जोर कितना बाजुए कातिल में है...
डा.सुरेंद्र लिंह
वैसे हर बनने के बाद टूटना, बिखरना एक नियति है। बने हैं तो टूटेंगे ही, जैसे- हर जीवन के बाद मृत्यु। यह अंतिम सत्य है। कोई परिवार बना है तो टूटेगा ही चाहे लाख कोशिश कर लो। एक को मनाओ तो दूसरा रूठ जाएगा और दूसरे को मनाओगे तो तीसरा और तीसरे को मनाओगे तो पहला रुठ जाएगा। कोई पार्टी बनी है तो टूटेगी ही। यह भी कह सकते हैं कि वह टूटने के लिए बनी है। टूटकर फिर से वह ज्यों का त्यों जुड़ जाए, यह असंभव। कभी नहीं हुआ तो अब कैसे होगा? देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस में कितने बिखराव हुए हैं, यह कांग्रेस वालों को भी याद नहीं। शास्त्रों की बात गलत थोड़े ही है। खूब जोड़ो फिर भी गांठ रह ही जाती है। हड्डी तोड़कर देख लो, सरिया डालनी पड़ेगी। पैसे पूरे चले जाएंगे लेकिन जोड़ फिर भी हर जाएगा।। सर्दियों में जोड़ों में दर्द भी होगा।
टूटने के बाद जोड़ना असंभव होता है। इस असंभव को ही संभव बनाने वाले महान होते हैं, महान नेता, महापुरुष, महाज्ञानी, महाराजनीतिज्ञ आदि आदि। जैसे जनता दल परिवार के लोग एक हो गए। एक मंच पर आ गए। सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव इसके अध्यक्ष बनाए गए हैं। एकाध दिन में पार्टी का एक अच्छा खास नाम भी रख लेंगे। फिर ताल ठोंक कर कहेंगे- ‘‘देखलो हो गए एक’’। पुराना नाम कायम रखने में भी कोई हर्ज नहीं। ‘‘पुराने चावल ज्यादा फार होते हैं’’। लेकिन कोई ऐसा करने दे तब न। अभी घाघ किस्म के कई धुरंधर इसमें सेंध लगाने, तोड़फोड़ करवाने और एकता में दरार डालने के लिए मुंह पैनाए बैठे हैं।
कहने वाले कह सकते हैं कि यह जनता दल का पुनर्जन्म है, जैसे- गीता के अनुसार आत्मा पुराने शरीर रूपी वस्त्र त्यागकर नये वस्त्र धारण कर लेती है, वैसे ही कुछ-कुछ जनता दल ने किया है। तो कहने वाले भगवान बुद्ध के दर्शन का भी हवाला दे सकते हैं कि पुनर्जन्म तो हुआ है लेकिन उसमें वे पूरे तत्व नहीं मिले जो पहले शरीर में थे, मिलते भी नहीं्। अभी जो एकता हुई है, उसमें अभी छह दल (सपा, दल यू, राजद, जद सेक्यूलर इनेलो, सजपा, की हो तो आए हैं। जनता दल के बीजू जनता जल, राष्ट्रीय लोकदल, लोकजनशक्ति पार्टी, जनता पार्टी, सोशलिस्ट जनता (डेमोक्रेटिक) पार्टी अभी तक साथ में कहां आ पाए?
कोई भी काम एक दिन में नहंीं होता। ‘रोम एक दिन में नहीं बना’ तो इंडिया तो विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। कहां पिद्दी सा रोम, उसमें तो इतने जानवर भी नहीं होंगे जितने यहां सड़कों पर आवारा घूमते रहते हैं और कहां हमारा भारत महान। इसके किसी रार्ष्ट्रीय दल के पुनर्जन्म में समय तो लगना ही चाहिए। लोकसभा चुनाव के दौरान से कई नेताओं ने खूब कोशिश की, बैठकें कीं, भाषण दिए, मानमनौबल भी किए। अखबारों और चेनलों पर खूब मुंह चमकाए। लेकिन नहीं माने तो नहीं माने। लोगों को अपनी बाजुओं पर भरोसा था। पर कोई काम नहीं आया। समय-समय की बात है, ‘भीलन लूटी गोपिका वही अर्जुन वही बाण’। लोक सभा के चुनाव तो हो गए। जो होना था सो हो गया। मोदी को प्रधानमंत्री बनना था, बन गए। अब पांच साल तक तो उन्हें कोई माई का लाल खिसका नहीं सकता। पूर्ण बहुमत की सरकार है। ‘अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत’।
फिर भी जब एक हुए हैं तो कोई न कोई वजह तो होगी। बिना मतलब के तो भाई-भाई भी पास नहीं बैठते। फिर यह तो राजनीतिक मसला है। राजनीति में न तो कोई अपना होता है और न पराया। दिल्ली न सही, यूपी और बिहार ही बचा लें। यह भी कम चुनौती नहीं है। वैसे कहने वाले ताल ठोंक रहे हैं कि कुछ नहीं होगा भाइयो, चाहे कितनी ही एकजुटता कर लें। बिहार भी उनका होगा और यूपी भी। इसी की परीक्षा होनी है- ‘जोर कितना बाजुए कातिल में है’।
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