आगरा में जाटों का भी शासन रहा

                   


                     

अक्सर जब कभी आगरा के इतिहास का जिक्र किया जाता है तो वह मुगलों और अंग्रेजों तक सीमित कर दिया  जाता है, उन्हीं की उपलब्धियों और ज्यादतियों का उल्लेख होता है लेकिन आगरा में जाटों का भी शासन रहा। वह भी करीब 14 साल। इसके अलावा जाटों ने मुगलों से सौ साल से भी ज्यादा समय तक लोहा लिया। बलिदान दिए। इसका जिक्र कभी नहीं होता। जाट शासकों ने आगरा की जनता के स्वाभिमान, सम्मान और भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए अनेक उल्लेखनीय कार्य किए, उनके चिन्ह अभी भी मौजूद हैं। उनके नाम पर ऐसे अनेक स्थल हैं जो उनकी शौर्य गाथाओं की गवाही देते हैं।

जाट राजाओं ने अपने कर्म पर भरोसा किया,  अपनी यशोगाथा के बखान पर नहीं। इसी कारण उनके योगदान को इतिहास में यथोचित स्थान नहीं मिल सका। फिर भी इतिहास के कई ग्रंथों में उनके कार्यों की छिटपुट विरुदावलियां मिल ही जाती हैं। आगरा में शासन करने वाले जाट राजाओं में सबसे प्रतापी महाराजा सूरजमल थे। उनकी वीरता के कितने ही किस्से जन-जन की जुबान पर हैं। मूलत:  वह किसान परिवार से थे। किसानों को ही एकजुट कर उन्होंने सेना बनाई और बड़े-बड़े शूरमाओं को परास्त किया।  उन्हें केवल हिंदू कहना हल्कापन होगा, वह सच्चे अर्थों में भारतीय थे। उन्होंने मसजिदों को कोई क्षति नही ंपहुंचाई। पानीपत  युद्ध से पहले सदाशिव राव भाऊ के यह कहने पर कि मथुरा आपके कब्जे में है, फिर यह मसजिद क्यों नहीं गिरवाई? उन्होंने कहा था कि हम यदि उनकी मसजिद गिरवाएंगे तो उनका शासन आने पर वे भी हमारे मंदिरों को तोड़ेंगे। तब क्या अच्छा लगेगा?  उनकी सेना में मुसलिम भी थे। वह बहुत ही दूरदृष्टा और सूझबूझ वाले शासक थे। इतिहासकारों  का कहना है कि सदाशिव भाऊ ने उनकी सलाह नहीं मानी, वरना हिंदुस्तान का इतिहास कुछ और होता। उनका शासन राजस्थान में भरतपुर, धौलपुर, रैबाड़ी, मेवात के अलावा हरियाणा के गुरुग्राम, रोहतक, उत्तर प्रदेश के अलीगढ़, हाथरस, इटावा, एटा, मैनपुरी,आगरा,  मथुरा, मेरठ तक था।

आगरा में सबसे पहले 1738 में उन्होंने भरतपुर के निकटस्थ  23 गांवों पर अधिकार लिया।  मराठे आगरा पर अपना अधिकार चाहते थे, यहीं से मराठों और जाटों में  मतभेद उत्पन्न हुए। इस पर मराठों ने जाटों को सबक सिखाने के लिए भरतपुर स्थित कुंभेरगढ़ के किले को जनवरी 1754 में घेर लिया। कई महीनों तक जाटों और मराठों के बीच जबर्दस्त लड़ाई हुई जिसमेंं मल्हारराव होल्कर का बेटा खांडेराव होल्कर मारा गया। मराठों को न केवल अपने कदम वापस लेने पड़े बल्कि हर्जाने के तौर पर तीन वर्ष में तीस लाख रुपये देने का वायदा भी करना पड़ा।  1757 में  अहमदशाह अब्दाली महाराजा सूरजमल की उभरती ताकत को  छिन्न-भिन्न करने के लिए आया था। उसने मथुरा में भारी मारकाट और लूट की। उसका इरादा आगरा में भी तबाही और लूटपाट का था लेकिन सूरजमल  के प्रतिरोध के आगे वापस लौटना पड़ा। 

महाराजा सूरजमल ने आगरा किले पर  कब्जे  के लिए सेना नायक बलराम ने चार हजार सैनिकों साथ भेजा था। उसने तीन मई 1761 को किले पर धावा बोला। अलीगढ़, जलेसर आदि पर कब्जा करते हुए सूरजमल भी चार जून को आगरा आ गए। किले पर सहज कब्जा न होते देख दुर्ग रक्षकों के परिवारों को  उन्होंने बंधक बना लिया। दुर्ग रक्षकों का मनोबल टूट गया। इस तरह 12 जून 1761 को आगरा किला महाराजा सूरजमल के हाथों में आ गया। इतिहासकारों के अनुसार किले में बड़े पैमाने पर गोला बारूद, तोपें, पचास लाख रुपये महाराजा के हाथ लगे जिसे उन्होंने डीग और भरतपुर के किलों के लिए भिजवा दिया। इसके बाद उन्होंने किले में दरबार लगाए। बताते हैं कि सूरजमल ने ताजमहल में मुमताज की कब्र पर लगे चांदी के दरबाजे भी  उतरवा लिये और सिकंदरा स्थित अकबर के मकबरे में तोड़फोड़ की। लेकिन यह बात  समझ से परे है कि जब महाराजा सूरजमल का ताजमहल समेत किले पर कब्जा हो गया था, उनका आगरा में शासन स्थापित हो गया था तब उन्हें यहां लूटपाट करने की क्या आवश्यकता थी? धन संपत्ति की तो यहां भी जरूरत थी।  सूरजमल लुटेरे नहीं थे। वह  सह्ृदय थे, दानी थे। विस्तारवादी सोच उनकी नहीं थी।  इतिहासकारों के इस कथन से सहमति नहीं जताई जा सकती। इस पर शोधार्थियों को फिर से काम करना चाहिए।

1763 में सूरजमल  की मृत्यु के बाद उनके बड़े बेटे जवाहर सिंह ने गद्दी संभाली। उन्होंने अपनी सेना को पश्चिमी ढंग से प्रशिक्षित करने के लिए  राइनहर्ड (समरू) को  नियुक्त किया।  उन्होंने आगरा में मांस की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया था। जामा मसजिद जो शाहजहां की पुत्री जहांआरा द्वारा बनवाई गई, उसके नीचें दुकानें खुलवा दीं। जो आजकल कपड़ों का प्रमुख मार्केट है। 1768 में किले में ही उनकी मृत्यु हो गई। 

इसके बाद उनके भाई रतन सिंह ने गद्दी संभाली।  वह किले के जिस भाग में रहते थे, उसे आज भी रतन सिंह का मंदिर कहा जाता है। उन्होंने मात्र एक वर्ष ही राज किया। उनकी मृत्यु के बाद उनके नाबालिग पुत्र केहरी सिंह को गद्दी पर बैठाया गया। हंसा जाट को उसका संरक्षक नियुक्त किया गया। हंसा जाट की हवेली किले के फौजी  नियंत्रण वाले क्षेत्र में  मिलिट्री केंटीन के सामने अभी भी स्थित है।

इसके बाद नवल सिंह के हाथों में सत्ता आई। इन्हीं नवल सिंह के नाम पर यमुना पार नवलगंज क्षेत्र है। 11 अगस्त 1775 को  डीग के दुर्ग में उनकी मृत्यु हो गई। नवल सिंह के बाद उनके भाई रणजीत सिंह उत्तराधिकारी बने। उन्होंने  नवल सिंह के हाथों से निकले क्षेत्रों पर फिर से कब्जा कर लिया। बाद में मुगल बादशाह की ओर से भेजे गए नजफ खां ने आगरा पर फिर से कब्जा कर लिया।

इस शासनकाल में जाट राजाओं ने अनेक कार्य किए। ये लोग कृष्ण भक्त थे। इन्होंने कृष्ण और दाऊजी के अनेक मंदिर बनवाए।  इनमें मोतीकटरा, बेलनगंज, किनारी बाजार, सदर भट्टी  के मंदिर और बल्का बस्ती का राजाजी मंदिर प्रमुख हैं। राजाजी मंदिर के बारे में कहा जाता है कि इसे महाराजा सूरजमल की पत्नी रानी  किशोरी देवी ने बनवाया था। जगदीशपुरा के पास किशोरपुरा रानी किशोरीदेवी के नाम पर है। यहीं उनकी हवेली और मंदिर था। सूरजमल के पुत्र नाहर सिंह के नाम पर ताजगंज क्षेत्र में नाहरगंज है और उनके दत्तक पुत्र हरदेव सिंह के नाम पर हरदेव गंज। महानगर की पौश कालोनी भरतपुर हाउस में इसी राजघराने की एक विशाल हवेली हुआ करती थी, जिसमेंलंबे समय तक मुख्य विकास अधिकारी से लेकर अनेक सरकारी कार्यालयों का केंद्र चला। महाराजा सूरजमल के नाम से सेंट जोंस कालेज के पास एक कालेज अब भी संचालित है।

प्रशासन की दृष्टि से जाट राजाओं ने आगरा को पांच तहसीलों में विभक्त  किया था-लोहामंंडी, मलपुरा, कड़हारा, नाहरगंज,  शमसाबाद। इनमें से लोहामंंडी को  प्रमुख सदर तहसील का दर्जा प्राप्त था।

यह तो रहा जाटों का शासन। लेकिन शासन न होते हुए भी इससे करीब सौ साल पहले जाट मुगलों से टक्कर लेते रहे। औरंगजेब की हिंदू विरोधी नीतियों का सबसे मुखर विरोध जाटों के नेता गोकुला जाट ने संगठित विद्रोह करके किया। उन्होंने  1666 में मथुरा में स्थानीय फौजदार अब्दुल नबी को मार डाला। इस विद्रोह को कुचलने के लिए खुद औरंगजेब को मथुरा जाना पड़ा। तिलपत नामक स्थान पर दोनों के बीच भयानक युद्ध हुआ। जिसमेंगोकुला को परिवार समेत पकड़ लिया गया। गोकुला को आगरा में लाकर मौजूदा फव्वारा चौराहे के पास  मार डाला गया।  उसके टुकड़े-टुकड़े किए गए ताकि फिर कोई विद्रोह नहीं कर सके।  यह वही स्थान है जहां आजकल जौहरी बाजार का पोस्ट आफिस है, वहीं पहले मुगलों की कोतलवाली थी। 

लेकिन जाटों का विद्रोह फिर भी नहीं थम सका। गोकुला के बाद राजाराम ने मोर्चा संभाला। उन्होंने सिंकदरा पर आक्रमण करके अकबर की कब्र खोदकर उसकी ह़िड्डयों का जला डाला और भारी तोड़फोड़ के बाद स्मारक को आग लगा दी।  4 जुलाई 1688 को राजाराम के मारे जाने के बाद उसके छोटे भाई चूरामन ने फिर सिकंदरा पर हमला किया। उनकी तोड़फोड़ और आगजनी के चिन्ह सिकंदरा में आज भी देखे जा सकते हैं। चूरामन के भतीजे बदन सिंह के दत्तक पुत्र थे महाराज सूरजमल।

ये सारे तथ्य आगरा के जाने-माने इतिहासकर  राजकिशोर शर्मा राजे की पुस्तक ‘तवारीख-ए-आगरा’, यदुनाथ सरकार की पुस्तक ‘औरंगजेब’,  बाला दुबे की पुस्तक ‘आगरा के मोहल्ले’, मोहम्मद लतीफ की पुस्तक ‘आगरा हिस्टोरिकल एंड  डिस्क्रिप्टिव’,  इब्राहीम खां की  पुस्तक ‘तारीख-ए’, गुलाम हुसैन की पुस्तक ‘सियार-उल-मुताखिरीन’,  ‘यूपी गजेटियर आगरा एंड अवध’ से लिए गए हैं। उन सभी के प्रति बहुत-बहुत आभार। जाटों के आगरा से संबंधित इतिहास को लेकर अभी बहुत से तथ्य बाकी हैं, जिन पर गंभीर शोध की आवश्कता है।



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