औरंगजेब की विद्रोही पुत्री

                        


प्यार प्यार होता है। कभी-कभी वह इतना मुखर हो जाता है कि  सामाजिक मर्यादाओं को नहीं मानता ,  मजहब और सत्ता की दीवारों से भी टकरा जाता है।  लैला-मजनू, शीरी- फराद  आदि के किस्से तो जन-जन की जबान पर हैं। ऐसा ही कुछ मुगल सल्तनत के सबसे क्रूर शासक रहे औरंगजेब के परिवार में भी हुआ। उसकी  एक पुत्री मामूली से एक शायर पर फिदा हो गई थी।   समय का सबसे ताकतवर शासक होने पर भी वह उसे न तो मना सका और नहीं झुका सका। अंतत: उसने कैद में ही तड़प-तड़प कर अपनी जान दे दी।

छठे मुगल सम्राट औरंगजेब का शासन दुनिया की एक चौथाई आबादी पर रहा।  वह अपने को विश्व विजेता यानि आलमगीर कहलवाता था। किसी के सामने उसे सिर नहीं झुकाना पड़े, इसलिए उसने अपनी बहनों की शादी ही नहीं की। एक बहन को जहर का प्याला पीने को मजबूर कर दिया। पर उसकी एक बेटी ने उसे अंदर तक  हिलाकर रख दिया। वह थी- जेब-उन-निसा।

औरंगजेब की छह पुत्रियां थीं।  जेबुन्निसा उनमें सबसे बड़ी और  मुख्य मलिका दिलरस बानो बेगम की सबसे बड़ी औलाद । उसका जन्म 15 फरवरी 1638 को दौलताबाद  के किले में हुआ। वह शादी से ठीक नौ महीने बाद पैदा हुई। वह गजब की  हसीन, पढ़ने-लिखने में भी सुभान अल्लाह थी। कहते हैं कि तीन साल की उम्र में उसने कुरान याद कर ली थी,  सात साल की उम्र में वह हाफिज बन गई। हालांकि यह बात बहुत ही अविश्वसनीय सी लगती है। इस खुशी को औरंगजेब रोक नहीं पाया था। उसने सार्वजनिक अवकाश घोषित किया और लोगों को दावत दी। यही नहीं जेबुुन्निसा को तीस हजार स्वर्ण टुकड़ों का इनाम और इतना ही  स्वर्ण उसे पढ़ाने वाले उस्ताद बी को दिया। 

वह बहुत ही लाड़ प्यार में पली अपने पिता की सबसे लाड़ली बेटी थी। स्थिति यह थी कि वह अपने पिता को क्षमादान तक के लिए मजबूर कर सकती थी।  उसे उस जमाने में चार लाख रुपये मासिक अपने खर्च के लिए मिलते थे। वह दयालु थी और कृष्ण भक्त भी। गरीबों तथा जरूरतमंदों की मदद करती रहती । वह हर  साल अनेकों को हज यात्रा के लिए भी भेजती।  छोटी सी उम्र में वह कविता और मुशायरी करने लगी।  खुदा जब किसी पर इतनी इनायत करता है तो थोड़ी कमी भी छोड़ देता है। यही कुछ उसके साथ भी हुआ। शायद इसीलिए इतना सब होने पर भी जिंदगी में उसे चैन नहीं मिला। 

बादशाह ने उसकी मंगनी अपने भाई दारा शिकोह के पुत्र  सुलेमान शिकोह के साथ की लेकिन असमय ही उसकी मृत्यु हो जाने से विवाह नहीं हो सका।  इसी बीच महफिलों में आने वाले शायर अकील खां रजी से उसकी मोहब्बत हो गई। औरंगजेब को यह भी रास नहीं आया। एक छोटा का शायर उसकी बेटी का शौहर कैसे बन सकता था? उसने दरबार में मुशायरों के आयोजनों पर प्रतिबंध लगा दिया।  जेबुन्निशां पर कड़ी निगरानी रखी जाने लगी। लेकिन वह नहीं मानी। फिर वह दबे-छुपे गोपनीय महफिलों में शिरकत करने लगी। वह मखफी के छद्म नाम से लिखा करती थी।  

सम्राट ने जेबुन्निशां को  जनवरी 1691 में दिल्ली के सलीम गढ़ किले में कैद कर दिया।  फिर जेबुन्निशां के सामने ही अकील खां रजी को हाथी से कुचलकर मरवा दिया। जेबुन्निसा करीब 21 साल कैद में रही और सुबक-सुबक कर  प्रेमी के बिछोह में अपनी रचनाएं करती रहीं। उसने करीब पांच हजार गजलें, शेर और रुबाइयां लिखीं। जो उनके मरने के बाद ‘दीवान ए-मख्फी ’के नाम से संग्रहीत की गई। 

वह औरंगजेब के समय में ही 26 मई 1702 को  मर गई।  मरते-मरते वह अपने पिता को श्राप दे गई कि तुझे भी जीते जी चेन नहीं मिलेगा, जिस साम्राज्य पर तुझे नाज है, वह एक दिन तिनका-तिनका खत्म  हो जाएगा। उसे आगरा स्थित सिकंदरा में दफनाया गया। औरंगजेब उससे इस कदर नाराज था कि कब्र पर उसका नाम तक नहीं लिखवाया। हालांकि इस बात अब कोई मतलब नहीं है फिर भी कहने वाले कहते हैं कि उसका श्राप ही मुगल सल्तनत को लगा। उसकी आत्मा अभी भी सलीम गढ़ के किले में भटकती रहती है।



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