किसानों से पहले किसानों के बाद

                 डा. सुरेंद्र सिंह
ऋग्वेद में जिक्र है तब लोग खेती जोतते थे, सिंचाई करते थे, जमीन में फल और सब्जी आदि उगाते थे। सिंधु घाटी की सभ्यता में भी तत्समय चावल और खपास आदि की खेती किए जाने का उल्लेख है।  यह कहने का तात्पर्य इतना भर है कि सभ्यता का उदय खेती के साथ हुआ। उससे पहले मनुष्य और जानवरों में बहुत ज्यादा फर्क नहीं था। २०-३० साल पहले तक कहा जाता था कि यह देश कृषि प्रधान है, ८० प्रतिशत लोगों की आजीविका खेती पर निर्भर है। किसान अन्नदाता और देश की रीढ़ है। देश की तरक्की का रास्ता उसके खेत और खलिहानों से होकर जाता है।
अंग्रेजों के जमाने में किसानों की हालत बहुत खराब थी, तब किसानों की आत्महत्या की दर भी बहुत थी। तब ब्रिटिश सरकार ने एग्रीकल्चर रिलीफ एक्ट १८७९ बनाया। इसके तहत वे कपास के उन्हीं किसानों  को ब्याज माफ करने की रियायत दिया करते थे, जिस क्षेत्र में उनकी रुचि रहा करती थी। आचार्य नरेंद्र देव ने आजादी से करीब दो दशक पहले संयुक्त प्रांतीय राजनीतिक सम्मेलन के बरेली में आयोजित १९वें अधिवेशन में कहा था-‘‘खेती के टुकड़े-टुकड़े हो गए हैं, जोत टूटती जाती है और छोटे किसानों की संख्या में वृद्धि होती जाती है। खेती करना इस तरह लाभदायक नहीं रह जाता। ऐसे किसानों की संख्या कोई कम नहीं है, जिनकी जोत का रकबा एक बीघे का दशांश ही होगा। ...लगभग ४० फीसदी किसान और जमींदार कर्ज के असह्य बोझ से इतने अधिक दबे हुए हैं कि वे एक प्रकार से महाजनों के गुलाम हैं। उनका ऋण जीवनभर चुकाए न चुकेगा’’।
देश को आजाद हुए इतने साल बीत गए, देश ने खूब तरक्की की है, इसमें कोई दो राय नहीं लेकिन किसानों की स्थिति में इसके अलावा कोई सुधार नहीं दिखता कि रकबा घटने के बावजूद उन्होंने उत्पादन बढ़ाया है। चार गुना जनसंख्या बढ़ने के बावजूद देश को खाद्य मामले में न केवल आत्मनिर्भर बल्कि निर्यात करने लायक भी बनाया है।  एफएओ ( फूड एंड एग्रीकल्चर आर्गनाइजेशन आफ यूनाइटेड नेशंस) की २०१० की रिपोर्ट के अनुसार यह देश विश्व में सबसे ज्यादा फल, सब्जी, दूध, जूट पैदा करने वाला है।  गेहंू, चावल आदि पैदा करने में विश्व में दूसरा और  ड्राई फ्रूट उत्पादन में तीसरा स्थान रखता है। यह सब किसानों की मेहनत के बल पर है।  लेकिन किसान की हालत लगातार खराब ही हुई है।  नेशनल क्राइम रिपोर्टस के अनुसार २०१२ में देश में १३५४४५ लोगों ने आत्महत्याएं की जिनमें से १३७७५ (११.२ प्रतिशत) किसान थे।  इनमें से ७६ प्रतिशत आत्महत्याएं महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, मध्य प्रदेश और केरल में हुईं। २०११ में १३५५८५ लोगों ने आत्महत्याएं की जिनमें से १४२०७ किसान थे।  १३४५७९ लोगों ने आत्महत्याएं की इनमें से १५९६३ किसान थे।
आधिकारिक ताजा रिपोर्ट के अनुसार अब खेती पर निर्भर रहने वालों की संख्या घटकर ६० फीसदी रह गई है। छोटी-छोटी जमीनें रह गई हैं। उदाहरण के लिए ३० साल पहले यदि किसी पर चालीस बीघा जमीन थी तो अब मुश्किल से एकाध बीघा, बहुतों पर नाम के लिए जमीन रह गई है।। जरूरतें बढ़ गई हैं। खेती की लागत भी बढ़ी है।  प्राकृतिक आपदाएं आती हैं तो किसान को तबाह कर देती हैं। वैसी हालत में वे क्या खाएं, कैसे कर्ज चुकाएं, कैसे और तमाम जिम्मेदारियों को पूरा करें। जरूरतें हरेक की बढ़ी हैं। किसान आत्मसम्मान से समझौता नहीं करते, लिहाजा जान दे देते हैं। हाल ही में आई प्राकृतिक आपदा ने मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश के किसानों को तबाह कर दिया है। नतीजतन इस साल किसानों के दम तोड़ने की घटनाएं बढ़कर आसमान पर पहुंच गई हैं। इसे यूं भी समझा जा सकता है कि दस साल पहले आगरा जिले के खंदोली में आलू की मंदी के कारण एक किसान ने आत्महत्या की थी संभवतया इस क्षेत्र में यह किसी किसान की आत्महत्या का पहला मामला था। अखबार में खबर छपी तो किसान के परिवार ने इसे स्वीकार करते हुए यह कहते हुए विरोध जताया कि इससे परिवार की बदनामी है।  इस साल हाल ही में वर्षा और ओलावृष्टि से हुई फसलों की तबाही के बाद आगरा मंडल में तीन सौ ज्यादा किसान दम तोड़ चुके हैं। अखबार रोजाना दर्जन भर से ज्यादा किसानों की मौतें से भरे रहते हैं। किसी ने पेड़ से लटक कर जाने दे दी तो किसी ने घर में फांसी लगाकर। सदमे में हार्ट अटैक से मरने वालों की संख्या भी बहुत है। नंगा क्या खाए, क्या पहने। अब किसान चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं, उनके पास मरने के अलावा कोई चारा नहीं है। यह बहुत ही दयनीय स्थिति है।  इससे अनुमान लगा सकते हैं कि उत्तर प्रदेश भी किसानों के लिए कब्रगाह बन रहा है। बेशक अखिलेश सरकार ने किसानों के मुआवजे की राशि बढ़ा दी है, मुआवजे के मानकों को भी सरल कर दिया है। लेकिन किसानों की मौतें रोकने के लिए इतना पर्याप्त नहीं हैं।
एक और विकट समस्या विकसित हो रही है। किसान भूूमिहर हो रहे हैंं। जरूरतों की पूर्ति के लिए थोड़ी-थोड़ी जमीनों को बेच रहे हैं, इसके सहारे जब तक जिंदा रहें तभी तक सही। शहरों के आसपास धनपति लोग मनमानी कीमतों पर उनकी जमीन खरीद रहे हैं। अनेक धनपतियों ने भूमि सीमारोपण कानून की आंखों में धूल झोंककर कई-कई हजार बीघा जमीन खरीद ली हैं। किसान अपनी एक इंच जमीन के जान दे देता है और जान ले लेता है लेकिन उसे खाली नहीं रहने देता, अन्न उगाता है। लेकिन इन धनपतियों की जमीन खाली पड़ी रहती है, उस पर अन्न का एक दाना नहीं उगता। ये लोग कमाई करना जानते हैं। यदि इसी रफ्तार से किसान खेतिहर होते गए और खेती धनपतियों पर आ गई उस समय की कल्पना करिए। तब गेहूं और चावल पांच सौ रुपये किलो मिलेंगे। आप रुपये, सोना, चांदी, कंप्यूटर, टीवी सीरियलों से पेट नही भर सकते।  गेहूं और चावल तो चाहिए ही। इसलिए इस खेती की व्यवस्था को जिंदा रखने के लिए कुछ करिए। खेती किसानों के हाथों में ही बनाए रखिए। इसी में देश और समाज का हित है।

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