मिल्खा सिंह का सपना, कौन करेगा पूरा?

                

                             


फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह ने भारत माता की गोद को गोल्ड मेडलों से भर दुनिया भर में इसकी यश पताका फहराई। पर अब उनके सपने को कौन पूरा करेगा जो उनके 91 वर्ष की उम्र में अंतिम सास लेने के बाद भी अधूरा रह गया है।  कोई तो होगा न। करीब 135 करोड़ लोगों का यह बहुत संभावनाओं वाला देश है। किसी के अंदर तो मिल्खा सिंह जैसी ज्वाला धधक रही होगी?

20 नवंबर 1929 को मौजूदा पाकिस्तान के गोविंदपुरा में जन्मे मिल्खा सिंह एक ऐसी जिंदा मिसाल थे जिन्होंने भाग्य की लकीरों और खराब से खराब परिस्थितियों को ठेंगा दिखाया। कोई कल्पना कर सकता था कि पढ़ने-लिखने की उम्र में जो  युवक पुरानी दिल्ली के रेलवे स्टेशन के बाहर झूठे बर्तन साफ करने का काम करता हो वह पूरी दुनिया के लिए नजीर बन जाएगा? उन्होंने ऐसा ्किया और सीना ठोक कर  किया। उनका कहना था कि हाथ में भाग्य की लकीरों का कोई मतलब नहीं है। जो कुछ होता है, करने से होता है। यदि हिम्मत हो तो बड़ी से बड़ी मुश्किलें भी आसान हो जाती हैं।

मिल्खा सिंह ने अपनी जिंदगी में पग-पग पर मुश्किलें झेली। लेकिन कभी हार नहीं मानी। देश के बंटवारे के दौरान उनका परिवार दंगों की भेंट चढ़ गया। उन्होंने अपनी आंखों से देखा कि कैसे उनके मां-बाप, एक भाई और दो बहनें तड़प-तड़प कर मरे। मिल्खा सिंह के सीने में यह आग हमेशा जलती रही।  रेलगाड़ी के जनाने डिब्बे में सीट के नीचे छिप कर वह भारत आए। दिल्ली में पेट भरने के लिए शरणार्थी शिविरों में रहने के अलावा अनेक तरह के कार्य किए। रेलगाड़ी में बेटिकट पकड़े जाने पर वह दिल्ली की तिहाड़ जेल में भी रहे। तब बहन ने अपने जेबर बेचकर इन्हें छुड़ाया। कुछ दिन  बहन के घर भी रहे लेकिन काफी जलालत झेली। उस दौरान कई दिन ऐसे भी  होते थे जबकि भूखा रहना पड़ा। पेट की आग ने उनके सीने की आग को दुगना बढ़ा दिया।

सेना में भी वह आसानी से भर्ती नहीं हुए। कई बार प्रयास किया। तब नंबर आया।  फिर भी वह कभी चैन से नहीं बैठे। कोई भी काम सर्वश्रेष्ठ करने की उनकी हौबी बन गई। सेना में वह सबसे तेज दौड़ने वालों में रहे। उन्होंने सर्वश्रेष्ठ बनने के लिए इतनी जर्बदस्त प्रैक्टिस की कि कई बार मुंह से खून आ जाता था। लेकिन हार नहीं मानी। यहीं से उन्हेंअनेक राष्ट्रीय और अतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भाग लेने का अवसर मिला। उन्होंने अपनी जिंदगी में 80 अंतरराष्ट्रीय दौड़ प्रतियोगिताओं में भाग लिया। उनमें से 77 में वह जीते। राष्ट्रमंडल खेलों में वह भारत के पहले स्वर्ण पदक विजेता रहे। ऐशियाई खेलों में भी उन्होंने चार बार स्वर्णपदक जीते।

पाकिस्तान में अपने  परिवार के साथ हुई हृदयविदारक घटना को वह कभी भूल नहीं पाए। इसीलिए 1960 में जब पाकिस्तान में उन्हेंदौड़ प्रतियोगिता में भाग लेने का आमंत्रण मिला तो उन्होंने ठुकरा दिया। लेकिन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के समझाने पर मान गए। पाकिस्तान के लाहौर में आयोजित यह प्रतियोगिता देश के लिए भी बहुत ही अहम और गौरवभरी रही। उन्होंने जिस तरह फर्राटेदार दौड़ लगाई, सभी दंग रह गए। लोगों की आंखें फटी की फटी रह गईं। सबकी निगाहें उन पर टिकीं थी। कुछ देर के लिए समय जैसे ठहर सा गया था। पाकिस्तान की जो महिलाएं दर्शक के रूप में बुर्का पहने थीं, उन्होंने मिल्खा सिंह  को देखने के लिए अपने चेहरों से नकाब हटा लिए। जीतने पर पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब खान भी इनकी तारीफ किए बिना नहीं रह सके। उन्होंने इन्हें गोल्ड  मेडल देते हुए उड़न सिख यानी फ्लाइंग सिख  कहकर संबोधित किया। तभी से वह पूरी दुनिया के लिए फ्लाइंग सिख बन गए।

1960 में रोम के ओलंपिक में उन्होंने विश्व रिकार्ड को तो तोड़ दिया लेकिन अपनी ही गलती से प्रतियोगिता में चौथे स्थान पर आए।  जब वह सबसे आगे दौड़ रहे थे, यकायक पीछे मुड़कर दौड़नेवाले प्रतियोगियों को देखने लगे और पिछड़ गए। इसका उन्हें जिंदगी भर मलाल रहा। इस वाक्ये से वह इतना दुखी हुए कि खेल प्रतियोगिता से ही संन्यास लेने का फैसला ले लिया। लेकिन फिर दोस्तों के समझाने पर मान गए। उनका हमेशा यह प्रयास रहा कि कोई भारतीय ओलंपिक में दौड़कर उनकी कमी को पूरा करे।  

उन्होंने अपनी जीत को हमेशा भारत की जीत माना, इसलिए सारे के सारे मेडल सरकार को सौंप दिए। उन्होंने अपनी हार को भी भारत की हार कहा। इसलिए अपनी हार को जीत में बदलने की जिम्मेदारी देश पर डाल कर चले गए। 



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