पुरस्कार

                   
                 डा. सुरेंद्र सिंह
जब से कई श्रीमानों को पुरस्कार मिलने की सुनी है, मेरे मन में सांप लोटने लगे हैं। इतने साल हो गए समाज सेवा करते, कलम चलाते, शरीर भी साथ छोड़ रहा है लेकिन झूठे को भी पुरस्कार नहीं मिला। यार-दोस्त, मिलने वाले, रिश्तेदार सभी टोकते हैं, तुम्हारे इस किए से क्या लाभ? एक छोटा सा भी पुरस्कार तक नहीं पा सके। उदाहरण देते हैं, देखो, फलां को पुरस्कार पर पुरस्कार मिलते जा रहे हैं। तुम किसी से कम थोड़े ही हो। अब तो घर से निकलने, लोगों का सामना करने की भी हिम्मत नहीं पड़ती।
लोग तो कहते हैं, दिन में तारे दिखाई देते हैं लेकिन मुझे रात दिन पुरस्कार ही पुरस्कार दिखाई देते हैं। हर वक्त दिमाग पुरस्कारों में घूमता  है। लगता है कहीं पागल नहीं हो जाऊं। सपने भी पुरस्कार के ही आते हैं। कभी पुरस्कार चयन समिति द्वारा आवेदन खारिज करने तो कभी पुरस्कार मिलने के। राष्ट्रपति पुरस्कार दे रहे हैं, मैं लोगों की तरफ सीधी निगाह करके ऐंठते हुए देख रहा हूं, देखो टुच्चियो, मिल रहा है मुझे भी पुरस्कार।
सबेरे दोस्त के पास पहुंचा। देखो. आज सपने में तो पुरस्कार मिल गया। किसी छोटे-मोटे के हाथ से नहीं राष्ट्रपति के हाथ से।  सुबह के वक्त देखा है। कहते हैं सुबह का सपना सच होता है।  -‘‘हत् तेरे की, सपने देखने से पुरस्कार नहीं मिलते। सपने और हकीकत में बहुत फर्क हैं’’। मैं निराश नहीं हुआ। पंडितजी के पास गया। एक सौ एक रुपये हाथ पर रखे। बताओ-‘‘मेरे भाग्य में पुरस्कार का संयोग है या नहीं? उन्होंने बहुत देर तक हाथ देखा फिर कुछ पूछताछ करके पत्रा पर निगाह डाली, ऐसा लगा कि पंडित जी गहन चिंतन कर रहे हैं। बोले-‘‘हाथ में पुरस्कार की रेखा तो है लेकिन इस वक्त राशि पर शनि, साढ़े साती और ढैया का प्रकोप है। इसलिए देरी हो सकती है। लेकिन पुरस्कार जरूर मिलेगा। भगवान के यहां देर है, अंधेर नहीं’’। मुझे लगा किसी ने जोर का धक्का दिया है। पंडित जी फिर कुछ सोच विचार कर बोले- ‘‘लेकिन कुछ अनुष्ठान करके ग्रहों के प्रकोप को कम किया जा सकता है’’। इससे कुछ धीरज बंधा। मैंने  तुरंत कहा-‘‘हां, हां बताइए’’। उन्होंने तमाम चीजों के नाम बता दिए, ये सब लेकर आ जाना। अमावस्या की काली रात को फलां पहर में अनुष्ठान करना पड़ेगा। मैंने सोचा ये सामान मिले या नहीं मिले, कोई कमी पड़ गई तो सारी मेहनत पर पानी फिर सकता है। पता नहीं कहां-कहां चक्कर लगाने पड़ेंगे। सो मैंने पांच हजार एक सौ रुपये में सौदा पटा लिया। अपने को कुछ करना ही नहीं था, दान दक्षिणा सब इसी में था।  मैं भी खुश और पंडित जी भी खुश।
महीनों पंडितजी के अनुष्ठान का असर देखा। बाबा आबे तो घंटा बाजे। पंडितजी कहते- ‘‘इंतजार करो’’। लेकिन इंतजार की एक हद होती है। हिम्मत टूटने लगी तो गुरूजी के पास गया। उन्हीं की कृपा से पीएचडी से लेकर सब कुछ हासिल किया है। वे जरूर मदद करेंगे। उन्होंने गंभीरता से पूरी बात सुनी और मेरे दु:ख से सहमति जताई। -‘‘एक जुगाड़ है, लखनऊ की संस्था साहित्यकारों को हर साल पुरस्कार और साथ में धनराशि भी देती हैं। दस-पंद्रह हजार रुपये का इंतजाम करना पड़ेगा’’। -‘‘वह काहे लिए?’’- ‘‘इसे संस्था को देंगे। संस्था का आयोजन में कुछ तो खर्च होगा ही, शील्ड और सर्टीफिकेट बनेगा। फिर कुछ आपको भी मिलेगा। कहां से आएगा, यह सब?’’ मैंने हामी भरली। पत्नी को बिना बताए कहीं से उधार लाकर गुरूजी के हाथ में थमा दिए। दो महीने बाद गुुरूजी का फोन आया-‘‘संस्था के पास बहुत से आवेदन आ गए थे। इसलिए इस साल पुरस्कार नहीं मिल पाएगा। आ्रपका नाम वेटिंग में डाल दिया गया है’’। मैं वेटिंग खत्म होने का इंतजार करने लगा।
पड़ोसी की सलाह पर एक नेताजी के पास चला गया। नेताजी कई पुरस्कार वितरण समारोहों में मुख्य अतिथि का पद सुशोभित कर चुके हैं। मुझे लगा कि इनकी जुगाड़ जरूर होगी। फिर अपने नेताजी के हाथ से पुरस्कार लेना अलग ही सम्मान की बात है। वह मुझे देखते ही बोले-‘‘कहां थे बरखुरदार? तुम तो ईद के चांद हो गए हो?’’ मैं कुछ सफाई देता। बोले-‘‘बताओ क्या समस्या लेकर आए हो? पहले आपकी सुनते हैं’’ उन्होंने मेरी बात तसल्ली से सुनी। फिर एक उलाहना दिया-‘‘तुम्हारे मोहल्ले से हमें एक भी वोट नहीं मिला। तुम हमारे लिए काम ही नहीं कर रहे हो। खैर कोई बात नहीं अब तक न सही तो अब सही। चिंता मत करो। बहरहाल हमारे लिए काम करो। ये लो सदस्यता बहियां, ज्यादा से लोगों को सदस्य बनाओ। कुछ चंदा भी करो, आखिर टिकट और चुनाव के लिए पैसा तो चाहिए ही। नेतागीरी बहुत महंगी हो गई है। पुरस्कार की चिंता मत करो, यह हम पर छोड़ो, बहुत मौके आते हैंं, कहीं न कहीं तुम्हारा नाम घुसेड़ देंगे । बड़े पुरस्कारों के लिए नाम की सिफारिश कर देंगे। ’’ सदस्यता बहिया लेकर मैं लौट आया।
 इस बीच एक पुराना बेरोजगार दोस्त आकाशीय बिजली की तरह आ धमका। कई बार रुपये लेकर आज तक वापस नहीं दिए, निकम्मा, लंपट कहीं का। मन में आया बाहर से ही वापस दूं। ये और दु:ख में दु:खी करने आ गया। लेकिन कुछ सोच कर अंदर बुला लिया। उसने श्रीमतीजी से हुक्म के अंदाज में कहा-‘‘भाभीजी अच्छी सी चाय बनाओ, साथ में गरमागरम पकोड़े भी, बहुत दिन हो गए आपके हाथ के पकोड़ खाए।  बहुत अच्छी योजना लेकर आया हंूं’’। मैं इशारे से मना करने वाला था कि इस निठल्ले के लिए अपना टाइम खराब नहीं करना। फिर कुछ सोचकर रह गया। उसने चाय की चुस्कियों के बीच जो बताया मैरी तो बांछे खिल उठीं। तब से मैं और मेरा दोस्त एक संस्था बनाकर पुरस्कार बांटने का काम कर रहे हैं। आवेदन वही इकठ्टे करता है, पैसा भी नहीं लाता है। पुरस्कार वितरण समारोह में खूब खर्च करने के बाद भी दोनों के खर्च लायक पैसे बच रहते हैं। टीवी और अखबारों में वाहवाही होती है, वह अलग। मैं खुश हूं, अब मुझे पुरस्कार लेने की जरूरत नहीं क्योंकि मैं खुद बांटता हूं। बड़े-बड़े लोगों की सिफारिशें आती हैं। आपको अपने लिए या किसी परिचित के लिए चाहिए तो जरूर बताना, बिना संकोच के।

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