देश को बचाना है


                           
                               -डा.सुरेंद्र सिंह
विश्व को तो बचा लिया, हाइड्रोक्लोरीक्विन की गोलियां  देकर। पूरी दुनिया में डंका पिट गया। बड़े-बड़ों ने नाक रगड़ी। तब जान और जहान दोनों की जिम्मेदारी निभाई। अब देश को बचाना है। देश बचना ही चाहिए। देश से बढ़कर कोई चीज नहीं है। देश को बचाने के लिए तरह-तरह के कदम उठाए जा रहे हैं। कभी ताली और थालियां बजाकर तो कभी दीपक जलाकर। बड़े-बड़े अस्पतालों पर फूल बरसाकर, समुद्र के किनारे जहाजों में चमकदार रंगबिरंगी रोशनी करके तथा लड़ाकू जहाजों को देश के एक कोने से दूसरे छोर तक फर्राटेदार  उड़ाकर।  लोग दिन रात लगे हैं। करन सिंह ने कहा- भाई साहब, यदि दो-चार मिसाइल दाग दें तो कोरोना का रोंआ-रौंआ बिखर जाएगा। वह सात समंदर दूर जाकर गिरेगा।
 महाराष्ट्र में भूख-प्यास से परेशान 18 लोग सीमेंट के मिक्सर में बैठकर जा रहे थे, चुपचाप।  कोशिश तो ऐसी की थी कि किसी को कानोंकान खबर नहीं लगे। अरमान थे, गांव में पहुंच जाएंगे तो पेट भर कर खाना खाएंगे। पुलिस की तिरछी नजर ने उज्जैन के पास पकड़ लिए। मिक्सर में दिए डंडे चार, सब तोते की तरह निकलकर बाहर आ गए। हरामजादो छुपकर जा रहे हो, शर्म नहीं आती। उठाकर सबको   क्वारंटीनसेंटर में बंद कर दिया। चालक को जेल भेज दिया।  पुलिस चाहे तस्करों को नहीं पकड़ पाए, बड़े अपराधी दिन दहाड़े आंखों में धूल झोंक जाएं लेकिन ऐसे लोगों तो पकड़ ही लेती है।  आखिर देश को जो बचाना है। यदि वे अपने घर पहुंच जाते तो किसी का क्या बिगड़ जाता लेकिन देश को जो बचाना था।
गाजियाबाद में जब कुछ नहीं मिला तो एक मजदूर पैदल ही अपने घर के लिए अंबेडकर नगर को चल दिया। चलते-चलते बीच रास्ते में दम तोड़ दिया। ऐसी खबरें आए दिन आ रही हैं, जिसमें निर्दोंषों की जानें चली जा रही हैं। जितने कोरोना से मर रहे हैं, उससे ज्यादा इलाज के अभाव और भूख प्यास से मर रहे हैं। मर रहे हैं तो मरें,अपनी बला से। किसने कहा था बीमार होने और पैदल चलने के लिए। देश क्या उन्हीं के लिए बैठा है।
देश के बंटवारे के दौरान दोनों तरफ के करीब  डेढ लाख लोग मरे। जिस समय दोनों तरफ कुछ सिरफिरों द्वारा निर्दोषों को मौत के घाट उतारा जा रहा था, कुछ ने जिन्ना से बचाव की गुहार लगाई। उनका दू टूक जबाव था- ‘‘देश के लिए कुछ को तो बलिदान करना ही होगा’’। आखिर देश को बनाना था। देश को बनाने और बचाने के लिए कुछ को हमेशा बलिदान करने ही पड़ते हैं।
देश के विभिन्न शहरों में करीब डेढ़ करोड़ मजदूर फंसे हैं। चालीस दिन में जब देश को कोरोना की भयंकर चपेट में आने से बचा लिया गया है। उन्हें अपने घरों पर जाने के लिए विशेष रेलगाडियां चालू कर दी हैं। कहीं-कहीं बसें भी चलाई  जा रही हैं,  सांसद उन्हें हरीझंडी दिखाते हुए फोटो खिचवा रहे हैं।  35 रेलगाड़ियां भारी तामझाम के साथ रोज निकाली जा रही हैं।  किसी गाड़ी में करीब बारह सौ तो किसी में एक हजार से कुछ कम मजदूर बैठाए जा रहे हैं। सोशल डिस्टेंसिंग का पूरा ख्याल रखा जा रहा है। बाकी मजदूरों के नाम और पते पंजीकृत किए जा रहे हैं। सबको बारी-बारी से भेजा जाएगा।  यदि इसी गति से मजदूर अपने घरों पर भेजे गए तो एक साल से ज्यादा लग जाएंगे।  तब तक वे क्या खाएंगे, जबकि उनकेपर तो खाने के लिए भी पैसे नहीं हैं। नंगी क्या पहनेगी और क्या ओढ़ेगी?। यदि सरकार चाहे तो  दो से तीन दिन में सारे मजदूर उनके घरों पर पहुंचाए  जा सकते हैं क्योंकि देश में मौजूद करीब 12500 सवारी रेलगाडियों में एक दिन में  करीब ढाई करोड़ यात्रियों को ढोने की क्षमता है। इसका हिसाब-किताब लगाने के लिए कौन बैठा है। उन्हें तो देश को बचाना है।
देश और दुनिया भर के अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि लौकडाउन से अर्थव्यवस्था धरातल में जा रही है। करोड़ों लोग बेरोजगार होने जा रहे हैं। देश की विकास दर माइनस में चली जा रही है।  जा रही है तो जाए, उन्हें तो देश को बचाना है।
लौकडाउन में छूट के नाम पर कुछ उद्योगों, कुछ कार्यालयों, दारू के ठेकों को खोला गया है। दारू के ठेकों के लिए रेड जोन मे भी अनुमति दे दी गई है। सब्जी, दूध और दवा मिले या नहीं मिले दारू चाहे जितनी ले सकते हो। लाइन में लगाकर बिकवाई जा रही है। आखिर देश को बचाना है।



                  

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