मरना जरूरी है?

                          
                                     -डा. सुरेंद्र सिंह
एक मोटर साइकिल के विज्ञापन में हीरोइन के सिर पर मटकी रख उसे ऊबड-खाबड ़स्थानों पर ऐसे फर्राटेदार घुमाया जाता है जिसे देखकर भी डर जाएं। लेकिन उसके साथ बताया जाता है-डरना मना है। यह विज्ञापन की दुनिया है, इसमें डराकर भी डरने की मनाही है। लेकिन असल दुनिया इसके विपरीत है। डरने की छोड़िए, मरना भी जरूरी है, यदि कुछ पाना चाहते हैं। परिवार का भला करना चाहते हैं तो मरिए?
कहने को ढेरों कल्याणकारी योजनाएं हैं, पर उनका लाभ पाने के लिए चप्पल घिस जाएंगी। हलख सूख जाएंगे। पिट जाएंगे, कुट जाएंगे,  फिर भी कोई गारंटी नहीं है। बहुत से लोग कमाने के लिए महानगरों को आए। दिन-रात काम किया। बड़े-बड़े सपने थे, बेटे को पढ़ाएंगे, नौकरी लगवाएंगे। बेटी की शानदार शादी करेंगे, पक्का मकान बनवाएंगे ताकि पड़ोसी भी जलें। क्या मिला? बाबाजी का ठुल्लू। भूखे पेट नंगे पैरों सैकड़ों मील भागना पड़ा।
टीवी पर प्रचार की भरमार है, जिन पर राशनकार्ड नहीं हैं, उन्हेंभी मिलेगा। कोई निराश न हो। पर अनेक महिलाएं दुकानों के चक्कर लगा-लगा कर थक गई, कई दिन चक्कर काटे। हर बार वहीं जवाब - ‘‘अभी राशन आया नहीं है। जब आएगा, तभी मिलेगा’’। कुछ सस्ते गल्ले की दुकानों पर एक राशनकार्ड पर महीने भर के लिए पांच किलो खाद्यान्न मिल रहा है। घर में आठ मैंबर हैं। एक दिन के लिए भी पर्याप्त नहीं है। बाकी 29 दिन क्या उपवास करे? या बच्चों को नाद के नीचे दवा दे।
विभिन्न महानगरों में पिछले पचास दिन से मजदूर भेड़ बकरियों की तरह रह रहे थे। जिनके लिए खून पसीना एक किया उन मालिकों ने साथ छोड़ दिया। जिस सरकार के गठन के लिए लंबी लाइनों में लगकर वोट दिए, उसका  तंत्र भी सबका पेट भरने में नाकाम रहा। क्या मिला? महाराष्ट्र के औरंगाबाद में 16 मजदूर रेल से कटकर मर गए। फटाफट पांच-पांच लाख रुपये आ गए। उत्तर प्रदेश के औरैया में ट्रकों की टक्कर में 24 लोग मर गए।। उनके लिए तीन-तीन लाख रुपये आ गए। दो-दो लाख रुपये  राज्य सरकार की ओर से एक-एक लाख समाजवादी पार्टी के ओर से। मुख्यमंत्रियों और बड़े-बड़े नेताओं की सहानुभूति भी झोली भर-भर के आ रही हैं। हो सकता है कि ये नेता लोग अब उनके घरों पर भी जाएं। अफसर तो चक्कर लगाएंगे ही।। है न मरना जरूरी?
रास्ते में अभी भी लाखों लोग चल रहे हैं। अपनी पोटलियों और बच्चों को लादे कुछ सड़कों पर पैदल तो कुछ रिक्शों, आटो, ट्रकों में। जिसे जो साधन मिल रहा है, उसी से चला जा रहा है। ये लोग दुनिया के अब तक के सबसे बड़े एतिहासिक पलायन का हिस्सा हैं। इतिहास इन्हें याद रखेगा। जीते जी इन्हें शायद एक गिलास पानी भी न मिले पर मरने के बाद वह सब कुछ मिल जाता है।
मरने के कई फायदे हैं। एक तो रोज-रोज की मौत से मुक्ति। न ऊधो का लेन न माधौ का देन।  अपना भला, परिवार का भी भला। अड़ोसी-पड़ोसी, नाते- रिश्तेदारों की सहानुभूति। जो लोग सामने भी गाली के बिना बात नहीं करते, वे लोग भी तारीफ करेंगे- आदमी तो अच्छा था। मरना तो सभी को है चाहेअब मरें या बाद में। इसलिए बहती गंगा में क्यों न हाथ धो लिए जाएं? 
इलाहाबाद में एक ऐतिहासिक बरगद का पेड़ था। उससे कूदकर मरनेवालों को स्वर्ग मेंजाने के सपने दिखाए जाते थे। स्वर्ग की आस में तमाम लोग मरते थे। मुगलो ने उसे कटवा दिया। बेशरम पेड़अब फिर से खड़ा है। कुछ का तो भला करेगा।

Comments

  1. नीति बना लेना अलग बात है, लेकिन उस पर अमल तो तंत्र को ही करना है. और तंत्र....... भारत ही नहीं दुनिया के ज्यादातर देशों में तंत्र की बुरी हालत है. इसमें दीमक लगी हुई है. कहीं भ्र्ष्टाचार की तो कहीं अकर्मण्यता की.. इसे सुधारेगा कौन? तंत्र बनता किससे है? समाज ही तंत्र की आधारशिला है. जैसा समाज होगा, वहां वैसा ही तंत्र विकसित होगा. समाज अगर ईमानदार नहीं तो तंत्र ईमानदार नहीं हो सकता. और समाज ईमानदार तब होगा जब हम स्वयं ईमानदार होंगे. अफ़सोस हम चाहते हैं की हमारा पडोसी ईमानदार हो लेकिन हमारा घर ऊपरी कमाई से भरता रहे. समाज का ये दोगलापन तंत्र को कमजोर किये हुए है..

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