इतिहास का सबसे बड़ा पलायन

                      
       
                               -डा. सुरेंद्र सिंह
शायद यह दुनिया के इतिहास में भारत में अब तक का सबसे बड़ा पलायन है। चाहे  जिधर निगाह डालें सड़कों पर, रेल की पटरियों पर और गावों की पगडंडियों पर अपनी पोटलियों और छोटे बच्चों को कंधों पर लादे लोग चलते चले जा रहे हैं। न दिन का होश और न रात की परवाह। वश एक ही धुन, कैसे भी  अपने गांव पहुंचना है।  सैकड़ों लोगों ने चलते-चलते रास्ते में दम तोड़ दिया। अनेक रेल से कुचलकर मर गए और कुछ को सड़कों पर वाहनों ने कुचल दिया लेकिन उनके कदमों ने रुकने का नाम नहीं लिया।
देश के विभाजन के वक्त स्थिति विपरीत थी। अंग्रेजों ने इसे खोखला करके छोड़ा था।  गरीब मुल्क था। व्यवस्थाएं नहीं थीं। हिंदुस्तान से लोग अपनी स्वेच्छा से जा रहे थे तो पाकिस्तान से उन्हें जबरन खदेड़ा जा रहा था। जबर्दस्त मारकाट और दंगे फसाद थे। उस स्थिति में पाकिस्तान से करीब 72.50 लाख लोग आए और हिस्दुस्तान से करीब 72.20 लाख लोग गए। मौजूदा समय में ऐसा कोई कारण नहीं है। फिर भी पहले से कई गुना ज्यादा मजदूरों का विकराल पलायन है।
यह पलायन इस बात का  प्रमाण है कि आजादी के बाद 73 साल में हम किस मुकाम पर आ गए हैं, हमने कितनी तरक्की कर ली है? महानगरों में जरूर बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं बन गई हैं, कुछ अरबपतियों की संख्या बढ़ गई हैं, वाहनों की संख्या इतनी हो गई है कि जाम लगने लगे हैं। कहने को दुनिया की सबसे तेज गति से आर्थिक विकास की रफ्तार का तमगा हमारे पास है। परमाणु बम हैं। अंतरिक्ष मेंं नित नई छलांग लगा रहे हैं।  लेकिन गरीब मजदूर अभी भी वहीं के वहीं हैं। आजादी के वक्त पलायन में उनके सिरों पर पोटलियां थीं, अब भी उनके सिरों पर वहीं पोटलियां हैं। पहले भी वे रोटी के लिए इधर से उधर हुए अब भी रोटी के लिए दर-बदर हैं। गांव से शहर आए थे, रोटी के लिए। अब शहरों से गांव चल दिए हैं रोटी के लिए। 
वैदिककाल से हम बसुधैवकुटुंबकम और मानवीयता का पाठ पढ़ते आए हैं, कोरोना ने प्रमाणित किया हमारे ये मूल्य  कितने खोखले हो गए हैं। जिनके दम पर शहर बुलंदियां छू रहे थे, उन्हें थोड़े दिन भी  झेल नहीं पाए। सरकारों ने भी जता किया कि वे कुछ ही लोगों ने हितों के लिए काम करती हैं। वरना क्या हो जाता लौकडाउन लगाने से पहले दो-चार दिन की मोहलत दे दी जाती, जो जहां जाना चाहता वह पहुंच जाता।  बाद में भी अब जबकि यातायात में छूट दी गई, उसमें भी कोताही बरती गई। सोशल डिस्टेसिंग के नाम पर जो तमाशा किया गया, उसकी धज्जियां तो वैसे भी उड़ रही हैं। इसे सरकार की अदूरदृष्टिता नहीं तो और क्या माना जाएगा?
देश में करीब 40  करोड़ मजदूर हैं जो देश की  अर्थव्यवस्था की गाड़ी को पटरी पर खींचते हैं। जब तक ये चलते हैं, तब तक ही यह अर्थव्यवस्था है, इनके हाथ थमे तो अर्थव्यवस्था का पहिया डगमगाने लगता है। अंतर्रष्ट्रीय श्रम संगठन ने समय रहते  चेताया था कि कोरोना के संक्रमण के कारण  मजदूरों को लेकर बड़ी समस्या पैदा हो सकती है,  दो तिहाई मजदूर बेरोजगार हो सकते है । लौ़कडाउन का आदेश भी संयुक्त राष्ट्र संघ का था। इसके अनुपालन में 24 मार्च से देशव्यापी लौकडाउन लगा दिया गया। उस वक्त मजदूरों की इतनी बड़ी संख्या को एकदम नजरअंदाज कर दिया गया। केवल फरमान सुनाया गया कि जो जहां है, वहीं रुका रहे। इस बात का आकलन नहीं किया गया कि इतनी बड़ी संख्या में मजदूरों के लिए रहने, खाने और सोशल डिस्टेसिंग के लिए कोई व्यवस्था हो पाएगी या नहीं? किसी से कोई सलाह मशविरा भी नहीं किया गया। उसी यह हश्र सामने है।
इन मजदूरों में से  कुछ के पास अपने घर है, उन्हें कहीं जाने की आवश्यकता नहीं थी लेकिन करीब दस करोड़ ऐसे मजदूर हैं जो किसी भी हालत में अपने घरों पर पहुंचना चाहते हैं। केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने प्रवासी मजदूरों की संख्या आठ करोड़ मानी है। उन्होंने इनके कल्याण की योजनाओं की भी कई घोषणा की हैं।  सरकारों ने, स्वयं सेवी सस्थाओं और व्यक्तिगत तौर पर तमाम लोगों ने इनके खाने-पीने और रहने की यथासंभव व्यवस्थाएं की लेकिन वे नाकाफी  साबित  रहीं। कई जगह पूरे दिन किलोमीटरों तक लाइन में लगने पर कुछ को  एक जून का खाना मिल पाया तो कहीं-कही  कुछ नहीं मिला। शायद उन्हें यह पता ही नहीं होगा कि कहीं मुफ्त में खाना मिल रहा है।  बहुत से मजदूरों नेअपनी जमा पूंजी खर्च करके अपना काम चलाया जब कुछ नहीं बचा तो लोग पैदल ही चल दिए। विभिन्न हाईवे पर किलोमीटरों लंबी लाइनें लगी देखी गईं। पुलिस ने उन्हें जगह-जगह रोका, अनेक स्थानों पर उनकी पिटाई भी हुई। कई स्थानों पर मजदूर विद्रोह पर उतर आए तो उन्हें लाठीचार्ज और आंसूगैस के नियंत्रित किया गया।
बहुत से लोग सड़कों को छोड़कर गांवों के पगडंडियों से होकर निकले। अनेक स्थानों पर उन्हें भी पकड़ लिया। खाने का इंतजाम नहीं होने पर कई स्थानों पर पुलिस ने मजदूरों को एक जिले से दूसरे जिलों की सीमा में छोड़ने का शर्मनाक कृत्य किया गया, जिससे वे अपनी जिम्मेदारी से बच सकें। एकाध स्थान पर ऐसा भी हुआ कि सैकड़ों किलोमीटर पैदल  घर की ओर निकल आने पर पुलिस उन्हें वापस उसी जिले की सीमा में छोड़ आई। राजस्थान की पुलिस ने  सैकड़ों मजदूरों को मथुरा से उत्तर प्रदेश की सीमा में प्रवेश कराने की कोशिश की तो स्थानीय पुलिस की उससे तकरार हो गई। इसमें एकाध  पुलिस कर्मी घायल हो गए। इंतिहा तब हो गई जब एक पुलिस अफसर ने अपने ही प्रदेश के मजदूरों को आने से रोकने के लिए झगड़ा करने वाले पुलिस कर्मियों को पुरस्कृत भी कर दिया। चिंतनीय यह भी है कि जब मजदूरों के खाने और ठहरने का इंतजाम नहीं है, तो  उन्हें रोका ही क्यों गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब कहा कि मजदूरों को रोका नहीं जाए तभी राह चलते मजदूरों की रोका-राकी कुछ कम हुई। फिर भी मजदूरों की दुश्वारियां कम नहीं हुईं। 
बिहार और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्रियों ने एक बार को अपने ही राज्य के मजदूरों को वापस बुलाने से इंकार कर दिया। उड़ीसा ने एक कदम आगे बढ़कर कोरोना पीड़ितों को राज्य में नहीं आने देने के लिए हाईकोर्ट से  स्थगनादेश ले लिया। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने उस पर स्थगनादेश जारी कर दिया। यह कैसी स्थिति है कि राज्य के मुखिया जिन पर राज्य के सभी नागरिकों के कल्याण की जिम्मेदारी है, वह अपने अन्य नागरिकों को बचाने के लिए दूसरे लोगों को लेने के लिए तैयार नहीं हैं। ठीक है उनमें से कुछ संक्रमित होंगे, उनसे दूसरे लोगों में संक्रमण फैलने की आशंका है, फिर भी उन्हें उनके हाल पर मरने के लिए कैसे छोड़ सकते हैं?





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