तात्या टोपे की चोटी के बाल

                    

                              


1857 की क्रांति के अमर नायक तात्या टोपे से अंग्रेज हुकूमत दहशत खाती थी। पर वह उनकी कभी हार न मानने की जिद और बहादुरी की दिल से हमेशा कायल रही। इसलिए सार्वजनिक रूप से फांसी लगाने के बाद उनकी चोटी के बाल लंदन के ब्रिटिश म्यूजियम में सुरक्षित रखे गए । पर क्या वे बाल देश के अमर सपूत तात्या टोपे के ही हैं?

यह सवाल इसलिए भी स्वाभाविक है क्योंकि देश की आजादी के बाद उनके भतीजे नारायण राव टोपे ने स्पष्ट किया कि फांसी तात्या टोपे को नहीं, बल्कि उनके विश्वस्त एक दूसरे हमशक्ल नारायण भागवत को दी गई। तात्या टोपे तो उस घटना के कई दशकों बाद तक जिंदा रहे। 1862 में जब तात्या टोपे के पिता  की मृत्यु हुई तो वह उनके अंतिम संस्कार में शामिल थे। पता नहीं वह किस मिट्टी के इंसान थे जो वफादारी में हंसते-हंसते फांसी पर झूल गए। जबकि अब तो अपने खासमखास भी धोखा दे जाते हैं।

मूल रूप  से महाराष्ट्र में नासिक के निकट येवला गांव के रहने वाले तात्या टोपे ब्राह्मण परिवार से थे। वास्तविक नाम रामचंद्र पांडुरंग राव था। जन्म 16 फरवरी 1814 को हुआ। शुरू में पेशवा बाजीराव द्वितीय के साथ उनके भरोसे के लोगों में रहे। बाद में ईस्ट इंडिया कंपनी की बंगाल तोपखाना रेजीमेंट में काम किया। लेकिन जब दिल में स्वदेश प्रेम  हिलोरें लेने लगा तो उससे अलग होकर फिर से बाजीराव के साथ आ गए।  1857 में जब विद्रोह की लपटें कानपुर पहुंचीं तो वहां के सैनिकों ने नाना साहब को पेशवा घोषित किया। तात्या टोपे ने यहां उनके सैनिक सलाहकार बन सैनिक विद्रोह की अगुआई की।  अंग्रेज ब्रिगेडियर जनरल हैवलौक की कमान ने जब कानपुर पर हमला किया तब टोपे बहुत ही बहादुरी से लड़े लेकिन 16 जुलाई 1857 को पराजित होने के बाद इन्हें कानपुर छोड़ना पड़ा। इसके बाद उन्होंने अंग्रेज फौज से बिठूर में लोहा लिया। वह इस पराजय से भी  विचलित नहीं हुए। फिर इन्होंने ग्वालियर में एक बहादुर सैनिक टुकड़ी को अपने साथ मिलाकर नवंबर 1857 में कानपुर में फिर से हमला किया। लेकिन उनकी यह जीत थोड़े समय के लिए थी। छह दिसंबर को इन्हें फिर पराजित होना पड़ा। वहां से जाकर उन्होंने खारी नगर पर कब्जा कर लिया। यहां से उन्होंने तीन लाख रुपये और काफी तोपें प्राप्त कीं। जो उनकी आगे की लड़ाइयों में काम आईं। 

22 मार्च 1858 को जब अंग्रेज अफसर ह्यूरोज ने झांसी का घेरा डाला तो वह अपने बीस हजार सैनिकों के साथ रानी लक्ष्मीबाई की मदद को पहुंचे। यहां रानी विजयी रही। इसके बाद तात्या ने काल्पी में ह्यूरोज से मुकाबला किया लेकिन सफलता नहीं मिली।  वह बहुत ही योग्य और सूझबूझ वाले सेनापति थे। कुछ दिन बाद जब अंग्रेज  काल्पी में विजय का जश्न मना रहे थे, उन्होंने हमला करके जीत का डंका बजाया। फिर ग्वालियर को अपने कब्जे में कर नाना साहब को पेशवा घोषित कर दिया। 

18जून 1858 को फूलबाग के पास युद्ध में झांसी की रानी के शहीद हो जाने, नाना साहब के नेपाल भाग जाने और अंग्रेजों द्वारा इस आजादी की लड़ाई को कुचल दिए जाने  के बाद भी तात्या टोपे ने दर्जनों युद्ध लड़े। कहीं छापामार युद्ध तो कहीं आमने-सामने की लड़ाई  के जरिए तहलका मचाए रखा। वह अपनी सैनिक टुकड़ियों को लेकर जंगलों में छुप जाते थे। बरसात में उफनती नदियों में कूद पड़ते थे। अंग्रेजों ने कई बार उनका एक-एक दिन में चालीस मील तक घोड़ों से पीछा किया लेकिन काबू में नहीं कर पाए।

वह जयपुर में कब्जा करने के लिए जा रहे थे लेकिन कंकरोली में अंग्रेज सेना से उन्हें पराजित होना पड़ा। फिर उन्होंने अगस्त माह में उफनती चंबल को पार कर झालावाड़ की राजधानी झलार पाटन से 30 तोपें अपने कब्जे में की। सितंबर1858 में राजगढ़ में अंग्रेजों को चकमा देकर बच निकलने और ब्यावरा में हार के बाद ईशागढ़ में पहुंच कर वहां की पांच तोपों पर कब्जा कर लिया। फिर वह मगावली पहुंचे तो 10 अक्टूूबर को अंग्रेज अफसर माइकल से उन्हें हार का सामना करना पड़ा।

इसके बाद एक स्थिति ऐसी भी आई जबकि तात्या टोपे पर न तो गोला बारूद ,नहीं रसद और नहीं पैसा रहा। उन्होंने सहयोगियों को आज्ञा दे दी कि वे जहां चाहें चले जाएं। पर निष्ठावान लोग साथ छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। वह खंडवा, पिपलोद आदि कई पुलिस थानों और सरकारी इमारतों में आग लगाते हुए खरगोन आए तो खजिया नायक ने उन्हें चार हजार सहयोगी दिए। कारवां फिर से बन गया। राजपुर में उन्होंने सदरलेंड की फौज से जमकर टक्कर  ली। स्थिति अच्छी नहीं देखकर वह चकमा देकर नर्मदा को पार कर भाग निकले।

इतिहास के अनुसार वह  परौन के जंगल में छिपे हुए थे, आठ अप्रैल 1859  अट्ठारह सौ उनसठ को उन्हें सोते से पकड़ लिया गया। 15 अप्रैल को शिवपुरी में उनका कोर्ट मार्शल किया गया। तीन दिन उन्हें शिवपुरी के किले में कैद रखा गया।  18 अप्रैल को सायं पांच बजे सरेआम फांसी दे दी गई। कहते हैं कि जब उन्हें फांसी के लिए लाया जा रहा था तो वह दृढ़ कदमों से फांसी के चबूतरे पर चढ़े और खुद ही फांसी का फंदा गले में डाला। लेकिन आगरा के जाने-माने इतिहासकार राजकिशोर शर्मा राजे ने अपनी पुस्तक ‘ये कैसा इतिहास’ में कई प्रमाणों के साथ कहा है कि यह एक सोचा-समझा नाटक था जिसे नरवर के राजा मान सिंह और तात्या टोपे ने मिलकर खेला। दरअसल विद्रोही होने के शक में मान सिंह के राज्य की संपत्ति अंग्रेजों ने हड़प कर उनके परिजनों को बंदी बना लिया था। मान सिंह और टोपे की अच्छी दोस्ती थी। अंग्रेजों ने मान सिह पर दबाव डाला था कि यदि वह टोपे को गिरफ्तार करवा देगा तो उसे उसका राज्य वापस दे दिया जाएगा।  अंग्रेजों को स्वयं इस पर संदेह था इसलिए कथित टोपे की फांसी के बाद भी  उसका राज्य वापस नहीं किया। इस घटना के बाद अंग्रेजों ने टोपे के शक में तीन अन्य व्यक्तियों को फांसी पर चढ़ा दिया। हरेक की पहचान के लिए टोपे के छोटे भाई रामकृष्ण टोपे को बुलाया गया। उनके इंकार के बावजूद उन्हें छोड़ा नहीं गया।  1862 में जब  रामकृष्ण टोपे  बड़ोदा रेजीडेंसी में नौकरी मांगने गया तो उससे टोपे के बारे में पूछा कि वह अब कैसे हैं? इंदौर विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित डा. रामचंद्र विल्लौर की पुस्तक ‘हमारा देश’ में स्पष्ट रूप से कहा है कि राजा मान सिंह ने तात्या टोपे के साथ धोखा नहीं किया, अंग्रेजों की आंखों में धूल झोंकी थी। फांसी के फंदे पर झुूलने वाला कोई और देशभक्त था। 1926 में लंदन में प्रकाशित एडवर्ड थांपसन की पुस्तक ‘दी अदर साइड आफ दी मेडिल’ में भी  तात्या टोपे की फांसी पर शंका प्रकृट की गई।

तात्या टोपे 1862 से गुजरात की नवसार पहाड़ी के एक मंदिर में टहलदास स्वामी बनकर रहे। उनके साथ नाना साहब के बहुत खास समझे जाने वाले रामभाऊ भी रहे। टहलदास  उर्फ तात्या टोपे का निधन 30 जनवरी 1902 को हुआ। कुछ अन्य लोग टोपे का निधन 1909 में मानते हैं। इतिहासकार राजे का कहना है  कि टोपे की फांसी की प्रामाणिकता की जांच ब्रिटिश म्यूजियम में रखे गए उनकी चोटी के बालों और उनके परिवारीजनों के डीएनए  की जांच से की जा सकती है। 




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