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Showing posts from May, 2020

भक्तों के दर्शन को व्याकुल

                                                                   -डा. सुरेंद्र सिंह पहले भक्त मंदिरों में गुहार लगाते थे-‘‘ मेरी भव बाधा हरो, राधा नागर सोय..’’।  वे उनके दर्शन को व्याकुल रहते थे।  अब मंदिरों के बड़े-बड़े मंहत और पुजारी गुहार लगा रहे हैं, मंदिरों को खुलवाइए वरना भूखों मर जाएंगे। कोरोना की यह कैसी विचित्र माया है। जो मठाधीश पहले भक्तों से दिनभर चरणस्पर्श कराते थकते नहीं थे, अब वे उनके दर्शन के लिए व्याकुल है।ं भक्त आएं तो उनका काम चले। भक्तो ! संभल जाइए। जो कुछ है, आप ही के पास है।  आपके ही अंतर्मन में है। मंदिरों की बिल्डिंग और मूर्तियों में नहीं। जो पुजारी दिन भर भक्तों को आश्वस्त करते थे कि यहां से कोई खाली हाथ नहीं जाता। मंदिरों में दिन-रात रहकर भी अब वे खाली हाथ हैं।  दो महीने से ज्यादा समय के लौकडाउन में मंदिरों में हाहाकार मच गया है। कई जाने-माने मंदिर जिनमें साक्षात विष्णु का वास माना जाता है, जिनकी आमदनी का देश भर में रिकार्ड है, अब उनके पुजारियों को घर चलाने के लाले पड़े हैं। उन्हें सेलरी नहीं मिल पा रही ।  अखाड़ा परिषद तो मई के पहले हफ्ते से ही गुहार लगा रही है।

जुग जुग जियो योगी जी

                                                  -डा. सुरेंद्र सिंह महिलाएं खासतौर से बूढ़ी-बड़ी खुश होंगी। दुआएं दे रही होंगी- जुग-जुग जियो योगी जी। अब सबको जो मुंह ढंकने होंगे। चाहे आदमी हो या औरत। घर से बाहर निकलो तो ढको, चाहे मास्क लगाओ, चाहे गमछा, दुपट्टा या और कुछ भी लेकिन मुंह ढंकना ही होगा। ये योगीजी का राज है, बकरी और शेर एक ही घाट पर पानी  पिएंगे। सबके लिए एक ही सिविल कोड। जो चेहरा नहीं ढके, वह भरे जुर्माना। पहली बार में सौ रुपये, दूसरी बार में सौ से पांच सौ और तीसरी बार सीधे पांच सौ। इसे कहते हैं आम के आम गुठलियों के दाम। इससे न केवल कोरोना  भागेगा, और बहुत से  बिगड़े काम बनेंगे।  एक पंथ दो काज कहो अथवा एक पंथ  अनेक काज। लौकडाउन के चक्कर में सरकार की आमदनी घटी है।  वह सुधर सकती है। चाहे जितने आदेश कर लो, खूब अखबारों में इश्तिहार छपवालो। यूपी वाले तो मानने से रहे। हेलमेट के आदेश को ही ले लो। कोर्ट से लेकर सरकार तक आदेश कर करके थक गए।  खूब चालान काटे। जब सब उसे ही नहीं मानते तो  इसे क्यों मानेंगे। इसी का इंतजार है। पुलिस के भाई लोग कुछ दिनों से सूखे चल रहे हैं, उनकी भी दसों उंगल

जय हो क्वारंटाइन सेंटर

                                                          -डा. सुरेंद्र सिंह क्वारंटाइन सेंटर भी क्या खूब हैं।  इन्होंने आजकल बड़े बड़ों की हुलिया टाइट कर दी है। लोग हाथ जोड़ते हैं, पैरों पड़ते हैं,- चाहे कहीं भेज दो, जेल भेज दो, परलोक भेज दो लेकिन क्वारंटाइन सेंटर  मत भेजो। कांग्रेस के नेता बड़ी उछलकूद कर रहे थे। एकाध को ही पकड़ा। सब ठंडे हो गए। उन्हें पता है क्वारंटाइन सेंटर भेज दिया तो भगवान ही मालिक है। और दिन होते तो जेलों को ठसाठस भर देते। भला हो क्वारंटीन सेंटरों का,  कोरोना को ठीक करने के अलावा  कानून व्यवस्था बनाए रखने में भी सहायक बन गए हैं। यदि ऐसे सेंटरों की व्यवस्था को सुधारने के लिए उत्तर प्रदेश के डीजी मेडिकल ने इनमें मोबाइल पर प्रतिबंध लगा दिया तो क्या  गुनाह कर दिया था? सो इसके विरोध को तूल पकड़ते देख आदेश को वापस ले लिया गया। क्वारंटाइन सेंटरों से जो लोग परेशान हैं, वह परेशान होंगे, इसके मजे लेने वाले भी कम नहीं हैं। हरेक आदमी की क्षमता और फितरत अलग-अलग होती है। बिहार के समस्तीपुर जिले के एक क्वारंटाइन सेंटर को ही ले लो, भाइयों ने  महिलाओं से खूब अश्लील डांस कराया। बाद में इ

सोशल डिस्टेसिंग पर एक शोध

                                                        डा. सुरेंद्र सिंह आजकल सोशल डिस्टेसिंग सबसे महत्वपूर्ण शब्द बन गया है। यदि कभी इस पर शोध हुआ - जो बहुधा ऐसे विषयों पर  होते रहते हैं - तो निष्कर्ष निकाला जाएगा कि इसका उपयोग कोरोना काल में राम के नाम से भी ज्यादा हुआ। राम के नाम को संत लोग जप-जप कर और पोथा पत्री लिख-लिख कर मर गए लेकिन राम उन्हें कभी नहीं  मिले। राम के नाम पर बड़े-बड़े मंदिर और मठ बन गए। रुपये-पैसे, सोना-चांदी के अंबार लग गए। लेकिन शांति किसी को नहीं मिली। सोशल डिस्टेसिंग शब्द  इससे ज्यादा व्यापक यानी सर्वव्यापी  रहा। इसने झोंपड़ी से लेकर महलों, पुलिस के डंडे से लेकर प्रधानमंत्री  के मनमोहक वाणी पर राज किया। संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर डेढ़  सौ से ज्यादा देशों को अपनी उंगली पर नचाया। अखबार, इलेक्ट्रानिक मीडिया से लेकर सोशल मीडिया का यह सबसे प्रिय शब्द रहा। यहां तक कि उद्योग और व्यापार में  इसकी बदौलत क्रांति हुई। उदाहरण देकर बताया जाएगा कि प्राइम टाइम में टीवी चेनलों द्वारा कितनी-कितनी बार इसका उल्लेख किया जाता। अन्य खबरों के साथ दिन पर इसका रट्टा रहता। विश्वविद्यालयों

इतिहास का सबसे बड़ा पलायन

                                                              -डा. सुरेंद्र सिंह शायद यह दुनिया के इतिहास में भारत में अब तक का सबसे बड़ा पलायन है। चाहे  जिधर निगाह डालें सड़कों पर, रेल की पटरियों पर और गावों की पगडंडियों पर अपनी पोटलियों और छोटे बच्चों को कंधों पर लादे लोग चलते चले जा रहे हैं। न दिन का होश और न रात की परवाह। वश एक ही धुन, कैसे भी  अपने गांव पहुंचना है।  सैकड़ों लोगों ने चलते-चलते रास्ते में दम तोड़ दिया। अनेक रेल से कुचलकर मर गए और कुछ को सड़कों पर वाहनों ने कुचल दिया लेकिन उनके कदमों ने रुकने का नाम नहीं लिया। देश के विभाजन के वक्त स्थिति विपरीत थी। अंग्रेजों ने इसे खोखला करके छोड़ा था।  गरीब मुल्क था। व्यवस्थाएं नहीं थीं। हिंदुस्तान से लोग अपनी स्वेच्छा से जा रहे थे तो पाकिस्तान से उन्हें जबरन खदेड़ा जा रहा था। जबर्दस्त मारकाट और दंगे फसाद थे। उस स्थिति में पाकिस्तान से करीब 72.50 लाख लोग आए और हिस्दुस्तान से करीब 72.20 लाख लोग गए। मौजूदा समय में ऐसा कोई कारण नहीं है। फिर भी पहले से कई गुना ज्यादा मजदूरों का विकराल पलायन है। यह पलायन इस बात का  प्रमाण है कि आजादी के बाद 73

ऐसे थे राजीव गांधी

                                                                 -डा. सुरेंद्र सिंह 1991, मई का एक दिन था। लगता है जैसे आज ही की सी बात है। सायं करीब  साढ़े सात बज रहे थे। कुछ-कुछ अंधेरा हो चला था। खेरिया एयरपोर्ट से पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी खुली गाड़ी में सवार हुए। वही सफेद कुर्ता और पाजामा पहने,  उत्साह से लवरेज। । खेरिया मोड़,  ईदगाह बस अड्डे के सामने से वीआईपी  रोड और माल रोड होते हुए सर्किट हाउस के लिए जा रहे थे। रास्ते में कुछ स्थानों पर  कांग्रेसी कार्यकर्ता  खड़े थे। लोग आम दिनों की तरह  आराम से आ जा रहे थे। आज के दिनों जैसी कोई रोका-राकी, टोका-टाकी नहीं थी। लोग देखते, अरे ये तो  राजीव गांधी हैं। वे चौकते,  चिल्लाते- राजीव गांधी। राजीव मुस्कराते, किसी को हाथ हिलाकर तो किसी कोे हाथ जोड़ कर अभिवादन करते। जहां कहीं कुछ ज्यादा लोग दिखे, गाड़ी रुकवाई , लोगों से हाथ मिलाने लगे।  लोगों ने देखा पूर्व प्रधानमंत्री हर किसी से हाथ मिला रहे हैं तो होड़ लग गई।  गाड़ी थोड़ी आगे बढ़ती फिर हाथ मिलाने का सिलसिला लग जाता।  रास्ते में एकाध स्थान पर उन्होंने यह भी पूछा,-‘‘ सभा में कैसी भीड़ है’’? वह आग

झूठ के एक से एक खिलाड़ी

                                                                       -डा.सुरेंद्र सिंह यदि झूठ बोलने की प्रतियोगिता हो तो बहुत से तैयार हो जाएंगे। इसमें क्या है, झूठ ही तो बोलना है। लेकिन जीतने में छक्के छूट जाएंगे। एक से एक महारथी  हैं। झूठ बोलें और ताली भी पिटवा लें। कुछ झूठ भी न बोल पाएं और हूट हो जाएं। कायदे से झूठ बोलना हर किसी से वश की बात नहीं है। कुछ बड़े विरले लोग ही हैं, उनमें एक से एक बढ़कर खिलाड़ी हैं, जो सीना तान के बोलते हैं। कुछ सिद्धहस्त लोग राई को पर्वत, तिल को ताड़ बना देते हैं तो कुछ झूठ के पहाड़  बना सकने में माहिर हैं। सफेद झूठ भी कोई चीज है।  हाल ही में एक केंद्रीय मंत्री  ने एक टीवी पत्रकार को दिए  इंटरव्यू में  कहा कि देश में 80 करोड़ राशनकार्ड धारकों को खाद्यान का वितरण करा दिया है। एक राशनकार्ड में औसत पांच सदस्य होते हैं। किसी में कम तो किसी में ज्यादा।  इस हिसाब से देश की आबादी हुई  400 करोड़। यदि एक राशनकार्ड पर चार सदस्य मान लें तो  देश की आबादी  320 करोड़। जबकि सभी नागरिकों के पास राशनकार्ड नहीं हैं। देश की आबादी है125 करोड़। इसे कितना प्रतिशत मानेंगे?  उन्होंने

कोरोना युग में पुलिस का नया अवतार

                                                                      -डा. सुरेंंद्र सिंह कोरोना के इस काल में पुलिस का नए रूप में अवतरण हुआ है। जो पुुलिस हमेशा से मारने-पीटने, तोड़-फोड़ करने के लिए कुख्यात  है। तमाम फर्जी मुठभेड़ें और निर्दोषोंं को फंसाने के मामले इसके नाम हैं। इसलिए पुलिस का नाम लेते ही लोग नाक-भों सिकोड़ने लगते हैं।  आमजन में यह मान्यता है, पुुलिस से न दोस्ती अच्छी और न दुश्मनी। दूर बने रहो तो ही अच्छा। इसलिए अनेक भद्रजन पुुलिस वालों को न तो अपनी लड़कियां ब्याहना चाहते हैं और न उन्हें मकान किराए पर देना। बैंक वाले लोन देने में कतराते हैं। ऐसी बहुत सी बातें हैं जिससे समाज में पुलिस की छवि सरकारी गुंडों से ज्यादा की नहीं हैं। लेकिन कोरोना के खिलाफ महासंग्राम में पुलिस लोगों की जिस तरह रहनुमा बनकर आई है, उसने सबको आश्चर्य चकित किया है। ऐसा नहीं है कि पुलिस पूरी तरह बदल गई है,अब गाय के रूप  में आ गई है, अब भी  उसके खिलाफ बहुत सी शिकायतें हैं। अनेक स्थानों पर  उसने राह चलते लोगों को पीटा है, निर्दोषों की घर में घुसकर तुड़ाई की है। कहीं-कहीं पास होने के बावजूद लोगों से वसूली की

मरना जरूरी है?

                                                                -डा. सुरेंद्र सिंह एक मोटर साइकिल के विज्ञापन में हीरोइन के सिर पर मटकी रख उसे ऊबड-खाबड ़स्थानों पर ऐसे फर्राटेदार घुमाया जाता है जिसे देखकर भी डर जाएं। लेकिन उसके साथ बताया जाता है-डरना मना है। यह विज्ञापन की दुनिया है, इसमें डराकर भी डरने की मनाही है। लेकिन असल दुनिया इसके विपरीत है। डरने की छोड़िए, मरना भी जरूरी है, यदि कुछ पाना चाहते हैं। परिवार का भला करना चाहते हैं तो मरिए? कहने को ढेरों कल्याणकारी योजनाएं हैं, पर उनका लाभ पाने के लिए चप्पल घिस जाएंगी। हलख सूख जाएंगे। पिट जाएंगे, कुट जाएंगे,  फिर भी कोई गारंटी नहीं है। बहुत से लोग कमाने के लिए महानगरों को आए। दिन-रात काम किया। बड़े-बड़े सपने थे, बेटे को पढ़ाएंगे, नौकरी लगवाएंगे। बेटी की शानदार शादी करेंगे, पक्का मकान बनवाएंगे ताकि पड़ोसी भी जलें। क्या मिला? बाबाजी का ठुल्लू। भूखे पेट नंगे पैरों सैकड़ों मील भागना पड़ा। टीवी पर प्रचार की भरमार है, जिन पर राशनकार्ड नहीं हैं, उन्हेंभी मिलेगा। कोई निराश न हो। पर अनेक महिलाएं दुकानों के चक्कर लगा-लगा कर थक गई, कई दिन चक्कर काटे।

मैं हूं कोरोना

                                                                            -डा. सुरेंद्र सिंह  मैं समय-समय पर इस धरती पर आता रहता हूं। पहले भी आया था और आगे भी आता रहूंगा कभी किसी रूप में आता हूं तो कभी किसी रूप में। मेरे रूप अनेक हैं लेकिन मैं एक ही हूंं।  कभी अकारण नहीं आता हूं। मुझे किसी को परेशान करने का  शौक नहीं है और न लाखों लोगों को  मरते देख मुझे खुशी होती है। मैं तो  सभी को हंंसी खुशी देखकर ही प्रसन्न था। मैं इस वक्त भी हरगिज नहीं आना चाहता था। मैंने कई बार चेताया, मान जाइए, मान जाइए लेकिन आप लोग नहीं माने। आपने ही मुझे  मजबूर किया। मुझे आना पड़ा। अब भुगतो। मैंने आपको सब कुछ दिया। खाने-पीने, पहनने- ओढ़ने, सैर-सपाटे करने, एक- दूसरे की मदद करने। आपके पास क्या नहीं है, क्या कमी है? जरूरत से बहुत ज्यादा खाद्यान्न है, फिर भी अकेले भारत में बीस करोड़ से ज्यादा लोग भूखे पेट सोते हैं। सड़ जाता है लेकिन गरीबों के मुंह नहीं पड़ने देते। दूसरे अनेक मुल्कों में तो गरीबों की देने की बजाय समुद्र में डाल दिया जाता है। फल, सब्जी, दूध की कोई कमी है? एक से एक बढ़कर रमणीक स्थल हैं। झर-झर बहती नदिया थ

आम आदमी का भी हक

                                                                 -डा. सुरेंद्र सिंह कोरोना की चपेट में आकर जान गंवाने वाले अनेक सरकारी कर्मियों को एक करोड़ और कुछ को पचास लाख रुपये मिलेंगे। इसके अलावा उनका कोई और बीमा होगा, वह मिलेगा, फंड, ग्रेच्युटी आदि के अनेक लाभ मिलेंगे। उत्तराधिकारी को सरकारी नौकरी और पेंशन भी। ये लाभ मिलने भी चाहिए। मरने वाला कभी लौटकर नहीं आता। किसी की भी जान के मुकाबले यह सब कोई मायने नहींं रखता। जान अनमोल है।  महाराष्ट्र में रेल पटरियों पर मालगाड़ी से कुचलकर मरे 16 लोगों के आश्रितों को भी पांच-पाच लाख रूपये देने की घोषणा कर दी गई है। जिस तरह से उनकी दर्दनाक मौत हुई, वे भले ही इसके लिए एक हद तक जिम्मेदार माने जाएं लेकिन वे सभी कमाने वाले थे और अपने परिवार का भरण पोषण करने की जिम्मेदारी उन पर थी।  यही मानते हुए यह मदद दी जा रही है, जो उचित ही है।। आगरा में ‘दैनिक जागरण’ अखबार के पत्रकार पंकज कुलश्रेष्ठ अपनी मौत के लिए खुद कतई जिम्मेदार नहीं थे। वह समाज के लिए अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए कोरोना की चपेट में आए और जान से हाथ धो बैठे। उनके परिवार में भी उनके अलावा कोई

हे, दारू देवी तुझे प्रणाम

                                                                      -डा. सुरेंद्र सिंह हर चीज के दो पहलू हैं। जिससे नुकसान है, उससे फायदे भी हैं। दारू पीने के भी अनेक फायदे हैं। समाज में यह मान्यता है जिस काम को ज्यादा लोग करें, जिस रास्ते पर ज्यादा लोग चलें वह ही अच्छा है। उस पर आंख बंद कर चल सकते हैं। लौकडाउन में जरा सी ढील मिलते ही सबसे ज्यादा भीड़ दारू की दुकानों पर है। सब्जी की ठेल वाले गली-गली में मारे-मारे फिर रहे हैं, कुत्ता नहीं पूछ रहा, दूधिये पुलिस की मार खा रहे हैं लेकिन दारू लाइन लगवा कर बिक रही है, सुरक्षित तरीके से। भीड़ संभाले नहीं सभल रही , सुबह चार बजे से लाइनें लग जाती हैं। जनता सरकार बनाती है। जनता ही सरकार चलवाती है। जब सरकार बन जाती है तो  वह जनता पर हुक्म चलाती है। सबकी जिम्मेदारी है, सरकार बनाते रहें और चलवाते रहें। सरकार चलवाने में जिसका जितना ज्यादा योगदान वह उतना ही त्यागी और समाजसेवी ! अब जब सरकार की आर्थिक कमर टूटी जा रही है तो बचाने में सबसे पहले आगे आने वाले कौन हैं? यही दारू पीने वाले। करीब दो गुनी कीमत किए जाने पर भी भाईजान अपनी जिम्मेदारी से पीछे न

देश को बचाना है

                                                           -डा.सुरेंद्र सिंह विश्व को तो बचा लिया, हाइड्रोक्लोरीक्विन की गोलियां  देकर। पूरी दुनिया में डंका पिट गया। बड़े-बड़ों ने नाक रगड़ी। तब जान और जहान दोनों की जिम्मेदारी निभाई। अब देश को बचाना है। देश बचना ही चाहिए। देश से बढ़कर कोई चीज नहीं है। देश को बचाने के लिए तरह-तरह के कदम उठाए जा रहे हैं। कभी ताली और थालियां बजाकर तो कभी दीपक जलाकर। बड़े-बड़े अस्पतालों पर फूल बरसाकर, समुद्र के किनारे जहाजों में चमकदार रंगबिरंगी रोशनी करके तथा लड़ाकू जहाजों को देश के एक कोने से दूसरे छोर तक फर्राटेदार  उड़ाकर।  लोग दिन रात लगे हैं। करन सिंह ने कहा- भाई साहब, यदि दो-चार मिसाइल दाग दें तो कोरोना का रोंआ-रौंआ बिखर जाएगा। वह सात समंदर दूर जाकर गिरेगा।  महाराष्ट्र में भूख-प्यास से परेशान 18 लोग सीमेंट के मिक्सर में बैठकर जा रहे थे, चुपचाप।  कोशिश तो ऐसी की थी कि किसी को कानोंकान खबर नहीं लगे। अरमान थे, गांव में पहुंच जाएंगे तो पेट भर कर खाना खाएंगे। पुलिस की तिरछी नजर ने उज्जैन के पास पकड़ लिए। मिक्सर में दिए डंडे चार, सब तोते की तरह निकलकर बाहर आ ग

मक्खी चूस

                                                                                                     -डा. सुरेंद्र सिंह करन सिंह कोरोना के चक्कर में  दिन भर घनचक्कर होता रहता है।कभी छत पर तो कभी नीचे कमरे में।कभी इस कमरे में तो कभी उस कमरे में। आंगन में तो कभी बरांडे में। बाहर निकलना  दूर, गेट तक छूने की  इजाजत नहीं है। बिस्तर पर पड़ा है। टीवी पर लगातार संक्रमितों की बढ़ती संख्या और क्वारंटाइन सेंटरों पर लोगों की दुर्दशा के हाल सुन-सुन कर दिमाग खराब है। आशंकाओं की आंधी चल रही है। लगता है यह उसे कहीं का नहीं छोड़ेगी। ऐसे ही रहा तो दिमाग फट जाएगा। उसे महसूस होता है, गला खराब है, बीच-बीच में खांसी आ जाती है। पड़ोसी की सूचना पर उसे  पकड़कर दूर के क्वारंटाइन सेंटर में बंद कर  दिया है। पता नहीं कौन सी दुश्मनी निकाल ली। यहां न कोई उसके हालचाल लेने वाला है न दवादारू की पूछने वाला। सुबह बीस लोगों के लिए दस चाय आई। चूंकि वह नया था, इसलिए उसे वंचित होना पड़ा। दोपहर को खाने में ठंडे नमकीन  चावल। डाक्टर ने चावल की मनाही कर रखी है लेकिन भूखा रहे तो कितना? घर में होता तो पत्नी  पर  फेंक कर मारता, गाली

गधे के सींग-2

                                                                     -डा. सुरेंद्र सिंह ऊपर से आदेश है, गांवों का विकास करना है। लौकडाउन के कारण वैसे तो पुलिस घर से निकलने नहीं देगी यदि निकले भी तो  हाथ-पैर तोड़ देगी। बड़ी मुश्किल है। लाख मुश्किल हो गांवों को तो कोरोना से बचाना ही होगा। एयरकंडीशनर में बैठकर चिंतन चल रहा है। कुछ न कुछ  करना ही होगा वरना माना जाएगा , हम नाकारा हैं, इतनी बड़ी महामारी . जहां सारे देश का अमला जुटा है, हम कुछ नहीं कर सके, हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे, निकम्मे कहीं के।  एक दूसरे से फोन पर सलाह- मशविरा किया।  सोचो भाई, सोचो। कोशिश करो, कोई न कोई रास्ता निकलेगा , जरूर निकलेगा०। यकायक उधर से करन सिंह की आवाज आई। -‘‘सर एक आइडिया है, कृषि मंत्रालय की गाइडलाइन किसानों को भेज देते हैं’’। -‘‘लेकिन वह तो अंग्रेजी में है’’। -‘‘तो क्या हुआ? सरकार ने भी तो अंग्रेजी में जारी की है। जैसा सरकार ने भेजा है, वैसा ही भेजो। सरकार के आदेश का अक्षरश: पालन करना है। -‘‘लेकिन  भेजोगे किसे? किसान तो खेतों में काम कर रहे हैं, क्या उन सबके ह्वाट्सएप्प नंबर आपके पास हैं’’? -‘‘प्रधानों