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Showing posts from March, 2021

भारत का नेपोलियन हेमू विक्रमादित्य

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                                              फ्रांस क्रांति के नायक नेपोलियन बोनापार्ट को तो आप जानते ही हैं, एक नेपोलियन भारत में भी हुआ। जिसे बहुत कम लोग जानते हैं। शुरू में मामूली सा नमक विक्रेता फिर अपनी सूझबूझ से सेनापति से लेकर मुख्यमंत्री और  प्रधानमंत्री तक बना। बंगाल से लेकर आगरा, आगरा से लेकर कालपी,  ग्वालियर, पंजाब के कुछ हिस्सों,  दिल्ली तक को तलवार की नोक पर अपने कब्जे में कर  मुगलों को उसने खदेड़ दिया था। पानीपत की दूसरी लड़ाई में किस्मत ने उसके साथ धोखा किया वरना देश का इतिहास ही कुछ और होता। यह महायोद्धा कोई और नहीं हेमू उर्फ हेमचंद्र विक्रमादित्य था। मौजूदा हरियाणा में मेवात के रैवाड़ी परगने का हेमू मूल रूप से धूसर वैश्य था। ‘औरंगजेबनामा’ में उसे बंगाल का बनिया बताया गया है। खैर युवावस्था में वह नगर की सड़कों पर नमक बेचा करता था। एक बार उसके पिता के कारवां को डाकुओं ने घेर लिया, तब उसने वीरता से मुकाबला किया। वह कद, काठी में कोई बहुत मजबूत नहीं था लेकिन बहुत ही सूझबूझ वाला, अति वीर, साहसी और महत्वाकांक्षी था। अपनी इस जीवटता से ही वह आदिल शाह के शासन में शिखर तक पहुंचा। यह

फिर भी सरकार बेफिक्र क्यों?

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                                                      तीन कृषि बिलों के खिलाफ किसान आंदोलन को चलते इतना वक्त हो गया, सैकड़ों जानें जा चुकी हैं कभी सड़कें तो कभी रेलें रोकी जाती हैं, आंदोलन थमने की बजाय  लगातार फैल रहा है। अलग-अलग राज्यों में किसानों की बड़ी-बड़ी पंचायतें हो रही हैं। किसानों की यह संख्या छोटी-मोटी नहीं है, देश की साठ प्रतिशत से ज्यादा आबादी है, यह। किसानों की इस नाराजगी के  दुष्परिणाम पंजाब के निकाय चुनावों में आ गए हैं,वहां भाजपा को नागरिकों ने सिरे से खारिज कर दिया । फिर भी सरकार बेफिक्र क्यों हैं? जबकि आगे के दिनों में कई राज्यों के विधान सभा चुनाव होने जा रहे हैं? भ्रष्टाचार के खिलाफ 2011 में सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे का आंदोलन इससे काफी कम समय चला था। जैसे ही जनता ने आंदोलन के साथ जुड़ना शुरू किया, तत्कालीन कांग्रेस सरकार हिल गई थी। उसने आनन-फानन में उसकी मांग मानते हुए संसद में लोकपाल विधेयक पारित कर दिया था। फिर भी कांग्रेस अपने को अगले आम चुनाव में नहीं बचा पाई थी।  किसानों के इस आंदोलन को लेकर अकाली दल समेत अनेक सहयोगी उनका  साथ छोड़ चुके हैं? फिर भी सरकार बेफिक

किसान आंदोलनों का सात सौ साल का इतिहास

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                                    करीब सात सौ साल पहले अलाउद्दीन खिलजी ने जब उपज का आधा भाग लगान के रूप में वसूलना शुरू किया तो दिल्ली के आसपास के किसानों ने विद्रोह कर दिया था। तब सर्व खाप पंचायत ने इसका मोर्चा संभाला।  संभवतया यह पहला किसान आंदोलन था। तब सेना भी इस विद्रोह को  दबा नहीं पाई। उसे पंचायत की मांगें माननी पड़ीं।  तब से देश के विभिन्न भागों में समय-समय पर किसान आंदोलन होते रहे हैं। चिंता की बात यह है कि उनकी समस्याओं का अंत अभी तक नहीं हो सका। काफी लंबा इतिहास है इसका। चौदहवीं सदी में खिलजी के बाद जब सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक ने लगान की दर बढ़ाई और उसकी वसूली के लिए किसानों को सताया तो पटियाला जिले के किसानों ने सैनिक संघों का गठन कर उसका मुकाबला किया। सत्रहवीं शताब्दी में शाहजहां के शासनकाल में अधिक लगान और विभिन्न करों की सख्ती से वसूली की गई तो  1635 में भरतपुर में रोरिया सिंह के नेतृत्व में किसानों ने विरोध किया। 1659  में अलीगढ़ के नंदराम ने विरोध का झंडा उठाया। उन्होंने मथुरा, मुरसान और हाथरस में लगान देना बंद करा करा दिया। इसके बाद 1669  में मथुरा के गोकुल सिंह उर्फ