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Showing posts from June, 2021

कोई नवरत्न नहीं थे सम्राट अकबर के

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                                                       मुगल सम्राट अकबर की जब-जब चर्चा चलती है तो वह उनके नवरत्नों के बिना पूरी नहीं होती। इतिहास की बहुत सी किताबों में उसके नवरत्नों का जिक्र है। स्कूल-कालेजों की परीक्षा तक में यह सवाल पूछा जाता है। अकबर के नवरत्न कौन-कौन थे?  विकीपीडिया से लेकर अन्य सामाजिक साइटों पर इसकी जानकारी  भरी पड़ी है। यही नहीं फतेहपुरसीकरी जिसे अकबर ने अपनी राजधानी बनाया, वहां के गुलिंस्ता पार्क में नवरत्नों की मूर्तियां भी लगा दी गई हैं। यह गैरजिम्मेदारी की हद है क्योंकि अकबर के यहां नवरत्न जैसी कोई व्यवस्था  ही नहीं थी। जिन इतिहासकारों ने नवरत्नों का उल्लेख किया है, उन्होंने इसका कोई आधार या प्रमाण नहीं दिया। विकीपीडिया तक पर भी इसका संदर्भ नहीं हैं। कहने का मतलब है कि अकबर के नवरत्नों का सारा मामला हवा हवाई है। नवरत्नों के नामों में भी भेद है। कहीं कुछ है तो कहीं कुछ। ‘विकीपीडिया’ और ‘जागरण जोश’ के अनुसार अकबर के नवरत्नों में राजा बीरबल, मियां तानसेन, अबुल फजल, अबुल फैजी, राजा मान सिंह, राजा टोडरमल, मुल्ला दो प्याजा, फकीर अजीउद्दीन और अब्दुल रहीम खानाखान है

मिल्खा सिंह का सपना, कौन करेगा पूरा?

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                                               फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह ने भारत माता की गोद को गोल्ड मेडलों से भर दुनिया भर में इसकी यश पताका फहराई। पर अब उनके सपने को कौन पूरा करेगा जो उनके 91 वर्ष की उम्र में अंतिम सास लेने के बाद भी अधूरा रह गया है।  कोई तो होगा न। करीब 135 करोड़ लोगों का यह बहुत संभावनाओं वाला देश है। किसी के अंदर तो मिल्खा सिंह जैसी ज्वाला धधक रही होगी? 20 नवंबर 1929 को मौजूदा पाकिस्तान के गोविंदपुरा में जन्मे मिल्खा सिंह एक ऐसी जिंदा मिसाल थे जिन्होंने भाग्य की लकीरों और खराब से खराब परिस्थितियों को ठेंगा दिखाया। कोई कल्पना कर सकता था कि पढ़ने-लिखने की उम्र में जो  युवक पुरानी दिल्ली के रेलवे स्टेशन के बाहर झूठे बर्तन साफ करने का काम करता हो वह पूरी दुनिया के लिए नजीर बन जाएगा? उन्होंने ऐसा ्किया और सीना ठोक कर  किया। उनका कहना था कि हाथ में भाग्य की लकीरों का कोई मतलब नहीं है। जो कुछ होता है, करने से होता है। यदि हिम्मत हो तो बड़ी से बड़ी मुश्किलें भी आसान हो जाती हैं। मिल्खा सिंह ने अपनी जिंदगी में पग-पग पर मुश्किलें झेली। लेकिन कभी हार नहीं मानी। देश के बंटवारे के

तात्या टोपे की चोटी के बाल

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                                                    1857 की क्रांति के अमर नायक तात्या टोपे से अंग्रेज हुकूमत दहशत खाती थी। पर वह उनकी कभी हार न मानने की जिद और बहादुरी की दिल से हमेशा कायल रही। इसलिए सार्वजनिक रूप से फांसी लगाने के बाद उनकी चोटी के बाल लंदन के ब्रिटिश म्यूजियम में सुरक्षित रखे गए । पर क्या वे बाल देश के अमर सपूत तात्या टोपे के ही हैं? यह सवाल इसलिए भी स्वाभाविक है क्योंकि देश की आजादी के बाद उनके भतीजे नारायण राव टोपे ने स्पष्ट किया कि फांसी तात्या टोपे को नहीं, बल्कि उनके विश्वस्त एक दूसरे हमशक्ल नारायण भागवत को दी गई। तात्या टोपे तो उस घटना के कई दशकों बाद तक जिंदा रहे। 1862 में जब तात्या टोपे के पिता  की मृत्यु हुई तो वह उनके अंतिम संस्कार में शामिल थे। पता नहीं वह किस मिट्टी के इंसान थे जो वफादारी में हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए। जबकि अब तो अपने खासमखास भी धोखा दे जाते हैं। मूल रूप  से महाराष्ट्र में नासिक के निकट येवला गांव के रहने वाले तात्या टोपे ब्राह्मण परिवार से थे। वास्तविक नाम रामचंद्र पांडुरंग राव था। जन्म 16 फरवरी 1814 को हुआ। शुरू में पेशवा बाजीराव द्वि