महिलाओं के सबसे बड़े पैरोकार आंबेडकर

                    

                          


भारत रत्न डा. भीमराव अबेडकर महिलाओं के सबसे बड़े पैरोकार थे। वह मानते थे कि दलितों की तरह महिलाएं भी एक दबा-कुचला वर्ग है।  महिलाओं को यह जो प्रसूति का अवकाश मिलता है, इसके आदेश उन्होंने ही कराए थे, जब वे वायसराय के सलाहकार थे। दुनिया के कई मुल्कों में महिलाओं को अभी तक मतदान और अनेक अधिकार प्राप्त नहीं हैं।  वह अंबेडकर ही थे जिन्होंने महिलाओं को मताधिकार के अलावा और अनेक अधिकार दिलवाए।  आज जो महिलाएं बड़े-बड़े पदों पर विराजमान हैं, वे सब डा. अंबेडकर की ऋणी हैं।

डा. आंबेडकर महिलाओं के लिए और भी  बहुत कुछ करना चाहते थे, जिसमें वह उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता लाना चाहते थे। इसके लिए वह हिंदू संहिता विधेयक (हिंदू कोड बिल) लाए थे।  नेहरू तो समर्थन में थे लेकिन तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद और गृह मंत्री पटेल समेत तमाम सांसदों के विरोध के कारण वे इसमें सफल नहीं हो सके। इससे वह इतने दुखी हुए कि उन्होंंने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। यदि डा. अांबेडकर की चली होती तो आज महिलाएं और सशक्त होंतीं। तब ‘महिला सशक्तिकरण’,‘ बेटी बढ़ाओ, बेटी बचाओ’ आदि किसी अभियान की जरूरत नहीं होती।  उन्होंने धारा 370 के प्रावधान का भी  विरोध किया था, इसके अलावा वह सभी के लिए समान नागरिक संहिता के लिए भी प्रयास किए। पर वह यहां भी सफल नहीं हो सके।

वह नेहरूजी द्वारा भाषा के आधार पर किए गए राज्यों के पुनर्गठन से संतुष्ट नहीं थे। वह चाहते थे, राज्य पुनगर्ठन में आबादी और संसाधनों के आधार भी विचार किया जाए। । वह उत्तर प्रदेश को 1954 में जब इसकी आबादी 6.30 करोड़ थी, तब इसे तीन या चार हिस्सों में करने के पक्ष में थे। उनका विचार था कि करीब दो करोड़ की आबादी पर एक राज्य होना चाहिए। उनकी सिफारिश को यदि अब भी मानकर उत्तर प्रदेश समेत सारे राज्यों को पुनर्गठित कर दे तो राज्यों की संख्या बेशक बढ़ जाएगी लेकिन उससे कानून व्यवस्था और विकास की रफ्तार बहुत बढ़ जाएगी। बहुत दूरदृष्टिऔर व्यावहारिक सोच थी उनकी। 

डा. आंबेडकर और गांधीजी में कई मुद्दों पर विरोधाभास था। जिस साइमन कमीशन का गांधीजी ने विरोध किया, उनके आह्वान पर पूरे देश में जगह-जगह प्रदर्शन हुए। ‘‘गो बैक साइमन’’ के नारे लगाए गए।  जिसके विरोध में लाला लाजपत राय पुलिस की लाठियां खाकर घायल हुए और चल बसे। उस साइमन कमीशन में डा. आंबेडकर शामिल थे। इसके बाद जब अंग्रेजों ने कम्युनल अवार्ड के तहत अछूतों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र के आदेश किए तो गांधीजी ने पूना की यरवदा जेल में  अवार्ड के खिलाफ आमरण अनशन शुरू कर दिया। तब डा. आंबेडकर ने ही गांधीजी के साथ पूना पैक्ट कर उनकी प्राण रक्षा की। 30 जनवरी 1948 को जब गांधीजी की हत्या की गई तो वह सबसे पहले घटनास्थल पर पहुंचने वाले नेताओं में थे।

डा. आंबेडकर उन करोड़ों नौजवानों के लिए आज  भी  एक प्रकाश स्तभ की तरह हैं और हमेशा रहेंगे, जो जरा सी मुश्किलों में हथियार डाल देते हैं।  थोड़ी सी पढ़ाई के बाद अपनी रोजी-रोटी में जुट उसी को अपनी मंजिल मान लेते हैं। डा. आंबेडकर ने पहाड़ जैसी मुश्किलों का सीना चीर कर अपनी मंजिल तय की। वह देश के सबसे पहले अर्थशास्त्री थे। विदेश के जाने-माने दो विश्वविद्यालयों से पीएचडी और डीलिट के बाद उन्हें प्रोफेसर की नौकरी मिल ही गई थी, काफी प्रतिष्ठा थी, फिर भी वह आगे बढ़े और बढ़ते रहे। उन्होंने कानून की डिग्री हासिल की जिसमें एलएलडी और डीलिट  और बार एट लौ की उपाधि ली। यही नहीं उन्होंने एमएससी की, पीएचडी और डीएससी भी की।  वह जिंदगी भर पढ़ते और डिग्रियां हासिल करते रहे। वह देश के सबसे ज्यादा पढ़े- लिखे और काबिल लोगों में से थे। बेशक वह देश की पहली सरकार में कानून मंत्री भर रहे लेकिन उनकी पहचान देश के किसी भी लोकप्रिय राष्ट्राध्यक्ष से कम नहीं है। 

कभी-कभी  लोग डा. भीमराव आंबेडकर की प्रतिमाओं को तोड़ देते हैं तो कभी उनकी मृत्यु के बारे में अर्नगल प्रचार करते हैं। यह सब उनके कद को छोटा करने और समाज में विभेद के लिए किया जाता है।  वास्तव में उनका कद इतना बड़ा है और लगातार बड़ा हो रहा है कि कोई कुछ भी करे, उनकी इन हरकतों से उनके व्यक्तित्व पर कोई फर्क नहीं आना है। उल्टे जब उन्हें हकीकत का पता चलेगा, तो पछताना पड़ेगा। वह अंतरराष्ट्रीय स्तर की शख्सियत थे।  वह युग पुरुष थे, ऐसे लोग सदियों में कभी-कभी आते हैं। 




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