फिर भी सरकार बेफिक्र क्यों?

                        

                            


तीन कृषि बिलों के खिलाफ किसान आंदोलन को चलते इतना वक्त हो गया, सैकड़ों जानें जा चुकी हैं कभी सड़कें तो कभी रेलें रोकी जाती हैं, आंदोलन थमने की बजाय  लगातार फैल रहा है। अलग-अलग राज्यों में किसानों की बड़ी-बड़ी पंचायतें हो रही हैं। किसानों की यह संख्या छोटी-मोटी नहीं है, देश की साठ प्रतिशत से ज्यादा आबादी है, यह। किसानों की इस नाराजगी के  दुष्परिणाम पंजाब के निकाय चुनावों में आ गए हैं,वहां भाजपा को नागरिकों ने सिरे से खारिज कर दिया । फिर भी सरकार बेफिक्र क्यों हैं? जबकि आगे के दिनों में कई राज्यों के विधान सभा चुनाव होने जा रहे हैं?

भ्रष्टाचार के खिलाफ 2011 में सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे का आंदोलन इससे काफी कम समय चला था। जैसे ही जनता ने आंदोलन के साथ जुड़ना शुरू किया, तत्कालीन कांग्रेस सरकार हिल गई थी। उसने आनन-फानन में उसकी मांग मानते हुए संसद में लोकपाल विधेयक पारित कर दिया था। फिर भी कांग्रेस अपने को अगले आम चुनाव में नहीं बचा पाई थी।  किसानों के इस आंदोलन को लेकर अकाली दल समेत अनेक सहयोगी उनका  साथ छोड़ चुके हैं? फिर भी सरकार बेफिक्र क्यों है?

यदि पीछे की ओर लौटें तो 1907 में कृषि से संबंधित तीन  बिल अंग्रेज सरकार भी लेकर आई थी। पंजाब में जब शहीद सरदार भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह के नेतृत्व में  उसके खिलाफ ‘पगड़़ी संभाल जट्टा’ आंदोलन चला  तो सरकार ने तुरंत कदम वापस ले लिए। 1917 में गांधीजी के नेतृत्व में बिहार के चंपारण आंदोलन के बाद भी  अंग्रेजों ने अपने आदेश वापस लिए। इसके बाद गुजरात में 1928 में सरदार वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में चले वारदोली किसान आंदोलन के बाद भी अंग्रेज सरकार ने आदेश वापस लिए। पर अपने ही वोटों से बनी स्वदेशी राष्ट्र भक्त सरकार इस मामले में अब बेफिक्र क्यों है?

डीजल और पेट्रोल की कीमतें आसमान छूती जा रही हैं, गैस की कीमतें भी अप्रत्याशित रूप से बढ़ रही हैं. कई जिलों में पेट्रोल की कीमतें सौ रुपये लीटर से ज्यादा पहुंच गई हैं। शायद दुनिया में सबसे महंगा पेट्रोल और डीजल यहीं बिक रहा है जिसमें राज्य और केंद्र सरकारों का मुनाफा ज्यादा और उसकी असल कीमत कम है? इसका असर आम जनता पर सीधे-सीधे है। भाजपा केंद्र की सत्ता में  आने से पहले तेल की कीमतों को लेकर आसमान सिर पर उठाती रही । जनता अब पहले से बहुत ज्यादा त्रस्त है।  विरोध में सोशल  मीडिया पर उसकी प्रतिक्रिया तरह-तरह से व्यक्त हो रही हैं। जनता सरकार से सीधे-सीधे पूछ रही है, अब क्या बात है? अब तो आपकी ही सरकार है।  फिर भी सरकार बेफिक्र क्यों है?

सार्वजनिक उपक्रमों की बिक्री, रेलवे के निजीकरण, बैंकों के निजीकरण को लेकर भी लोगों की नाराजगी है। उनके जगह-जगह प्रदर्शन और अन्य कार्यक्रम होते रहते हैं।  देश के आठ करोड़ से ज्यादा व्यापारी 26 फरवरी को चक्का जाम से लेकर भारत बंद का आयोजन कर अपनी नाराजगी जाहिर कर चुके हैं। मजदूर और युवा वर्ग पहले से नाराज है। क्योंकि लौकडाउन के कारण उन्होंने भारी मुसीबत झेली, बेरोजगार होने पर उनमें से बहुतों को अभी तक उन्हें रोजगार नहीं मिला। इतने सारे लोग नाराज हैं। कभी-कभी लगता है कि सरकार से खुश ही कौन है? फिर भी सरकार बेफिक्र क्यों है?



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