवान किंग कौंग को चारों खाने चित्त किया, जीवन में एक भी कुश्ती नहीं हारी। इसके बाद उन्होंने सौ से ज्यादा फिल्मों में काम किया, उनके हनुमानजी के किरदार को सबसे ज्यादा सराहा गया। हां, उन्हीं का कुत्ता।   कैसा होगा? जरा सोच कर बताइए? कुछ लोग कहेंगे, उनके जैसा ही बलिष्ठ जर्मन शैफर्ड या अन्य किसी विशेष प्रजाति का होगा।  तो कुछ लोग हाथ कंगन को आरसी क्या,  गूगल पर तुरंत  सर्च करने लगेंगे, कुत्ता था भी या नहीं। मत सर्च करिए।  इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता, उनके पास कुत्ता था या नहीं क्योंकि कुत्ते की उन्हें जरूरत ही क्या होगी। उनके डर से वैसे ही चोर उचक्के घर के पास नहीं फटकते होंगे।   बात जब कुत्ते की चली है तो ‘धोबी का कुत्ता घर का न घाट का’ की बात कैसे बिना चर्चा रह सकती है। कौन जाने किस परिस्थिति में यह कहावत चलन में आई होगी। (धोबी भाई क्षमा करें चूंकि कहावत में यह शब्द