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Showing posts from November, 2020

महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी राजा महेंद्र प्रताप

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                                       देश की जंगे आजादी में जब लोग अपनी कुर्बानियां दे रहे थे, हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल रहे थे, लाठी-डंडे खा रहे थे, तब अधिकांश रियासतें अंग्रेजों के साथ थीं। 1857 की क्रांति में पराजय से वे इतनी नर्वस हो गईं कि उन्होंने अंग्रेजों से संधियां कर लीं। उन्हीं को अपना नियंता मान लिया था लेकिन  छोटी सी रियासत मुरसान के राजा महेंद्र प्रताप सिंह देश की आजादी के लिए पुरजोर ढंग से लड़े। वह एक साथ कई मोर्चोंं पर लड़े। केवल भारत में ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी लड़े। उन्होंने अपना पूरा जीवन, सुख और संपत्ति देश की बेहतरी के लिए कुर्बान कर दी। आजादी की लड़ाई के सितारे सुभाष चंद बोस ने जिस आजाद हिंद सेना के जरिए अंग्रेज सरकार के खिलाफ लड़ाई का बिगुल फूंका, उसकी नींव इन्होंने ही  रखी । वह बहुत ही दूरदृष्टा थे। यह  अलग बात है कि आजादी के इतिहास लेखन में उन्हें किनारे पर कर दिया गया। एक दिसंबर 1886 को उत्तर प्रदेश में स्थित हाथरस रियासत के राजा घनश्याम सिंह के घर जन्मे उनके तीसरे पुत्र राजा महेंद्र प्रताप का मूल नाम खड़क सिंह था। पडोस की मुरसान के राजा हरनारायण सि

तो क्या बाइडन राष्ट्रपति बन पाते?

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                                            लोग असफलता को बहुत बुरा मानते हैं लेकिन कई बार असफलता सफलता से भी लाख गुना बेहतर सिद्ध हो जाती है। अमेरिका के चयनित राष्ट्रपति जो बाइडन और अपने पूर्व राष्ट्रपति कलाम पर यह सौ फीसदी फिट बैठती है। कलाम साहब पायलट बनना चाहते थे। लेकिन नहीं बन पाए। उन्हें अनफिट कर दिया गया। बहुत दुखी हुए लेकिन फिर उन्होंने हिम्मत बटोरी, वह देश के टौप वैज्ञानिक, देश के रक्षा सलाहकार और सर्वोच्च राष्ट्रपति के पद पर पहुंंचे। इसी तरह बाइडन साहब पढ़ाई पूरी करने के बाद देश की सेवा के लिए मिलिट्री में भर्ती होने चाहते थे। लेकिन अस्थमा की बीमारी के कारण वह अनफिट कर दिए गए।  बाइडन साहब को जिंदगी में दूसरा झटका तब लगा जबकि वह सीनेटर थे, एक कार एक्सीडेंट में उनकी पत्नी और दो बच्चों की मृत्यु हो गई। वह इतने निराश हुए कि राजनीति से संन्यास लेने जा रहे थे। दोस्तों ने समझाया। उन्होंने हिम्मत जुटाई। इसी का परिणाम आज सामने है। वह अमेरिका के 46वें राष्ट्रपति की 20  जनवरी 2021 को शपथ लेंगे।  बाइडन साहब की कोई पारिवारिक रूप से राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं रही, नहीं वह आर्थिक रूप से समृद्ध

आगरा में जाटों का भी शासन रहा

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                                          अक्सर जब कभी आगरा के इतिहास का जिक्र किया जाता है तो वह मुगलों और अंग्रेजों तक सीमित कर दिया  जाता है, उन्हीं की उपलब्धियों और ज्यादतियों का उल्लेख होता है लेकिन आगरा में जाटों का भी शासन रहा। वह भी करीब 14 साल। इसके अलावा जाटों ने मुगलों से सौ साल से भी ज्यादा समय तक लोहा लिया। बलिदान दिए। इसका जिक्र कभी नहीं होता। जाट शासकों ने आगरा की जनता के स्वाभिमान, सम्मान और भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए अनेक उल्लेखनीय कार्य किए, उनके चिन्ह अभी भी मौजूद हैं। उनके नाम पर ऐसे अनेक स्थल हैं जो उनकी शौर्य गाथाओं की गवाही देते हैं। जाट राजाओं ने अपने कर्म पर भरोसा किया,  अपनी यशोगाथा के बखान पर नहीं। इसी कारण उनके योगदान को इतिहास में यथोचित स्थान नहीं मिल सका। फिर भी इतिहास के कई ग्रंथों में उनके कार्यों की छिटपुट विरुदावलियां मिल ही जाती हैं। आगरा में शासन करने वाले जाट राजाओं में सबसे प्रतापी महाराजा सूरजमल थे। उनकी वीरता के कितने ही किस्से जन-जन की जुबान पर हैं। मूलत:  वह किसान परिवार से थे। किसानों को ही एकजुट कर उन्होंने सेना बनाई और बड़े-बड़े शूरमाओं