भारत का नेपोलियन हेमू विक्रमादित्य

                 

                           


फ्रांस क्रांति के नायक नेपोलियन बोनापार्ट को तो आप जानते ही हैं, एक नेपोलियन भारत में भी हुआ। जिसे बहुत कम लोग जानते हैं। शुरू में मामूली सा नमक विक्रेता फिर अपनी सूझबूझ से सेनापति से लेकर मुख्यमंत्री और  प्रधानमंत्री तक बना। बंगाल से लेकर आगरा, आगरा से लेकर कालपी,  ग्वालियर, पंजाब के कुछ हिस्सों,  दिल्ली तक को तलवार की नोक पर अपने कब्जे में कर  मुगलों को उसने खदेड़ दिया था। पानीपत की दूसरी लड़ाई में किस्मत ने उसके साथ धोखा किया वरना देश का इतिहास ही कुछ और होता। यह महायोद्धा कोई और नहीं हेमू उर्फ हेमचंद्र विक्रमादित्य था।

मौजूदा हरियाणा में मेवात के रैवाड़ी परगने का हेमू मूल रूप से धूसर वैश्य था। ‘औरंगजेबनामा’ में उसे बंगाल का बनिया बताया गया है। खैर युवावस्था में वह नगर की सड़कों पर नमक बेचा करता था। एक बार उसके पिता के कारवां को डाकुओं ने घेर लिया, तब उसने वीरता से मुकाबला किया। वह कद, काठी में कोई बहुत मजबूत नहीं था लेकिन बहुत ही सूझबूझ वाला, अति वीर, साहसी और महत्वाकांक्षी था। अपनी इस जीवटता से ही वह आदिल शाह के शासन में शिखर तक पहुंचा।

यह वही आदिल शाह था जिसने शेरशाह सूरी के पौत्र  और अपने सगे भांजे फिरोजशाह की हत्या करके सन 1553 में गद्दी हासिल की। आदिल शाह एक अयोग्य और निकम्मा शासक था। उसके समय में वास्तव में शासक हेमू ही था। उसने उसकी ओर से कई विद्रोहों का दमन किया। सबसे पहले बंगाल में शाह मोहम्मद को मारकर बंगाल पर कब्जा किया। फिर इटावा, कालपी और आगरा पर कब्जा किया। हुमायूं की मृत्यु हो चुकी थी। उसने बहुत ही सुझबूझ से अफगानों को अपनी ओर मिलाया। फिर अच्छा अवसर मानकर  दिल्ली पर हमला कर दिया। छह अक्टूबर 1556 को उसने दिल्ली में तुगलकाबाद के पास मुगलों की सेना को हराया। युद्ध में मुगलों के तीन हजार सैनिक मारे गए। हेमू के खौफ से मुगल सेना का कमांडर तरडी बेग बचे-खुचे सैनिकों के साथ जान बचाकर भाग निकला।  इन्हें मिलाकर हेमू 22 युद्धों का विजेता था। उसकी इन उत्कृष्ट सफलताओं से खुश होकर ही आदिल शाह ने उसे हिंदुओं की सर्वोच्च विक्रमादित्य की उपाधि से सम्मानित किया। दिल्ली के पुराने किले में उसका राज्याभिषेक किया गया।

उस समय अकबर का शासन काबुल, कंधार और पंजाब के कुछ हिस्सों तक सिमट गया था। क्योंकिआगरा और  दिल्ली दोनों उसके हाथ से निकल चुके थे। हेमू काबुल पर भी हमले की तैयारी कर रहा था। अकबर हेमू को चुनौती देने की बजाय पंजाब के कलानौर से काबुल की  ओर लौटने के पक्ष में था। लेकिन संरक्षक बैरमखां ने उसे युद्ध के लिए तैयार किया। यह युद्ध 5 नवंबर 1556 को  पानीपत के उसी ऐतिहासिक मैदान में हुआ, जहां तीस साल पहले उसके दादा बाबर ने इब्राहीम लोदी को हराकर हिंदुस्तान में मुगल साम्राज्य की नींव डाली।  बैरम खां ने अकबर को युद्ध के मैदान से 8 मील दूर ही  रखा। युद्ध में हेमू बहुत ही वीरता से सबसे अग्रिम मोर्चे पर लड़ा। उसकी सेना भी अकबर की सेना से बहुत ज्यादा थी। सेना में 1500 युद्धक हाथी थे और तमाम आधुनिक तोपें।  लेकिन लड़ाई में हेमू की आंख में तीर लगने  पर बाजी पलट गई। वह बेहोश होकर गिर पड़ा। सेना में भगदड़ मच गई। उसे बंदी बना लिया गया। जब उसे बंदी बनाकर शिविर में लाया गया तो बेरम खां  के कहने के बावजूद अकबर ने तलवार से उसका सिर कलम करने से इंकार कर दिया।  ‘अकबरनामा’ में इस बात का उल्लेख है कि तब बैरम खां ने हेमू का सिर कलम किया। उसका कटा हुआ सिर काबुल के दिल्ली दरबाजा पर प्रदर्शन के लिए भेजा गया जबकि धड़ दिल्ली के पुराने किले के सामने फांसी पर लटका दिया गया। ताकि लोगों में दहशत फैल सके। इसके बाद कई साल तक उसके समर्थकों की चुन-चुन कर सामूहिक हत्याएं की गईं।  हेमू के 82 वर्षीय पिता को भी नहीं बख्शा गया। उसे अलवर से पकड़कर मौत के घाट उतार दिया गया। पानीपत में हेमू की इस हार के बाद ही भारत में मुगल सत्ता की बहाली हुई। बंगाल तक का जो सारा क्षेत्र हेमू के कब्जे में था, उसे कब्जियाने में अकबर को आठ साल लगे।

जाने-माने इतिहासकार राजकिशोर शर्मा राजे की पुस्तक ‘तवारीख-ए-ए आगरा’ के अनुसार मुस्लिम शासनकाल में टोडरमल के बाद हेमू ही था जो प्रधानमंत्री पद तक पहुंचा। वह वास्तव में दिल्ली का अंतिम हिंदू सम्राट था। अनेक इतिहासकारों ने उसे भारत के नेपोलियन की संज्ञा दी है।



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