नेताजी हैं न (३)


                 डा. सुरेंद्र सिंह
राजनीति में राजनीति सत्तारुढ़ दल की, नौकरी में नौकरी आईएएस की, धंधे में धंधा प्रोपर्टी का धंधा। दसों उंगलियां घी में। पहले उत्तम खेती, मध्यम बान था, अब यह। खेती और प्रोपटी में जमीन आसमान का अंतर है। प्रोपर्टी होती तो जमीन पर ही है लेकिन खेती वाले धूल फांक रहे हैं, आत्महत्या कर रहे हैं,  प्रोपर्टी वाले आसमान चूम रहे हैं। सारे जहां की सुविधाएं उनके कदमों में। पैसा ऐसे बढ़ता है जैसे गरीब की लड़की,  इंजेक्शन लगी लौकी। सायं को चोइया सी और सुबह डेढ़ फीट लंबी। इसलिए इस शुभ कार्य से नेताजी क्यों दूर रहें।  नेतागीरी चाहे जिस दल की करें लेकिन प्रोपर्टी के धंधे में सब एक। भाई नेतागीरी बहुत महंगी हो गई है, दक्षिण के एक नेता ने यूं ही नहीं कहा - ‘‘अब यदि गांधीजी होते तो वह भी बिना पैसे के राजनीति नहीं कर पाते’’। ‘हमाम में सब नंगे’। बड़े नेता का बड़ा कारोबार, करोड़ों का टर्नओवर, उनसे छोटों का लाखों का। जिनकी हैसियत इससे भी कम हैं वे प्रोपर्टी बिकवाने, खरीदवाने का कार्य कर रहे हैं। 
चूंकि जमाना विषमता पार्टी का है इसलिए इस चोखे धंधे पर सबसे पहला, ज्यादा और  जन्मसिद्ध अधिकार उसका है। ऐसे ही जैसे पहले ‘देश की आजादी जन्म सिद्ध अधिकार’ था। नेताजी हर काम में सबको साथ लेकर चलते हैं, इसमें क्यों छोड़ दें। चेले साथ में हैं तो थोड़ा सही रहता है।   
किसी से संपत्ति खरीदनी है। पहले उसे फंसाओ या फंसा हुआ तलाशो। महानगरों में ऐसे एक नहीं हजार मिल जाएंगे। सीधेसादे एक व्यवसायी ने अपनी सारी जमापूंजी लगा और भारी कर्ज ले मौके की जगह आलीशान मार्केट बनवाया। बड़ी हसरतें थीं, बहुत सारे सपने । लेकिन नक्शा पास नहंीं कराया। जरूरत ही कहां थी?  उसने क्या उसके पास जितना भी मार्केट है, उनमें से किसी ने पास नहीं कराया।  मौके की जगह कोई कामर्शियल बिल्डिंग ऐसे तो बनती नहीं, ऊपर वालों को समझना तो पड़ा ही था। थोड़ा बहुत नहीं अच्छा खासा। आए दिन यम की तरह खड़े रहते। खैर जो भेंटपूजा हुई सो अलग। बिल्डिंग बहुत बढ़िया बनी।  ग्राहक दुकान खरीदने को आने लगे तो अचानक  बिल्ंिडग पर आए दिन छापे। छापे पर छापे। सुबह भी छापे, रात में भी छापे। छापे वाले तोड़ने से नीचे बात ही न करें। -‘‘ये तो टूटेगी ही कोई नहीं बचा सकता’’। तोड़ने के आदेश साथ में। व्यवसायी को हार्ट अटैक की नौबत। इस बीच उसके पास बिल्डिंग के खरीददार आने लगे। दाम कोई जमीन की कीमत से ज्यादा देने तैयार नहीं। साथ में घाव और कुरेदें, ‘‘ये बिल्डिंग तो टूटेगी, जब आदेश हैं, अखबारों छप रहा है तो इसे अब परमात्मा भी नहीं बचा सकता’’। व्यवसायी ने रोज-रोज के छापों से तंग आकर बिल्Þिडंग औने-पौने में ठिकाने लगा दी। ‘जान बची और लाखों पाए’। जानते हो बिल्डिंग किसने खरीदी? नेताजी ने। तब से कई साल बीत गए। एक वह दिन था और एक आज का दिन है। कभी कोई छापे को नहीं आया। ध्वस्तीकरण आदेश भी पता नहीं कहां गुम हो गया? उसे आसमान खा गया या धरती निगल गई? 

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