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Showing posts from April, 2015

भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख

              डा. सुरेंद्र सिंह केंद्रीय कैबिनेट ने भ्रष्टाचार निरोधक कानून में सशोधन कर यह संकेत देने का प्रयास किया है कि वह भ्रष्टाचारियों के खिलाफ है, उन्हें कड़ा दंड देना चाहती है ताकि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाकर भ्रष्टाचारियों को हतोत्साहित किया जा सके। इसके तहत भ्रष्टाचारियों को सात साल तक और न्यूनतम छह माह से बढ़ाकर तीन साल की सजा का प्रावधान कर दिया है। यही नहीं, भ्रष्टाचार के मामले अब दो साल में निस्तारित किए जाएंगे जबकि अब तक औसत ऐसे केसंों के निस्तारण में आठ साल का समय लग रहा था। कोई दो राय नहीं कि  भ्रष्टाचार के मामले में मोदी सरकार के इरादे नेक हैं। वह वैसे भी आये दिन भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलते रहते हैं। व्यकिगत तौर पर तो वह सर्वथा बेदाग हैं,  पर सवाल यह है कि क्या इतने भर से भ्रष्टाचार पर अंकुश लग पाएगा? याद रहे कि बलात्कार की घटनाएं रोकने के लिए इससे भी अत्यधिक कड़े प्रावधान किए गए हैं। बलात्कार के दोषियों को न केवल आजीवन कारावास बल्कि बलात्कार में  मृत्यु और बेहोशी में फांसी तक की सजा की व्यवस्था की गई है।  इसके साथ धड़ाधड़ आजीवन कारावास और फांसी की सजा भी सुनाई गईं।  नि:सदेह

नेताजी हैं न (4)

          डा. सुरेंद्र सिंह पुलिस अधिकारी के कार्यालय के बाहर मुस्तैदी से खड़े पुलिस कर्मी के कंधे पर नेताजी ने  हाथ रखा,-‘‘ कैसे हैं तुम्हारे साहब, कुर्सी हिल तो नहीं रही? वह विचारा क्या जबाव देता।  बिना उसका उत्तर सने-‘‘तुम्हारे को कोई तकलीफ तो नहीं? नि:संकोच बताना’’। पुलिस कर्मी गदगद, सोच रहा है कि कोई काम पड़ेगा तो नेताजी हैं न।  बाहर बहुत से लोग दूरदराज से फरियाद लेकर आए हैं। कई के चेहरे पर दिन के बारह बजे हैं। बहुत उम्मीद लेकर आए हैं, यहां तो सुनी जाएगी। पुलिस कर्मी सभी को दरकिनार कर  झट दरबाजा खोल देता है, पहले से लाइन में लगे लोग हटा दिए जाते हैं। चलो हटो। अंदर। -‘‘अरे गुप्ता जी, क्या जलबा जलाल है? गृह मंत्रीजी से परसों ही मुलाकात हुई थी, पूछ रहे थे आपके कप्तान के क्या हाल हैं। ठीक से काम कर रहे हैं न?  मैंने कह दिया,- देवता आदमी हैं,  इन जैसा अभी तक कोई अफसर न आया और न आएगा। सभी की सुनते हैं। पार्टी के लोगों का भी ख्याल रखते हैं । हां, मैं अपनी बात तो भूल ही गया’’। एक कागज निकलाते हुए, -‘‘देखो इस आदमी को आपके फलां थाने वालों ने दो दिन से पकड़ रखा है’’। निर्दोष है विचारा, यह तो स

अधिकारी हों तो ऐसे?

                 डा. सुरेंद्र सिंह भगवान रजनीश अपने एक भक्त के यहां गए। पत्नी की शिकायत- ‘‘ये तो घर में भी अफसर की तरह रहते हैं, बच्चों और नौकरों पर  ऐसे हुकम चलाते हैं जैसे अदालत में बैठे हैं।’’ अधिकारी महोदय जज थे। अधिकारी तो अधिकारी, क्या घर क्या बाहर?  एक  अधिकारी ऐसे भी हैं, उन्हें सुबह-सुबह आज ही पार्क में देखा, वह टहलते भी अफसर के अंदाज में हैं। टहलने तो और भी कई अधिकारी आते हैं लेकिन उन्हें कोई अधिकारी बताएगा तो भी लोग मानने के लिए तैयार नहीं होंगे, -अरे यह भी कोई अधिकारी हैं। लेकिन इन्हें हर कोई दूर से ही पहचान लेगा। ये हंड्रेड प्रतिशत अधिकारी हैं। चलते हैं तो हाथ में रौल, किरिच हुए कपड़े। हारसिंगार से भी उम्दा खुशबू बिखेरते हैं। पसीना आने की नौबत ही नहीं आती तब तक रूमाल दो-चार बार चेहरे पर घुमा लेते हैं। सीना और गर्दन हर वक्त तने हुए। हाथ और पैरों का सुंतलित और अनुशासित इस्तेमाल। आराम के लिए बैंच पर बैठते हैं तो भी अकड़ कर, अधिकार के साथ। लोग कहते होंगे, हे भगवान! बाकी लोग तो कोई गर्दन मटका रहा है, कोई कंधा तो कोई हाथ, पैर और कुल्हा लेकिन ये तने के तने हैं, सीधे- सतर। जब इन्हे

आइंदा भूल न करेंगे

                  डा. सुरेंद्र सिंह आदमियों की तरह भूकंप भी भांति-भांति के होते हैं। कोई भूकंप एक दूसरे से मेल नहीं खाता। न शक्ल में, न सीरत में। ऐसे ही जैसे एक दल में, एक शहर में, एक गांव में, एक परिवार में साथ रहकर भी लोगों के विचार आपस में नहीं मिलते। सुंदरता क्षण-क्षण बदलती है, वैसे ही भूकंप भी बदलते रहते हैं। कोई-कोई भूकंप संतों और भले मानुषों की तरह आते हैं, किसी को कष्ट नहीं पहुंचाते, जैसे आते हैं, वैसे ही चुपचाप बिना आहट के चले जाते हैं। कोई-कोई भूकंप डराते ज्यादा है, मैं भूकंप हूं, डरिए, मेरी सत्ता मानिए। कोई-कोई भूकंप राक्षस की तरह आते हैं, चारों तरफ तबाही ही तबाही। भूकंप राजनीति में भी आता रहता है। अटलजी एक वोट से सत्ता गंवा बैठे। यह उनके लिए भूकंप से कम नहीं था। मायावती भूकंप की तरह मुलायम की सत्ता को अपदस्थ कर सत्ता में आईं। अखिलेश ने भूकंप की तरह बदला ले बाप की सत्ता को वापस ले लिया। मोदीजी ने भूकंप की तरह सारे विरोधियों को चारों चित्त कर दिया। अरविंद केजरीवाल ने भूकंप की तरह दिल्ली में उन्हें हिला दिया। सारे भूकंप अचानक आते हैं लेकिन अपवाद के तौर पर कुछ भूकंप गा बजा कर

अब तो जग जाइए

                   डा. सुरेंद्र सिंह अब किसका इंतजार है। खतरा बहुत निकट आ गया है। ताजा भूकंप ने  उन स्थानों पर भी तबाही मचाई है, जहां पहले ऐसा नहीं हुआ। भूकंप का इतिहास कभी दोहराता है तो कभी नहीं। इसलिए अब तो बनाइए भूकंपरोधी भवन। इसके लिए अब इंतजार किसका? जाहिर है कि प्रकृति के बहुत से रहस्यों की तरह भूकंप भी अभी अबूझ पहेली की तरह है। इसकी न भविष्यवाणी संभव है और न इससे होने वाले नुकसान का आकलन। भूकंप रोज आते हैं, हर मिनट पर आते हैँ। बहुत से भूकंप चुपचाप गुजर जाते हैं बहुत से भूकंप तबाही मचा देते हैं। इस तरह भूकंप कब कहां आएगा, यह कोई नहीं जानता। १९९१ में उत्तरकाशी में आए भूकंप से ४२४०० मकान ढहे। इसने उत्तर भारत के लोगों का कुछ ध्यान खींचा। इसके बाद गुजरात के कच्छ क्षेत्र में १६ जनवरी २००१ को सुबह ८.४५ पर ७.७ रिक्टर पैमाने पर आए भूकंप ने हमें जगाया। इसमें २० हजार लोगों की जानें गई, करीब चार लाख लोग मरे। इसके बाद ध्यान आया कि हमें भूकंपरोधी भवन बनाने चाहिए। तब महानगरों में भूकंपरोधी भवन बनाने के लिए इंजीनियरों को प्रशिक्षण दिए गए। बड़े अधिकारियों ने फालतू बैठे इंजीनियरों को प्रशिक्षण दि

रुक सकेगी फसल की बर्बादी

       डा. सुरेंद्र सिंह प्राकृतिक आपदा के कारण हुई फसल की तबाही के बाद किसानों पर राजनीतिक महाभारत शुरू हो गया है। सबसे ज्यादा हलचल दौसा (राजस्थान) के गजेंद्र सिंह की दिल्ली में हुई आत्महत्या को लेकर मची है।  पर मौत तो मौत है, चाहे देश की राजधानी में पेड़ पर लटक कर आत्महत्या की जाए या फिर  दूरदराज के किसी गांव में चुपचाप जान दे दी जाए। कोई इसके लिए नेताओं को कोस रहा है तो कोई सरकारों को। कोई इसके लिए आपदा राहत कानून बदलने और मुआवजे की राशि बढ़ाने पर जोर दे रहा है तो कोई सभी किसानों का बीमा करने पर।  ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ की तरह तमाम सुझाव और शिकायतें हैं लेकिन कोई यह नहीं कह रहा कि हर साल होने वाली इस बर्बादी को रोकिए, मुआवजे से क्या होगा? किसानों को मरने से बचाइए। कोई ऐसा काम नहीं है जिसे न किया जा सके। सरकारों का इतना कुल बजट नहीं है कि उससे किसानों की वास्तविक क्षति की भरपाई की जा सके। फिर मरने वाले आदमी को कौन जिंदा कर सकता है? ठीक है प्राकृतिक आपदा को रोका नहीं जा सकता लेकिन उससे होने वाली क्षति को रोका जा सकता है। बरसों पहले खेती की सिंचाई गूल बनाकर की जाती थी। जितना पानी खेतो

‘भूसा खाओ सेहत बनाओ’

                      डा. सुरेंद्र सिंह समय के साथ सेहत और खानपान के पैमाने बदलते रहते हैं। किसी जमाने में घी स्वास्थ्य के लिए सबसे ज्यादा लाभप्रद था। महर्षि चर्वाक ने यहां तक कहा है-‘ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत’ अर्थात कर्ज लेकर भी घी पिओ। नाते-रिश्तेदारों से  लेकर देवताओं को प्रसन्न,दीपक जलाने से लेकर भोग लगाने तक घी  ही चाहिए, ।  घी है तो सबकुछ और घी नहीं है तो सब ‘गुड़गोबर’। भगवान श्रीकृष्ण के समय में मक्खन को सबसे बेहतर माना गया। मक्खन घी का ही एक अपरिष्कृत रूप है। नए जमाने में घी भोजन से ऐसे गायब है जैसे- ‘गधे के सिर से सीग’। लोग इसके नाम से ऐसे विदकते हैं जैसे सांप से। -‘‘घी है’’, -‘‘ना बाबा ना हटाओ, हटाओ’’।  हरी सब्जी, मौसमी फल तो उपयोगी हैं ही। बिना छने आटे की रोटी,  मिनरल वाटर, आयोडीनयुक्त नमक भी सेहत के लिए रामबाण कहे जाते हैं। मट्ठा जिसे पहले लोग जानवरों को पिलाना पसद करते थे, अब आदमियों ने उनसे छीन लिया है। यदि पढ़े लिखों की जमात में बीस गिलास घी पड़े दूध के और इतने ही मट्ठे के रखें हों तो लोग पहले मट्ठे पर टूट पड़ेंगे, दूध को दूर से देकर नमस्कार कर लेंगे। लोग आगे चलकर यह कहने लगें

हिंसा से अहिंसा की ओर

                  डा. सुरेंद्र सिंह दुनिया मुख्यत: दो तरह के लोगों की है। एक जिनका भरोसा हिंसा पर और दूसरे जिनका भरोसा हिंसा की बजाय इंसानियत, दया, परोपकार, सेवा पर है। हजारों साल पहले धरती पर पहली तरह के लोग बहुतायत में थे। उनके ये गुण उन्हें जानवरों से ज्यादा अलग नहीं करते । दूसरी प्रकार के लोग पहले भी थे लेकिन उनका बर्चस्व कम ही था। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी।  अपने देश में चाहे राम रावण के युद्ध का मामला हो या महाभारत, ये अहिंसा के लिए हिंसा से लड़े गए। । पहले प्रकार के लोगों का बर्चस्व होने के कारण ही बड़े पैमाने पर नरसंहार हुए। दूसरे मुल्क भी इसका अपवाद नहीं हैं। तीर और तलवार के बल पर यह दुनिया सदियों तक चलती रही है। सम्राट अशोक के समय में भी खून खराबा खूब रहा लेकिन उसी  दरम्यान दूसरी विचारधारा को भी बल मिलना शुरू  हुआ। इसमें काफी योगदान बु्द्ध का रहा । उन्होंने युवराज रहते पड़ोसी  कोलिय राज्य पर हमला रुकवा कर यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि दुनिया अहिंसा के जरिए  ज्यादा खुश और सुखी रह सकती है। तब से दुनिया में बहुत उतार-चढ़ाव आए।  विदेशों से आकर भी लोगों ने तलवार और बारूद के ब

नेताजी हैं न (३)

                 डा. सुरेंद्र सिंह राजनीति में राजनीति सत्तारुढ़ दल की, नौकरी में नौकरी आईएएस की, धंधे में धंधा प्रोपर्टी का धंधा। दसों उंगलियां घी में। पहले उत्तम खेती, मध्यम बान था, अब यह। खेती और प्रोपटी में जमीन आसमान का अंतर है। प्रोपर्टी होती तो जमीन पर ही है लेकिन खेती वाले धूल फांक रहे हैं, आत्महत्या कर रहे हैं,  प्रोपर्टी वाले आसमान चूम रहे हैं। सारे जहां की सुविधाएं उनके कदमों में। पैसा ऐसे बढ़ता है जैसे गरीब की लड़की,  इंजेक्शन लगी लौकी। सायं को चोइया सी और सुबह डेढ़ फीट लंबी। इसलिए इस शुभ कार्य से नेताजी क्यों दूर रहें।  नेतागीरी चाहे जिस दल की करें लेकिन प्रोपर्टी के धंधे में सब एक। भाई नेतागीरी बहुत महंगी हो गई है, दक्षिण के एक नेता ने यूं ही नहीं कहा - ‘‘अब यदि गांधीजी होते तो वह भी बिना पैसे के राजनीति नहीं कर पाते’’। ‘हमाम में सब नंगे’। बड़े नेता का बड़ा कारोबार, करोड़ों का टर्नओवर, उनसे छोटों का लाखों का। जिनकी हैसियत इससे भी कम हैं वे प्रोपर्टी बिकवाने, खरीदवाने का कार्य कर रहे हैं।  चूंकि जमाना विषमता पार्टी का है इसलिए इस चोखे धंधे पर सबसे पहला, ज्यादा और  जन्मसिद्ध अधिक

नेताजी हैं न (२)

            डा. सुरेंद्र सिंह नेताजी की अपनी स्टाइल है। सब कुछ स्टाइल से करते हैं, खाना भी स्टाइल से खाते हैं, पानी भी स्टाइल से पीते हैं। कार्यकर्ताओं से बात करने की भी स्टाइल है, -‘‘अरे क्या हो रहा है मेरे शेर’’। तेरे पर मुझे बहुत नाज है। तू इस पार्टी के लिए होनहार बनेगा’’। -‘‘नेताजी आपकी कृपा के बिना कुछ नहीं हो सकता’’। -‘‘चिंता क्यों करता है, हम हैं न। तुम्हारा ख्याल नहीं रखेंगे तो किसका रखेंगे?  -अब जरा उधर चलो’’। दूसरे को बुलाकर-‘‘तू तो मेरा शेर है। तेरे पर मुझे बहुत भरोसा है ’’। -‘‘नेताजी आपका सेवक हूं। पढ़ा्ईृ-लिखाई छोड़ आपकी ही सेवा में हूं’’। -‘‘क्यों चिंता करता है। हम हैं न। नौकरी में क्या रखा है, हमारे साथ रह। जिंदगी बदल जाएगी।’’  जंगल में एक ही शेर रहता है लेकिन नेताजी ने जाने कितने शेर पाल रखे हैं, वही जानें। डाक्टर के यहां भीड़ लगी है, मरीजों की। कई की हालत गंभीर है। कोई-कोई पंखा झल रहे हैं, मरीज को कुछ तो आराम मिले। कोई-कोई मरीज को सांत्वना दे रहा है वश, अब नंबर आने ही वाला है। कोई मोबाइल फोन पर टाइम देखकर कोस रहा है कि साला... तीन घंटे हो गए अभी तक नंबर नहीं है। कोई-कोई

नेताजी हैं न

       डा. सुरेंद्र सिंह ये पार्टियां भी मौसम की तरह आती-जाती रहती हैं। कभी किसी का वक्त तो कभी किसी का। सदा मौसम कहां एकसा रहता? एक जमाने में कांग्रेस तो थी ही लेकिन तूती युवक कांग्रेस की बोलती थी, कहीं भी आते-जाते  छोटी-मोटी बातों को लेकर दे दनादन दे दनादन। रेलगाड़ी में बेटिकट पकड़े जाएं तो हंगामा, पानी नहीं हो तो हंगामा। लेकिन अब कोई ऐसी चीजों के लिए झगड़ेगा तो उसे चिलमचोट्टा समझ पार्टी से फौरन बाहर कर देंगे, ‘‘फटीचर कहीं का..  रेल टिकट के लिए पैसे नहीं हैं, चला है नेतागीरी करने....’’।  जमाना बदला है। तो कोई अकेले नहीं बदला। सबके साथ बदला है। पार्टियां भी बदल गई हैं, नेता और कार्यकर्ता सब बदल गए हैं।  लोग बड़ी-बड़ी कारों में रुतबे के साथ चलते हैं। बीजेपी वाले चाहें तो कह सकते हैं यह ‘अच्छे दिनों’ का प्रमाण है। लेकिन विषमता पार्टी वाले ऐसा कहने दें तब न। हाथ डालकर हलक में से निकाल लेंगे, उनकी चीज को कोई कैसे हजम कर सकता है।  आजकल सबसे ज्यादा रुतबा इसी पार्टी का है। उनकी कारों पर पार्टी के  झंडे ऐसे लहराते है, जैसे अश्वमेघ यज्ञ की कीर्ति पताका। उसकी सरकार है कोई हंसी खेल नहीं। नेताजी के म

हनीमून से हनीमून तक

          डा. सुरेंद्र सिंह ये अपने बाबा रामदेव भी क्या खूब हैं। या तो इन्हें याद नहीं रहता कि पहले उन्होंने किसी से क्या कहा था या फिर वह अपनी बात पर स्थिर नहीं रहते।  कभी कुछ कहते हैं तो कभी कुछ, पल में राई पल में पहाड़।  या फिर इन्हें किसी की परवाह नहीं, उनकी बला से। ये तो ‘मस्त मस्त हैं मस्त’। बीजेपी वाले जरूर सूंघ रहे होगे कि बाबा को क्या सांप सूंघ गया है सो इस उम्र में बहकी-बहती बात कर रहे हैं। साठ बरस के तो नहीं हुए पर सठिया गए हैं क्या? वरना यह कहने की क्या सूझी थी-‘‘राहुल विपक्ष का नेतृत्व करें, विपक्ष न हो तो सत्ता निरंकुश होती है।..इसलिए अब उन्हें पार्टी की कमान सौंप देनी चाहिए’’। या फिर वह यह सब जानबूझ कह रहे हैं कि ताकि कमजोर के हाथ में विपक्ष की बागडोर रहेगी तो विपक्ष कायदे से पनप ही नहीं पाएगा। मोदीजी निदर््वंद्व होकर राज कर सकेंगे। कुछ न कुछ ‘दाल में काला’ जरूर है, पूरी दाल भी काली हो सकती है वरना ऐसा नहीं हो सकता कि धरती और आसमान एक हो जाएं। कांग्रेस वालों ने बाबा के साथ क्या-क्या सलूक नहीं किया- ‘मार दिया जाए या छोड़ दिया जाए’। यह वही कांग्रेस है जिसकी सरकार ने उन्हें 

राहुल भैया आए हैं...

          डा. सुरेंद्र सिंह चिरकुटो, लो आ गए राहुल भैया। आ गए ना, हम पहले ही कह रहे थे, हम कोई झूठ थोड़े ही बोलते हैं। जो पहले चुप साधे बैठे थे और भगवान से मन ही मन प्रार्थना कर रहे थे कि राहुल नही आएं, वे भी लगे हाथ बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं- ‘ मिले सुर में सुर हमारा तुम्हारा ..’ राहुल जरूर आएंगे। सो आ गए। यह समय खुशियां मनाने का है। आतिशबाजी करने से लेकर मिठाइयां बांटने और अखबारों में स्वागत कार्यक्रम छपवाने का है। जो जितना छप पाएगा, वह उतना ही बड़ा नेता। आपदा से मरते रहें किसान, उनकी बला से, किसान कोई  पार्टी में पद और तो टिकट नहीं दिलवा सकते। वैसे भी किसानों ने मोदी को वोट दिए हैं, उन्हीं के पास जाएं, हमारे पास क्या धरा है? अपना तो सीधा सा गणित है,  भैयाजी की कृपा चाहिए। वे ही किसानों से निपट लेंगे। देखो आते ही छक्का जड़ दिया- ‘‘भूमि अधिग्रहण विधेयक और किसानों के मुद्द््े पर निर्णायक लड़ाई लड़ेंगे। जरूरत पड़ी तो लोकसभा में भी बोलेंगे’’।  हमें तो हमारे भैया ही भले। उनकी कृपा है तो सबकी कृपा। ‘हमारे तो गिरिधर गोपाल’ वही हैं, दूसरा न कोई। फिर ‘अपना हाथ जगन्नाथ का भात’।  एक वही हैं, जो उ

इनकी तो जैसे-तैसे कट जाएगी...

डा. सुरेंद्र सिंह लोग खामखां आजम खां के पीछे पड़े हैं, राजनीति के ऐसे शूरवीर योद्धा गिने-चुने और युगों-युगों में होते हैं। ढूढ़ो, एक भी मिल जाए, पूरी सपा में सिर्फ एक, इसलिए पार्टी इनके सामने दम साधे खड़ी रहती है। यह अकेला ऐसा बंदा है जो अरबों पर भारी है। एक तरफ सारे राजनीतिज्ञों की फौज खड़ी कर दो, बड़े-बड़े काबिल धुरंधरों को कतार में लगा दो, चाहे जितनी भी साजिश कर लो, जीत शर्तिया आजम की ही होगी, ‘अशोका’ के अशोक की तरह। मीडया  आजम के पीछे ऐसे चलता है जैसे..... क्वार में कुत्ते। सूंघते रहते हैं, कब कहां जा रहे हो जनाब। लाख उनको गाली दे लो-‘मीडिया धंधेबाज है, धंधा चलाने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है’।  फिर भी सबको आजम खां ही चाहिए। आजम खां में ही वह काबिलियत है जो मुर्दे को जिंदा कर सकती है। उसी में वह हुनर है जो पहले पेज पर छा सकता है। वही बहस चलवा सकता है, वही बयान के लिए मुद्दा दे सकता है। इसलिए चतुर से चतुर रिपोर्टर लगाए जाते हैं। बयान टेप कराए जाते हैं। ताकि एक भी शब्द मिस नहीं हो। उन्हीं में यह हिम्मत है, वही कह सकते हैं- ‘हमारी बीबी क्लब नहीं जा सकतीं, उनकी दोस्त नहीं होंती, इसलि

जोर कितना बाजुए कातिल में है...

डा.सुरेंद्र लिंह वैसे हर बनने के बाद टूटना, बिखरना एक नियति है। बने हैं तो टूटेंगे ही, जैसे- हर जीवन के बाद मृत्यु। यह अंतिम सत्य है। कोई परिवार बना है तो टूटेगा ही चाहे लाख कोशिश कर लो। एक को मनाओ तो दूसरा रूठ जाएगा और दूसरे को मनाओगे तो तीसरा और तीसरे को मनाओगे तो पहला रुठ जाएगा। कोई पार्टी बनी है तो टूटेगी ही। यह भी कह सकते हैं कि वह टूटने के लिए बनी है।  टूटकर फिर से वह ज्यों का त्यों जुड़ जाए, यह असंभव। कभी नहीं हुआ तो अब कैसे होगा? देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस में कितने बिखराव हुए हैं, यह कांग्रेस वालों को भी याद नहीं। शास्त्रों की बात गलत थोड़े ही है।  खूब जोड़ो फिर भी गांठ रह ही जाती है। हड्डी तोड़कर देख लो, सरिया डालनी पड़ेगी। पैसे पूरे चले जाएंगे लेकिन जोड़ फिर भी हर जाएगा।। सर्दियों में जोड़ों में दर्द भी होगा।  टूटने के बाद जोड़ना असंभव होता है। इस असंभव को ही संभव बनाने वाले महान होते हैं, महान नेता, महापुरुष, महाज्ञानी, महाराजनीतिज्ञ आदि आदि। जैसे जनता दल परिवार के लोग एक हो गए। एक मंच पर आ गए। सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव इसके अध्यक्ष बनाए गए हैं।  एकाध दिन में पार्टी का  एक

वर्षा रानी बड़ी सयानी

                 डा. सुरेंद्र सिंह बेमौसम जब कोई सब्जी आती है तो उसकी कद्र बहुत ज्यादा होती है। बरसात के दिनों में लौकी  फिकी-फिकी फिरती है, जानवर तक सूंघ कर हट जाते हैं। वही लौकी सर्दियों में ६०-७० रुपये किलो तक बिक जाती है। लोग पड़ोस में बताते फिरते हैं आज तो लौकी बनी है। बहुत से लोगों को बेमौसम तरकारी ज्यादा भाती है, इसकी शान ही अलग है। चाहें तो इलेक्ट्रानिक मीडिया के पत्रकार इसके आधार पर सवाल कर सकते हैं कि बेमौसम बरसात के लिए इतनी हायतौबा क्यों? ‘समरथ को नाहिं दोष गुसाईं’।  वर्षा वर्षा है। देवी की तरह इसके भी रूप अनेक हैं। वर्षा जीवन है, अमृत है, अर्थव्यवस्था है, प्राणों का संचार है, खजाना है। तकलीफ है, मौत भी है। यह होनी भी चाहिए और नहंीं होनी चाहिए। यह हंसाती है, सरसाती है, सुख देती है, दु:ख देती है, रुलाती भी है। यह आबाद करती है, बरबाद कर देती है। वर्षा सतत परिवर्तनशील है, कहीं-कहीं रात-दिन होती है,  कहीं-कहीं सपने की तरह आती है। कहीं-कहीं कायदे कानून से आती हैं तो अनेक जगह कायदे कानून तोड़ती रहती है। इसका न कोई नियम है और न ईमानधरम। यह निष्ठुर है, इसे किसी के प्रति दया नहीं है,

मुआवजे का महाभारत

                     डा. सुरेंद्र सिंह एक महाभारत व्दापर में हुआ, वह १८ दिन हुआ और खत्म हो गया। इसके बाद तमाम तरह के कभी न खत्म होने वाले महाभारत शुरू हो गए हैं,  आए दिन होते ही रहते हैं, यदि नहीं होंं तो लगता है, कुछ हुआ ही नहीं। अभी कुछ महीने पहले चुनाव का महाभारत था, कभी संसद में तो कभी विधान सभाओं में महाभारत होते ही रहता है। गांव-गांव और नगर-नगर महाभारत ही महाभारत हैं। आजकल किसानों के मुआवजे पर महाभारत चल रहा है।  एक तरफ के योद्धा तीर चला रहे हैं- ‘‘इससे कुछ नहीं होगा इतने से चेक भुनाने का किराया- भाड़ा और एक खीरा खाया जा सकेगा। दूसरी तरफ से तीर कम मुआवजे की राशि पर लेखपालों को सस्पेंड करके विरोधी तीरों को निष्प्रभावी किया जा रहा है। फिर इधर से धरना प्रदर्शन की अमोघ शक्ति चलाई जाती है तो उधर से केंद्र को एक हजार करोड़ की मांग का पत्र भेजने का ब्रह्मास्त्र। ‘‘लाओ दिलवाओ, ज्यादा बांट देंगे’’। मुआवजा काफी महत्वपूर्ण चीज है। यह मुनाफा है, प्रतिफल है, भरपाई है,  व्यवसाय है, राजनीति है, जय और पराजय है। दु:खदायी है। बीमारी है, मौत है। क्लेश है। लेखपाल तो वेचारे बुरे फंस गए, कमाई के सारे क

असहजता से सहजता की ओर

                  डा. सुरेंद्र सिंह किसी से छुपा नहीं है कि भारत और जर्मनी के संबंध पुराने होने के बाद उतने सहज नहीं हैं, जितने कि अमेरिका, जापान आदि देशों से हैं। इन असहज संबंधों को सहज बनाकर जर्मनी के निवेशकों का विश्वास हासिल करने और जर्मनी से अपने कारोबारी संबंध बढ़ाने की प्रधानमंत्री मोदी के सामने अहम चुनौती है। दुनिया के सबसे बड़े औद्योगिक मेले हनोवर मेसे में भारतीय पवेलियन का मोदी से उद्घाटन करने गए प्रधानमत्री नरेंद्र मोदी ने संदेश दिया है कि अब स्थितियां बदल रही हैं। भारत  पूरी दुनिया का मैन्युफैक्चरिंग हब बनने की क्षमता रखता है। उन्होंने जर्मनी समेत सारे देशों को इसके लिए भारत आकर भागीदारी करने के लिए आमंत्रित किया है। लेकिन इसका कौन ज्यादा फायदा उठाएगा? भारत, या जर्मनी? यह भविष्य बताएगा। मोदी ने अपनी इस यात्रा में देश की चार सौ भारतीय कंपनियों, १२० अधिकारियों के साथ शिरकत की। जर्मनी के भी हजारों औद्योगिक प्रतिनिधियों के सामने बात रखी। जिसमें अपनी सरकार की प्रतिबद्धताएं, निवेश के लिए अनुकूल माहौल पैदा किए जाने की बातें कहीं गयीं। कहने की जरूरत नहीं कि जर्मनी ने प्रथम विश्वयुद्

पुरस्कार

                                     डा. सुरेंद्र सिंह जब से कई श्रीमानों को पुरस्कार मिलने की सुनी है, मेरे मन में सांप लोटने लगे हैं। इतने साल हो गए समाज सेवा करते, कलम चलाते, शरीर भी साथ छोड़ रहा है लेकिन झूठे को भी पुरस्कार नहीं मिला। यार-दोस्त, मिलने वाले, रिश्तेदार सभी टोकते हैं, तुम्हारे इस किए से क्या लाभ? एक छोटा सा भी पुरस्कार तक नहीं पा सके। उदाहरण देते हैं, देखो, फलां को पुरस्कार पर पुरस्कार मिलते जा रहे हैं। तुम किसी से कम थोड़े ही हो। अब तो घर से निकलने, लोगों का सामना करने की भी हिम्मत नहीं पड़ती। लोग तो कहते हैं, दिन में तारे दिखाई देते हैं लेकिन मुझे रात दिन पुरस्कार ही पुरस्कार दिखाई देते हैं। हर वक्त दिमाग पुरस्कारों में घूमता  है। लगता है कहीं पागल नहीं हो जाऊं। सपने भी पुरस्कार के ही आते हैं। कभी पुरस्कार चयन समिति द्वारा आवेदन खारिज करने तो कभी पुरस्कार मिलने के। राष्ट्रपति पुरस्कार दे रहे हैं, मैं लोगों की तरफ सीधी निगाह करके ऐंठते हुए देख रहा हूं, देखो टुच्चियो, मिल रहा है मुझे भी पुरस्कार। सबेरे दोस्त के पास पहुंचा। देखो. आज सपने में तो पुरस्कार मिल गया। किसी छोट

किसानों से पहले किसानों के बाद

                 डा. सुरेंद्र सिंह ऋग्वेद में जिक्र है तब लोग खेती जोतते थे, सिंचाई करते थे, जमीन में फल और सब्जी आदि उगाते थे। सिंधु घाटी की सभ्यता में भी तत्समय चावल और खपास आदि की खेती किए जाने का उल्लेख है।  यह कहने का तात्पर्य इतना भर है कि सभ्यता का उदय खेती के साथ हुआ। उससे पहले मनुष्य और जानवरों में बहुत ज्यादा फर्क नहीं था। २०-३० साल पहले तक कहा जाता था कि यह देश कृषि प्रधान है, ८० प्रतिशत लोगों की आजीविका खेती पर निर्भर है। किसान अन्नदाता और देश की रीढ़ है। देश की तरक्की का रास्ता उसके खेत और खलिहानों से होकर जाता है। अंग्रेजों के जमाने में किसानों की हालत बहुत खराब थी, तब किसानों की आत्महत्या की दर भी बहुत थी। तब ब्रिटिश सरकार ने एग्रीकल्चर रिलीफ एक्ट १८७९ बनाया। इसके तहत वे कपास के उन्हीं किसानों  को ब्याज माफ करने की रियायत दिया करते थे, जिस क्षेत्र में उनकी रुचि रहा करती थी। आचार्य नरेंद्र देव ने आजादी से करीब दो दशक पहले संयुक्त प्रांतीय राजनीतिक सम्मेलन के बरेली में आयोजित १९वें अधिवेशन में कहा था-‘‘खेती के टुकड़े-टुकड़े हो गए हैं, जोत टूटती जाती है और छोटे किसानों की संख

शांति के लिए खतरा

                                  डा. सुरेंद्र सिंह पाकिस्तान के आतंकी सरगना जकी उर रहमान लखवी की रिहाई न केवल भारत के जले पर नमक है बल्कि दुनिया की शांति के लिए भी खतरा है। जिस तरह से उसकी रिहाई हुई है, उसने एक बार फिर पाकिस्तान के असली चेहरे को उजागर किया है। इससे यह साबित हुआ है कि पाकिस्तान आतंकवाद को पाले रखना चाहता है। कहने की जरूरत नहीं कि लखवी भारत के लिए तो मोस्ट वांटेड है ही, क्योंकि वह दिसंबर २००८ के मुंबई आतंकी हमले के चार साजिशकर्ताओं में एक है। इसी ने अजमल कसाब के परिवार को उसके इस कृत्य के लिए डेढ़ लाख रुपये की आर्थिक सहायता दी थी। न केवल कसाब के बयान बल्कि अनेक तथ्यों से उसकी संलिप्तता प्रमाणित हो चुकी है। यह कश्मीर में आतंकी गतिविधियां चलाने वाले लश्कर-ए-तैयबा का सुपर कमांडर है। मुंबई में हमले के बाद इसी ने कहा था कि अब दिल्ली की बारी है। यह केवल भारत तक ही सीमित नहीं है। इससे पहले यह चेचन्या,  बोसनिया, इराक के संघर्षों में भी यह सक्रिय रहा है। यह न केवल पाकिस्तान में आतंकी शिविर संचालित करता है बल्कि हमलों की साजिश भी रचता है। पाकिस्तानी सेना और आईएसआई का इसे वरदहस्त

रूठे सुजन मनाइए...

                                                   डा. सुरेंद्र सिंह रूठना-मनाना भी जिंदगी का एक अहम हिस्सा है। एक तरह से यह जिंदगी का रस भी है। पत्नी पति से रूठती है तो पति उसे मनाता है और पति रूठता है तो पत्नी मनाती है। इस रूठने-मनाने से प्यार बढ़ता है। किसी से रुठना उस पर अधिकार जताना भी है। पिता बेटे से रूठता है और बेटा पिता से। पिता कितना ही निष्ठुर हो, आखिर बेटे के लिए दिल पसीस ही जाता है। उसी तरह बेटा भी। दोस्तों में रुठा-मटकी होती रहती है। दोस्ती तभी तक चलती है जब तक कि एक दूसरे को मनाते रहते हैं। यदि रुठना-मनाना खत्म कर दिया जाए तो आदमी और मशीन में क्या अंतर रह जाएगा।  रुठना और मनाना एक दूसरे के अन्योनाश्रित हैं। रूठा अपनों जाता है। यदि राहुल बीजेपी वालों से रूठ जाएं तो क्या कर लेंगे। वे तो प्रसाद बांटेंगे, भगवान से प्रार्थना करेंगे। हे भगवान! ये इसी तरह रुठे रहें ताकि इसका राजनीतिक फायदा उठाया जा सके। हर रूठने वाले को आभास होता है कि दूसरा उसे मना लेगा। वरना कोई किसी से क्यों रुठेगा? रुठना-मटकना जिंदगी में आए दिन होता रहता है। मुझे नहीं पता विदेशों में इसकी व्यवस्था है या

मान जा मेरे बाप

                                                       डा. सुरेंद्र सिंह बाप भी भांति-भांति के होते हैं। दुनिया में कोई दो जने एक जैसे नहीं हैं, सब में कुछ न कुछ अंतर है। रंग का, शक्ल का, कद का, उम्र का, अक्ल का, पद का,  देश-काल का, गांव-शहर का। बापों के उतने से भी ज्यादा भेद किए जा सकते हैं, जितने बाप नहीं हैं। लेकिन हम यहां मोटे-मोटे भेद करेंगे। गिनती नहीं बताएंगे, जिससे कि बाद में कोई नया विवाद पैदा हो। फलां ने इतने प्रकार बताए थे, आप कैसे उनसे ज्यादा बता रहे हैं। आपके प्रकार सही हैं या उनके? पहले इसी पर झगड़ लीजिए। ‘सूत न पौनी, कोरि.... के घर लट्ठमलट्ठा’। सो पहले समझदार लोगों की तरह किसी पचड़े में पड़ने की बजाय बापों की बात कर लें।  कुछ बाप गऊ की तरह होते हैं। कोई कुछ भी कह सुन ले, उनके चेहरे पर शिकन नहीं आती। जैसे खल लोगों के वचन संत सहते रहते हैं, आह तक नहीं भरते। वैसे ही ये अपने ही बच्चों, बहू-बेटियों की सुनते रहते हैं। एक बाप थे उन्होंने अपने परिश्रम से खुद तो समाज में सम्मान हासिल किया ही, अपने बच्चों को भी काबिल बनाया। महानगर में सब की अलग-अलग कोठियां, कारें और धन-संपत्ति।  पत्

हे महंगाई भत्ता देवता

                                                डा. सुरेंद्र सिंह केंद्र सरकार के कर्मियों का छह फीसदी महंगाई भत्ता बढ़ा दिया गया है। देश भर के ८० लाख से ज्यादा कर्मचारी इससे लाभान्वित होंगे। इसलिए यह वक्त खुशियां मनाने, एक दूसरे को बधाई देने का है। बेकडेट से यानि एक जनवरी से मिलेगा। जो कुछ दमित जरूरतें रह गई होंगी वे इससे पूरी हो सकती हैं। देखिए भाई, केंद्र सरकार कितनी अच्छी  है, दयावान है। महंगाई कंट्रोल नहीं कर सकती तो क्या हुआ? कहीं रुक रही है यह जो यहां रुक जाएगी। विदेशों में भी महंगाई बढ़ रही है। सरकार महंगाई कम नहीं कर सकती तो क्या, महंगाई भत्ता तो बढ़ा ही देती है। किसी को कहने का अवसर नहीं देती। इस हाथ से नहीं तो उस हाथ से सही, दे तो देती है। समय-समय पर महंगाई का बोझ कम करती रहती है। किसी भी संवेदनशील सरकार की यह पहचान है कि  चीखने-चिल्लाने से पहले ही लोगों का दर्द भांप ले।  ये कर्मचारी किसी के पापा, चाचा, ताऊ,  भइया, भाभी, मामा, नाना, जीजी, फूफा, फूफी, निकट के रिश्तेदार होंगे। खुशी तो उन तक भी पहुंचेगी। जब पकवान बनते हैं तो उनकी खुशबू पड़ोसियों के घर तक भी जाती है। यह मंहगाई भत्त

राम नाम की लूट है..

                                            डा. सुरेंद्र सिंह चाहे राम राम सा कहिए, नमस्ते, नमस्कार, जै रामजी की, चरण स्पर्श, जुहारु है, जय भीम, सलाम मालिकम, आदाब अर्ज, सभी का अभिप्राय एक ही है। ये शब्द अलग-अलग भाव भूमियों, संस्कारों, सभ्यता-संस्कृति, रीति-रिवाजों, धर्म, संप्रदायों, पूंजीवाद और साम्यवाद को अभिव्यक्त करते हैं। पर जो बात ‘राम राम’ के साथ है वह किसी के साथ नहीं। बेशक नमस्ते संस्कृत  शब्द नम:+ ते से मिलकर बना है। प्राचीन है।  नम: देवताओं से की जाती है- ऊं शिवाय नम:, ऊं गणेशाय नम: आदि आदि। लेकिन आधुनिक जमाने में ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी’। दूसरे शब्द तो इस लिहाज से उसके पासंग भी नहीं बैठते। उत्तर भारत की राजनीति में ‘राम राम सा’ का विशेष स्थान है। ग्रामीण इलाके में कोई बड़ी से बड़ी जन सभा हो, बड़े से बड़ा नेता। ‘राम राम सा’ नहीं तो कुछ नहीं, चाहे वह वायदों का पुलंदा लगा दे, सभी के बीच में अपने आदमी बैठाकर खूब तालियां बजवा ले, जनता के सामने अपनी जान निकाल कर रख दे। ‘राम राम सा’ नहीं तो कुछ नहीं।  राम राम सा दावत में रसगुल्ला की तरह है, चाहे कुछ भी खा लो ले

रेलगाड़ी की सवारी

                                            डा. सुरेंद्र सिंह सवारी हो तो रेलगाड़ी की वरना पैदल या अपनी खटारा मोटर साइकिल ही भली। कहीं भी चले जाओ, बेरोकटोक।  रेलगाड़ी अपनी लेटलतीफी और एक्सीडेंटों के कारण बदनाम भले रही है। एक बार एक अखबार में कार्टून छपा-‘‘मानसून फिर लेट रेलगाड़ी की तरह’’। फिर भी रेलगाड़ी रेलगाड़ी है। रेलगाड़ी केवल सवारी ही नहीं, यह पूरा जीवन दर्शन है। मुसीबत की साथी है, स्टेटस सिंबल है, रोजगार का माध्यम है। बेसहारों का सहारा है। कमाई का भी जरिया है। इसकी जितनी तारीफ की जाए, वह कम है। इसकी तारीफ में लिखना सूरज को दीपक दिखाना सरीखा है। यह अपने समाज का असली आईना है। फर्स्ट क्लास में  बैठा  आदमी अपने को पुराने जमाने के किसी नबाव से कम नहीं समझता। एसी सेकंड क्लास के आदमी के भी नखरे होते हैं। एसी थर्ड क्लास  अपने सामने जनरल वालों को कुछ नहीं समझता, कीड़े मकोड़े की तरह। फर्स्ट क्लास, एसी सेकंड क्लास और थर्ड क्लास वाले गर्व के साथ ट्रेन से उतरते हैं। अपना सामान खुद नहीं उठाते, जबकि सेकंड क्लास टू टायर और थ्री टायर वाले निष्काम भाव से यात्रा करते हैं, ये कुली की सेवा तभी लेते हैं जबकि

चंद्रग्रहण से लाभ-हानि

                                 डा. सुरेंद्र सिंह जब हर चीज के फायदे- नुकसान हैं तो चंद्रग्रहण के क्यों नहीें? यह भी कोई पूछने की बात है? चंद्रग्रहण से मेरा वास्ता शनिवार को सुबह तब पड़ा जबकि श्रीमतीजी ने चिल्लाना शुरू कर दिया, जल्दी- जल्दी नहाओ। मुझे बारह बजे से पहले खाना खाने पर मजबूर कर दिया। कहां तीन बजे खाने वाला कहां १२ से भी पहले। बेमन से कौर निगले। श्रीमतीजी का कहना था-‘‘चंद्रग्रहण है, सुन रहे हो, नौ घंटे के सूतक हैं। इस दौरान खाना नहीं मिलेगा’’। सचमुच उसने रसोई से ताला लगा दिया, न चाय, न पानी, न और कुछ। इसके बाद मंत्रोच्चार करने बैठ गई- ‘‘ऊं त्र्यम्बर्क  यजामहे सुगंधि पुष्टिवर्धनं। उर्वारुकमिव बंधनात मत्योर्मुक्षीय  मामृतात।।...’’। मैं कुछ कहता, मूढ़ हिलाकर मना कर देती। मैंने संतोष कर लिया, जो होना है, होने दो। एक ही दिन की तो बात है, चंद्रग्रहण कोई रोज-रोज तो पड़ता नहीं। इस बीच आफत के मारे सबसे छोटा भाई और उसकी बहू आ गई। छह माह का गर्भ था, उसे डाक्टर को दिखाना था। जब ग्रहण का संकट तो डाक्टर की क्या बिसात। बड़ी मुश्किल से दूसरे मोहल्ले से ढूढ़कर गाय गोबर लाया,  उसके पेट पर लेप दि