किसान आंदोलनों का सात सौ साल का इतिहास

                

                  



करीब सात सौ साल पहले अलाउद्दीन खिलजी ने जब उपज का आधा भाग लगान के रूप में वसूलना शुरू किया तो दिल्ली के आसपास के किसानों ने विद्रोह कर दिया था। तब सर्व खाप पंचायत ने इसका मोर्चा संभाला।  संभवतया यह पहला किसान आंदोलन था। तब सेना भी इस विद्रोह को  दबा नहीं पाई। उसे पंचायत की मांगें माननी पड़ीं।

 तब से देश के विभिन्न भागों में समय-समय पर किसान आंदोलन होते रहे हैं। चिंता की बात यह है कि उनकी समस्याओं का अंत अभी तक नहीं हो सका। काफी लंबा इतिहास है इसका। चौदहवीं सदी में खिलजी के बाद जब सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक ने लगान की दर बढ़ाई और उसकी वसूली के लिए किसानों को सताया तो पटियाला जिले के किसानों ने सैनिक संघों का गठन कर उसका मुकाबला किया।

सत्रहवीं शताब्दी में शाहजहां के शासनकाल में अधिक लगान और विभिन्न करों की सख्ती से वसूली की गई तो  1635 में भरतपुर में रोरिया सिंह के नेतृत्व में किसानों ने विरोध किया। 1659  में अलीगढ़ के नंदराम ने विरोध का झंडा उठाया। उन्होंने मथुरा, मुरसान और हाथरस में लगान देना बंद करा करा दिया। इसके बाद 1669  में मथुरा के गोकुल सिंह उर्फ गोकुला जाट और उसके ताऊ उदय सिंह ने किसानों को संगठित कर विरोध किया।  इसकी कीमत उन्हें जान देकर चुकानी पड़ी।  गोकुला को औरंगजेब ने आगरा के फुव्वारा चौराहे पर सबके सामने टुकड़े-टुकड़े कर दिया। लेकिन विरोध की ज्वाला नहीं थमी।  इतिहास में ये वाक्ये ब्रज में किसानों के विद्रोह के नाम से दर्ज हैं। 


निर्दय नौकरशाही और स्वेच्छाचारी सामंतों के खिलाफ 1847 से बिजौलिया किसान आंदोलन चला। राजस्थान में विजय सिंह पथिक के नेतृत्व में यह आंदोलन शुरू होकर तकरीबन पूरे देश में फैला।  आंदोलन करीब 44 साल चला। इतिहास का यह सबसे लंबा किसान आंदोलन था। कितने लोग इसकी भेंट चढ़े इसका कोई रिकार्ड नहीं है। 

1857 की क्रांति के बाद जब अंग्रेजों ने किसानों का शोषण किया तो पंजाब में  1871-72 में कूका विद्रोह हुआ। जवाहर मल और बाबा राम सिंह ने इसका नेतृत्व किया। अंग्रेजों ने दोनों को गिरफ्तार कर रंगून भेज दिया जहां उनकी मृत्यु हो गई। 

1874 में महाराष्ट्र के पूना और अहमदनगर में दक्कन किसान आंदोलन चला। इसमें किसान बाबा साहिब सिंह के घर की नीलामी ने भारी तूल पकड़ लिया था।

1879 (अट्ठारह सौ उन्नासी ) में जमींदारों के उत्पीड़न के खिलाफ महाराष्ट्र में वासुदेव फड़के और आंध्रप्रदेश में सीताराम राजू के नेतृत्व में रामोसी किसान आंदोलन हुआ। 

1907 में अंग्रेजों ने तीन कृषि बिल पारित किए तो पंजाब में इसके विरोध में सरदार शहीद भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह के नेृतत्व में किसानों का ‘पगड़ी संभाल जट्टा‘ आंदोलन चला। इस आंदोलन ने इतना तूल पकड़ा कि सरकार को अपने कदम वापस खींचने पड़े। फिर बिहार के चंपारण में किसान आंदोलन चला । यह अंग्रेजों की  तानाशाहीपूर्ण नीतियों के खिलाफ था जिसमें वे किसानों से उनकी जमीन के एक तिहाई हिस्से पर जबरन नील की खेती कराते थे। 1917 में गांधीजी ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया। यहीं पर किसानों की दयनीय हालत  देखकर उन्होंने अपने सारे कपड़े त्याग केवल लुंगी पहनना शुरू किया।

इसके बाद 1918 में गुजरात के खेड़ा में लगान के खिलाफ आंदोलन हुआ जिसका नेतृत्व भी गांधीजी ने किया। उसी साल उत्तर प्रदेश के हरदोई, बहराइच, सीतापुर आदि जिलों में जमींदारों के खिलाफ किसानों का एका आंदोलन चला। इसमें मुख्य भूमिका बाबा रामचंद्र और महामना मदन मोहन मालवीयजी की रही।

 1920 में केरल के मालाबार क्षेत्र में मोपला किसान आंदोलन चला। गांधीजी, शौकत अली, अबुल कलाम आजाद सरीखे नेताओं ने इसमें हिस्सा लिया। पर अंग्रेज सरकार ने यहां हिंदू मुस्लिम दंगे कराकर आंदोलन को कुचल दिया। 

 फिर गुजरात में ही 1928 में वारदोली किसान आंदोलन हुआ। जबर्दस्त सूखा पड़ने पर भी अंग्रेज किसानों से जबरन लगान वसूली कर रहे थे जबकि किसानों पर खाने तक के लाले थे। कांग्रेस नेता सरदार बल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में किसानों ने इसमें सफलता पाई।  उनके नाम के साथ जो ‘सरदार’ शब्द जुड़ा है, वह इसी आंदोलन की देन है। किसानों ने उन्हें अपना सरदार मान लिया था।  इसी दरम्यान पंजाब में छोटूराम ने शोषण के खिलाफ किसानों को संगठित किया। उनकी  जमीनों की जबरन नीलामी को रुकवाया।

जमींदारों और साहूकारों द्वारा अवैध वसूली एवं अत्यधिक उत्पीड़न के खिलाफ 1946 से 52 तक तब के हैदराबाद राज्य में तेलंगाना किसान आंदोलन चला। कम्युनिस्टों के नेतृत्व में चले इस आंदोलन में चार हजार से ज्यादा किसानों की जानें गईं लेकिन सफलता मिली। किसानों को उनकी लाखों एकड़ जमीन वापस मिल गई।

आजादी के बाद महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार, गुजरात में अनेक किसान आंदोलन चले इनमें सबसे सशक्त आंदोलन उत्तर प्रदेश में 1987-88  से भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में चलाए गए। एक दशक से ज्यादा समय तक उनके इस गैर राजनीतिक संगठन ने कई बार सरकार को झुकने पर मजबूर किया।  

तीन कृषि बिलों के खिलाफ चलाए जा रहे किसान आंदोलन में अब उनके पुत्र राकेश टिकैत और नरेश टिकैत केंद्रीय भूमिका में हैं। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान आदि के दर्जनों किसान संगठन कंधा से कंधा मिलाकर उनके साथ हैं। सभी विरोधी राजनीतिक दल, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पौत्री तारा गांधी तक इनके समर्थन में आ चुके  हैं। सैकड़ों किसान अब तक आंदोलन की भेंट चढ़ चुके हैं। आंदोलन की गूंज विश्व भर में है।



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