नेताजी हैं न


       डा. सुरेंद्र सिंह
ये पार्टियां भी मौसम की तरह आती-जाती रहती हैं। कभी किसी का वक्त तो कभी किसी का। सदा मौसम कहां एकसा रहता? एक जमाने में कांग्रेस तो थी ही लेकिन तूती युवक कांग्रेस की बोलती थी, कहीं भी आते-जाते  छोटी-मोटी बातों को लेकर दे दनादन दे दनादन। रेलगाड़ी में बेटिकट पकड़े जाएं तो हंगामा, पानी नहीं हो तो हंगामा। लेकिन अब कोई ऐसी चीजों के लिए झगड़ेगा तो उसे चिलमचोट्टा समझ पार्टी से फौरन बाहर कर देंगे, ‘‘फटीचर कहीं का..  रेल टिकट के लिए पैसे नहीं हैं, चला है नेतागीरी करने....’’। 
जमाना बदला है। तो कोई अकेले नहीं बदला। सबके साथ बदला है। पार्टियां भी बदल गई हैं, नेता और कार्यकर्ता सब बदल गए हैं।  लोग बड़ी-बड़ी कारों में रुतबे के साथ चलते हैं। बीजेपी वाले चाहें तो कह सकते हैं यह ‘अच्छे दिनों’ का प्रमाण है। लेकिन विषमता पार्टी वाले ऐसा कहने दें तब न। हाथ डालकर हलक में से निकाल लेंगे, उनकी चीज को कोई कैसे हजम कर सकता है।  आजकल सबसे ज्यादा रुतबा इसी पार्टी का है। उनकी कारों पर पार्टी के  झंडे ऐसे लहराते है, जैसे अश्वमेघ यज्ञ की कीर्ति पताका। उसकी सरकार है कोई हंसी खेल नहीं। नेताजी के मुंह में दिन में कोई दस-बीस बार वेदवाक्य की तरह ये उवाच होता है- ‘सरकार है, उनकी पार्टी की, सरकार है, कोई क्या कर लेगा’। पार्टी नेतृत्व कह-कह कर और सरकूलर निकाल-निकाल थक गया। निर्देश देने की भी कोई सीमा होती है।  गाड़ियों से झंडे हटने की बजाय और ज्यादा लग गए। कभी इनमें से ज्यादातर गाड़ियों पर हाथी पार्टी के झंडे सुशोभित थे। सरकार बदली है तो वे क्यों नहीं बदलें? आखिर विकास का लाभ उनको भी मिलना ही चाहिए। 
विषमता पार्टी का रुतबा उसके कार्यकर्ताओं के चेहरे पर दिखता है, जुबान पर दिखता है, कपड़ों पर दिखता है, गाड़ियों पर दिखता है, चलने-बैठने-उठने के ढंग में भी दिखता है।  कह सकते हैं,‘सिर चढ़कर बोलता है’। उसके रुतबे की बात ही अलग है। सारी पार्टियां एक तरफ, विषमता पार्टी एक तरफ। पलड़ा उसी का भारी रहेगा। यदि दंगल में उतार दिया जाए तो सब पर भारी पड़ेगी। यह रुतबा समाजवाद की तरह सबके साथ एक समान चलता है, क्या अधिकारी, क्या चपरासी, क्या मजदूर। ‘सब धान एक पसरी’।  क्या मजाल कोई सामने आ जाए। ‘चलो हटो नेताजी आ रहे हैं’, सब जगह उनकी चलती है । टौल टैक्स पर गाड़ियों की लाइन लगी है, छुटभैया कार्यकर्ता-ऐंठ कर दर्प के साथ कहेगा-‘‘ये दिखता नहीं हैं, नेताजी की गाड़ी है, नेताजी की, पीछे की गाड़ी में बैठे हैं  जिला अध्यक्ष, बात कराऊं?’’ वह फोन कान की तरफ लगाता है, टोल कर्मचारी  समझदारी से विनम्रतापूर्वक ऐसे कहता है जैसे कोई गलती तो नहीं कर रहा- ‘‘एक गाड़ी निकाल लो, सरजी, एक की रसीद कटा लो’’। -ज्यादा दिमाग खराब है क्या? जानता नहीं हमारी पार्टी की सरकार है...’’ कर्मचारी अपराधबोध से मुंह लटका लेता है, हाथ से सहायकों को इशारा कर देता है- ‘‘जाने दो’’। पीछे लाइन में लगे लोग लिस्ट देकर कहते हैं छूट वाली सूची में किसी भी पार्टी के जिला अध्यक्ष तो नहीं आते, फिर इन्हें क्यों? टोल कर्मचारी भी यह जानता है लेकिन कौन झगड़ा मोल ले। गाड़ियां आगे बढ़ जाती हैं।  कार्यकर्ताओं के चेहरे सूरजमुखी की तरह खिल उठते हैं, झकाझक-‘‘साला समझता नहीं नेताजी हैं’’। बोल- ‘विषमता पार्टी जिंदाबाद’।

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