आम आदमी का भी हक

                          
                                      -डा. सुरेंद्र सिंह
कोरोना की चपेट में आकर जान गंवाने वाले अनेक सरकारी कर्मियों को एक करोड़ और कुछ को पचास लाख रुपये मिलेंगे। इसके अलावा उनका कोई और बीमा होगा, वह मिलेगा, फंड, ग्रेच्युटी आदि के अनेक लाभ मिलेंगे। उत्तराधिकारी को सरकारी नौकरी और पेंशन भी। ये लाभ मिलने भी चाहिए। मरने वाला कभी लौटकर नहीं आता। किसी की भी जान के मुकाबले यह सब कोई मायने नहींं रखता। जान अनमोल है। 
महाराष्ट्र में रेल पटरियों पर मालगाड़ी से कुचलकर मरे 16 लोगों के आश्रितों को भी पांच-पाच लाख रूपये देने की घोषणा कर दी गई है। जिस तरह से उनकी दर्दनाक मौत हुई, वे भले ही इसके लिए एक हद तक जिम्मेदार माने जाएं लेकिन वे सभी कमाने वाले थे और अपने परिवार का भरण पोषण करने की जिम्मेदारी उन पर थी।  यही मानते हुए यह मदद दी जा रही है, जो उचित ही है।। आगरा में ‘दैनिक जागरण’ अखबार के पत्रकार पंकज कुलश्रेष्ठ अपनी मौत के लिए खुद कतई जिम्मेदार नहीं थे। वह समाज के लिए अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए कोरोना की चपेट में आए और जान से हाथ धो बैठे। उनके परिवार में भी उनके अलावा कोई और कमाने वाला नहीं है। सरकार ने पूरे देश में लौकडाउन घोषित किया है। चाहते तो वह कोई बहाना बनाकर घर पर सुरक्षित बैठ सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। यदि पंकज कुलश्रेष्ठ और उन जैसे सभी पत्रकार लौक डाउन में चले जाएं तो सरकार अपनी बात जनता तक नहीं पहुंचा सकती और नहीं कोरोना के प्रति जागरूकता  लाई जा सकती जो इस समय सबसे ज्यादा आवश्यक है। एक चिकित्सक कुछ मरीजों की जान की रक्षा करता है लेकिन एक पत्रकार तमाम लोगों को कोरोना की गिरफ्त में आने से बचाता है। इसलिए पत्रकार  की जान की कीमत किसी भी सरकारी कर्मचारी की जान की कीमत से कम नहीं आंकी जानी चाहिए।  वह कोरोना वारियर्स थे। इसलिए उनके परिवार को भी उतनी ही आर्थिक मदद मिलनी चाहिए जो अन्य कोरोना वारियर्स को दी जा रही है।
अब लीजिए आम नागरिकों को, इनमें से भी तमाम लोग कोरोना की चपेट में आकर जान गंवा रहे है 12 मई तक 2200 से ज्यादा लोग कोरोना की चपेट में आकर मर चुके हैं,  अभी और कितने लोग कालकवलित होंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता।  ये लोग भी अपनी मौत के लिए कतई जिम्मेदार नही। इन्हें भी उस अदृश्य दुश्मन ने डसा, जिसकी चपेट में कोरोना वारियर्स आ रहे हैं।  ये सभी देश के जिम्मेदार आम नागरिक थे। आम नागरिकों के वोटों से ही सरकार बनती है और उन्हीं के लिए बनती है। ऐसे में उनके हितों को नजर अंदाज नहीं कर सकते।  कोई भी सरकार जितना सरकारी कर्मचारियों के हित के लिए जिम्मेदार है, उतनी ही आम नागरिकों के लिए। सरकार और सरकार का पैसा केवल राजनीतिज्ञों और सरकारी कर्मियों के लिए ही नहीं है, उस पैसे पर आम नागरिकों का भी हक है। जनता केवल वोट और टैक्स देने के लिए नहीं है। उसके हक भी हैं। इस तरह आम नागरिकों के मरने पर उनके आश्रितों को भी सहायता मिलनी चाहिए।
यदि सरकार केवल सरकारी कर्मियों के लिए कार्य करती है, व्यवहार में आजादी के बाद से अब तक उसका यही रूप देखा जा रहा है, नीचे के लोगों के लिए विभिन्न योजनाओ ं के जरिए केवल आंसू पौंछने जैसा काम किया जाता है।  यह लोकतंत्र के लिए बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह है। इस पर  अब विचार-मंथन होना चाहिए।  यदि यह  आगे भी इसी तरह चलता रहा तो फिर लोकतंत्र और राजतंत्र में क्या फर्क रह जाएगा? राजतंत्र में सरकार के गिने-चुने लोग मौज मारते थे। अपनी  आगे की पीढ़ियों के भविष्य को सुनिश्चित करते थे। अब भी वैसा ही चल रहा है।
अब समय आ गया है कि लोकतंत्र के मूल्यों को फिर से पारिभाषित करें। आम जनता और कुछ खास लोगों के बीच जो खाई बढ़ती जा रही है, उसे कम करने के लिए भी ठोस कार्य किया जाए। समूचे देश के सारे नागरिकों के लिए न्यूनतम आवश्यकता निर्धारित कर उसकी पूर्ति की जानी चाहिए।
चाहे कोई बड़े से बड़ा अधिकारी हो, सरकार का प्रतिनिधि हो अथवा निहायत ही गरीब आम आदमी, रोटी, कपड़ा, रहने की व्यवस्था, स्वास्थ्य और शिक्षा सबकी मूल और न्यूनतम आवश्यकता हैं। इसका कोई मानक तय किया जाना चाहिए। सभी को यह सुविधा मिलनी चाहिए। ऐसा नहीं है कि यह कोई नई और अजीब  बात हो, अमेरिका, जर्मनी, लीबिया समेत दुनिया के अनेक मुल्कों में ऐसा किया जा रहा है।
अपने मुल्क में एक ओर जहां कुछ लोगों को लाखों रुपये मासिक वेतन मिलता है, ऊपर से उनके लिए तमाम सुविधाएं हैं। यही नहीं, मंहगाई भत्ते आदि हर साल बढ़ते ही रहते हैं। जबकि इसके विपरीत देश के बीस करोड़ से ज्यादा लोगों को भरपेट भोजन भी उपलब्ध नहीं है। अखबारों में छपी रिपोर्ट के अनुसार देश के एक प्रतिशत लोगों पर देश की तीन चौथाई संपत्ति है। बाकी 99 प्रतिशत लोग 25 प्रतिशत संपत्ति में गुजारा कर रहे हैं। यह खाई दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। जो लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए सबसे चुनौती है।
देश के हुक्मरान यह कहते नहीं थकते कि वे अब विश्व की बड़ी शक्तियों के मुकाबले में आ गए हैं। भारत अब महाशक्ति बनने जा रहा है। अंतरिक्ष के कुछ अनुसंधान कार्यों,  मिसाइलों के परीक्षण और उपग्रह प्रक्षेपित करके अथवा कुछ मुल्कों को हाइड्रोक्लोरोक्विन गोलियों की सप्लाई करके लोकतंत्र की सार्थकता साबित नहीं कर सकते। जब तक आम नागरिकों के जीवन को सुखी और समृद्ध नहीं बना सकते, लोकतंत्र के लक्ष्य से पीछे ही माने जाएंगे। यह तय किया जाना चाहिए कि जब तक निचले पायदान के लोगों की न्यूनतम आवश्यकताएं पूरी नहीं हो जाती, तब तक ऊपर के लोगों की सुविधाओं पर ब्रेक लगाया जाना चाहिए। वरना पं. दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद कोरी नारेबाजी बनकर रह जाएगा।

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