भ्रष्टाचार के खिलाफ अलख

      
       डा. सुरेंद्र सिंह
केंद्रीय कैबिनेट ने भ्रष्टाचार निरोधक कानून में सशोधन कर यह संकेत देने का प्रयास किया है कि वह भ्रष्टाचारियों के खिलाफ है, उन्हें कड़ा दंड देना चाहती है ताकि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाकर भ्रष्टाचारियों को हतोत्साहित किया जा सके। इसके तहत भ्रष्टाचारियों को सात साल तक और न्यूनतम छह माह से बढ़ाकर तीन साल की सजा का प्रावधान कर दिया है। यही नहीं, भ्रष्टाचार के मामले अब दो साल में निस्तारित किए जाएंगे जबकि अब तक औसत ऐसे केसंों के निस्तारण में आठ साल का समय लग रहा था।
कोई दो राय नहीं कि  भ्रष्टाचार के मामले में मोदी सरकार के इरादे नेक हैं। वह वैसे भी आये दिन भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलते रहते हैं। व्यकिगत तौर पर तो वह सर्वथा बेदाग हैं,  पर सवाल यह है कि क्या इतने भर से भ्रष्टाचार पर अंकुश लग पाएगा? याद रहे कि बलात्कार की घटनाएं रोकने के लिए इससे भी अत्यधिक कड़े प्रावधान किए गए हैं। बलात्कार के दोषियों को न केवल आजीवन कारावास बल्कि बलात्कार में  मृत्यु और बेहोशी में फांसी तक की सजा की व्यवस्था की गई है।  इसके साथ धड़ाधड़ आजीवन कारावास और फांसी की सजा भी सुनाई गईं।  नि:सदेह अदालत ने ऐसे ममलों में न्याय के प्रति न केवल तत्परता बल्कि संजीदगी दिखाई है। क्या इसके बाद बलात्कार की घटनाओं मेंं कमी आई है? बिल्कु ल नहीं। 16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में जिस 23 वर्षीया निर्भया के साथ बलात्कार की घटना को लेकर देश उबला, उसके बाद न केवल दिल्ली बल्कि पूरे देश में बलात्कार की घटनाएं बेतहाशा बढ़ी हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की 2014 की रिपोर्ट के अनुसार 2012 में पूरे देश में 24923 बलात्कार की घटनाएं हुईं। जबकि 2013 में बढ़कर 33707 हो गईं। दिल्ली में 2012 में 585 बलात्कार की घटनाएं हुई जो 2013 में बढ़कर 1441 यानि दोगने से भी ज्यादा हो गईं। दिल्ली देश का सबसे असुरक्षित महानगर है। जाहिर है कि भ्रष्टाचार निरोधक कानून सख्त करने से भी समस्या का हल दिखाई नहीं दे रहा।
दूसरे अपराधों और भ्रष्टाचार में यह फर्क है कि दूसरे अपराधों का खामियाजा तो गिने-चुने लोगों को भी भुगतना पड़ता है जिन्हें निशान बनाया जाता हैे लेकिन  भ्रष्टचार का खामियाजा पूरी जनता को भुगतना पड़ता है। उदाहरण के लिए कोई सड़क खराब बना दी जाए तो उससे गुजरने वाले हर आदमी को खामियाजा भुगतना पड़ता है। उस पर दुर्घटनाएं होती हैं, वाहन खराब होते हैं, परेशानी उठानी पड़ती है, वह अलग। कानून में यह संशोधन बुखार रूपी भ्रष्टाचार में पैरासीटामोल गोली की तरह भी काम नहीं नहीं कर पाएगा, जिसे खाने पर बुखार तो तत्काल उतर ही जाता है, मरीज को ठीक करने के लिए दूसरी दवाओं का सेवन करना पड़ता है।
इसके मायने यह नहीं कि भ्रष्टाचार निरोधक कानून किसी काम का नहीं है। न से कुछ भला लेकिन भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए  केवल इतने भर से काम नहीं चलेगा। लोकपाल भी समस्या का मुकम्मल हल नही है। इसके अलावा भी बहुत कुछ करने की जरूरत होगी।
भ्रष्टाचार बहुत गंभीर समस्या है। यह लोकतंत्र के नाम पर अभिशाप है। यह ऐसी दीमक है जो देश की व्यवस्थाओं को कमजोर और असहाय कर रही है। इसके जरिए चंद लोग आम जनता के हकों पर दिन दहाड़ेÞ डाका डालते हैं। याद रखना चाहिए कि मोदी सरकार के गठन के बाद इसमें कमी आने की बजाय इजाफा ही हुआ है। यह ठीक है कि उनके शासन में कोई बड़ा घोटाला अभी तक सामने नहीं आया लेकिन आम भ्रष्टाचार बड़े घोटालों का भी बाप है। इसका दंश हर आम आदमी को झेलना पड़ता है। किसी से छुपा नहीं है कि अब बिना पैसे दिए शायद ही कोई सरकारी काम नहीं होता है। इसलिए मोदी सरकार की यह महती जिम्मेदारी है कि वह इस पर अंकुश लगाने के लिए और प्रयास करें। तकनीक इसमें बहुत कुछ सहायता कर सकती है। निजीकरण भी एक उपाय हो सकता है। ऐसे बहुत सारे तरीके अपनाये जा सकते हैं।
इसके अलावा समाजिक स्तर पर भी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ा जाना चाहिए। एक जमाने में तमाम सामाजिक बुराइयों से लड़ने के लिए संगठन थे। उनमें हिम्मत थी, जज्बा था, लगन थी। उन्होंने सामाजिक चेतना जगाई, जिसके कारण अब वे बुराइयां न्यूनतम हो गई हैं। भ्रष्टाचार समाज को ही खोखला कर रहा है लेकिन कतिपय सामाजिक संगठन इसके खिलाफ अलख जगाने की बजाय खुद इसमें लिप्त हैं। घोर चिंताजनक है कि उन्होंने समाज सेवा को भी भ्रष्टाचार का एक जरिया बना लिया है।
    
 

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