गौतम बुद्ध ने आखिर क्यों लिया संन्यास?

              


              

कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ गौतम यानि गौतम बुद्ध ने क्यों संन्यास लिया? उस समय की व्यवस्था के अनुसार यह क्षत्रियों का काम नहीं था। ऐसे क्या कारण थे, जिसके कारण उन्होंने राजसी सुख-सुविधाएं त्याग कर अपनी जिंदगी के लिए कांटों भरा पथरीला रास्ता चुना। यह जो कहा जाता है कि  वृद्ध, बीमार और शव देखने के बाद उनका इस दुनिया से मोह भंग हो गया था। राष्ट्रपति रहे डा. राधाकृष्णन ने  अपनी पुस्तक में यही लिखा है। विकीपीडिया और तमाम पुस्तकों में यही जानकारी  है, जो सही नहीं है। वास्तव में उन्होंने बहुत बड़ा त्याग किया था।

गौतम बुद्ध ने 563 ईसापूर्व बैसाख पूर्णिमा के दिन मौजूदा नेपाल के कपिलवस्तु राज्य में जन्म लिया। जब संन्यास लिया,तब  उनकी उम्र 29 साल थी। वह कपिलवस्तु के राजकुमार थे। अच्छे पढ़े- लिखे थे, उन्हें दर्शन के सिद्धांतों  का गहरा ज्ञान था।  इसके अलावा वह शस्त्र विद्या में प्रवीण थे, धनुर्विद्या में उन्हें महारथ हासिल था। उन्हें स्वयंवर में देखकर यशोधरा मोहित हो गई थीं। फिर भी अर्जुन की तरह निशाना साधने के बाद ही उनका विवाह हुआ। उनके एक पुत्र भी हुआ, राहुल । बीस वर्ष की उम्र में वह शाक्य संघ के सम्मानित सदस्य बन गए। यह शाक्य संघ ऐसे ही था जैसे मौजूदा समय में लोक सभा। कपिलवस्तु में इसके लिए बड़ा सभागार भी था। इसमें निर्णय बहुमत से लिए जाते  थे। और वह राजा को मानने होते थे। यानि राज-काज के निर्णयों में गौतम बुद्ध की भागीदारी होती थी।  उनके पिता शुद्धोदन कोई बहुत बड़े राजा भी नहीं थे। वह एक तरह के बड़े जमींदार की तरह थे। वह एक हजार हल चलवाते थे।। क्या  इस तरह का कोई राजकुमार जो अपनी जिंदगी के 28 वसंत देख चुका था, वह  इस बात से परिचित नहीं होगा कि जन्म है तो मृत्यु होगी, जवानी है तो बुढ़ापा आएगा और स्वस्थ शरीर बीमार भी पड़ता है? जाने कितने ही लोगों को उन्होंने मरते, वृद्ध और बीमार होते देखा होगा। उनके समय में कई युद्ध भी हुए होंगे। शस्त्र विद्या में तो सबसे पहले यही सिखाया जाता है कि सामने वाले को मारना है। फिर कैसे मान सकते हैं कि इन्हें देखकर उनका मन दुनिया से भंग हो गया? 

उनके संन्यास लेने के पीछे असल कारण दूसरा था। डा. भीमराव अंबेडकर ने ‘बुद्ध और उनका धम्म’ नामक पुस्तक लिखकर इस बात से पर्दा उठाया। यह पुस्तक उन्होंने अपने देहावसान से कुछ पहले ही बौद्ध धर्म का पूरी तरह अवगाहन करने के बाद लिखी  लेकिन वह प्रकाशित उनकी मृत्यु के बाद  अंग्रेजी में 1957 में और हिंदी में 1961 में हो सकी। डा. अंबेडकर के अनुसार उनके संन्यास लेने का कारण उपरोक्त में से कोई नहीं था। असल और मुख्य कारण मामूली सी बात को  लेकर किए जाने वाले युद्ध को रोकना था।  इतिहास गवाह है कि बुद्ध के बौद्ध धर्म के कारण दुनिया में जाने कितने ही युद्ध होने से बच गए। सम्राट अशोक ने तो कलिंग युद्ध के बाद कोई युद्ध नहीं किया, केवल बुद्ध धर्म का प्रचार किया। उनके परवर्ती मौर्य शासकों ने भी युद्धों से परहेज किया। प्रधानमंत्री मोदी जब  पूरी दुनिया से यह कहते हैं कि हमारे पास बुद्ध हैं तो उनका इशारा इसी ओर है।

‘बुद्ध और उनका धम्म’ पुस्तक के अनुसार हुआ यह था। एक दिन शाक्य  संघ के अधिवेशन  में सेनापति ने पड़ोसी  कोलीयों के राज्य पर हमला करने का प्रस्ताव रखा। कोलिय और कपिलवस्तु के बीच रोहिणी नाम की नदी थी। इसके पानी के इस्तेमाल को लेकर अक्सर दोनों राज्यों के लोगों  में झगड़ा हो जाता था। कुछ दिन पहले हुए झगड़े में कई लोग घायल हो चुके थे। सेनापति  गुस्से में थे, उनका प्रस्ताव था कि इस झगड़े का स्थायी समाधान कर लेते हैं। राजकुमार गौतम बुद्ध ने इस प्रस्ताव का विरोध किया। उनका कहना था कि युद्ध में खून- खराबा होगा, क्यों न आपस में बैठक कर बातचीत से समस्या का हल कर लें? आखिर दोनों राज्यों के बीच रोटी-बेटी के भी संबंद्ध है। बुद्ध की मां भी कोलिय थी। इस पर सभा का अभिमत लिया गया जो बुद्ध के पक्ष में आ गया। 

इसके बाद सेनापति ने फिर पूरी तैयारी के साथ युद्ध के लिए प्रस्ताव रखा। उन्होंने अनेक तर्क दिए और कहा कि कोलियों को जब तक कठोर दंड नहीं दिया जाएगा, उन्हें चैन नहीं मिलेगा। सेनापति अपनी बात को मनमाने के लिए अड़े थे।  उन्होंने अपने प्रभाव का पूरा इस्तेमाल किया। बुद्ध ने फिर विरोध किया।  पर इस बार बहुमत सेनापति के पक्ष में चला गया। यानि युद्ध का प्रस्ताव पारित हो गया। शाक्य संघ की अगले दिन फिर सभा बुलाई गई, जिसमें युद्ध के लिए लोगों से नाम मांगे गए। इसमें सभी शाक्य परिवारों से 20 से 50 साल के लोगों का युद्ध में शामिल होना अनिवार्य था। बुद्ध ने इसका भी विरोध किया। पर अब उनके पास शाक्य संघ के नियमों के तहत केवल तीन ही विकल्प थे- एक युद्ध में शामिल होना, दूसरे फांसी पर लटकना या देश निकाला होना और तीसरे परिवार का सामाजिक बहिष्कार, जिसमें उनके खेत छीने जा सकते थे।

बुद्ध ने इस पर स्वेच्छा से संन्यास ले लिया। सभा में सन्नाटा छा गया। राजकुमार के इस तरह संन्यास पर जाने से कपिलवस्तु की स्थिति कमजोर जान पड़ोसी राज्य हमला कर सकते थे, लिहाजा सोच समझकर युद्ध टाल दिया गया।  यह कोई छोटा-मोटा काम नहीं था। इसके लिए बड़े दिल और हौसले की जरूरत थी, जो उन्होंने दिखाया। गौतम बुद्ध ने  संन्यास ले लिया लेकिन युद्ध नहीं होने दिया। 

इसके बाद गौतम बुद्ध ने  विभिन्न संप्रदायों के संतों के आश्रम में रहकर उनसे दीक्षा ली,  वह भृगु के आश्रम में गए। वहां तपस्या की विधि जानी।  इसके बाद आलार कालाम के आश्रम में सांख्य दर्शन का अध्ययन किया, सांस रोककर समाधि मार्ग से चित्त की एकाग्रता सीखी। फिर गया में उरुवेला के राजर्षि नेंगरी के आश्रम में तपश्चर्या  मार्ग का अभ्यास किया। कहीं भी उन्हें अभीष्ट नहीं मिला तो फिर स्वयं चिंतन-मनन किया।  एक दिन पीपल के पेड़ के नीचे बैठे थे, वहीं उन्हें बोधिसत्व की प्राप्ति हुई। उसी पेड़ को बोधिवृक्ष कहते हैं। कुछ विद्वान उन्हें विष्णु का अवतार मानते हुए भगवान बुद्ध भी कहते हैं। कई पुराणों में इस तरह का जिक्र है। लेकिन वास्तव में वे इंसान ही थे। उन्होंने इंसान से देवत्व तक की मंजिल तय की। डा. अंबेडकर ने  लिखा है कि ‘बुद्ध एक बुद्धिवादी और तर्कशील व्यक्ति के सिवाय कुछ नहीं थे’।



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