मुआवजे का महाभारत

               
     डा. सुरेंद्र सिंह
एक महाभारत व्दापर में हुआ, वह १८ दिन हुआ और खत्म हो गया। इसके बाद तमाम तरह के कभी न खत्म होने वाले महाभारत शुरू हो गए हैं,  आए दिन होते ही रहते हैं, यदि नहीं होंं तो लगता है, कुछ हुआ ही नहीं। अभी कुछ महीने पहले चुनाव का महाभारत था, कभी संसद में तो कभी विधान सभाओं में महाभारत होते ही रहता है। गांव-गांव और नगर-नगर महाभारत ही महाभारत हैं। आजकल किसानों के मुआवजे पर महाभारत चल रहा है।  एक तरफ के योद्धा तीर चला रहे हैं- ‘‘इससे कुछ नहीं होगा इतने से चेक भुनाने का किराया- भाड़ा और एक खीरा खाया जा सकेगा। दूसरी तरफ से तीर कम मुआवजे की राशि पर लेखपालों को सस्पेंड करके विरोधी तीरों को निष्प्रभावी किया जा रहा है। फिर इधर से धरना प्रदर्शन की अमोघ शक्ति चलाई जाती है तो उधर से केंद्र को एक हजार करोड़ की मांग का पत्र भेजने का ब्रह्मास्त्र। ‘‘लाओ दिलवाओ, ज्यादा बांट देंगे’’।
मुआवजा काफी महत्वपूर्ण चीज है। यह मुनाफा है, प्रतिफल है, भरपाई है,  व्यवसाय है, राजनीति है, जय और पराजय है। दु:खदायी है। बीमारी है, मौत है। क्लेश है। लेखपाल तो वेचारे बुरे फंस गए, कमाई के सारे काम छोड़ रात दिन इसी में लगे हैं। ऊपर के अधिकारियों की भी मुआवजे को लेकर खैर नहीं। सबकी छुट्टियां रद्द। न सालियों के पास जाने के लिए टाइम है और न दोस्तों के साथ पिकनिक मनाने का।
मेरे पड़ोस की एक फैक्ट्री में हर साल आग लगती है। बिना नागा। न मालिक के चेहरे पर शिकन आती है और नहीं कर्मचारियों के। किसी को पता ही चलता, सब कुछ गुपचुप और स्वाभाविक गति से हो जाता है। सब खुश हैं, मालिक,  अग्निशमन विभाग से लेकर मुआवजा देने वाली कंपनी के अधिकारी और कर्मचारी तक।
इसे देखिए। रामदयाल कल मट्ठा पीकर  घर से बाहर जाने के लिए उठा तो जोरू बेलन लेकर खड़ी हो गई। -‘‘हमें नहीं चाहिए ६० रुपये का मुआवजा। जितने लाओगे, उससे ज्यादा खर्च हो जाएंगे’’। रामदयाल  की सिट्टी-पिट्टी गुम।  हिम्मत करके बोला-‘‘भाग्यवान, सरकार ने मुआवजे की राशि बढ़ा दी है, अब कम से कम १५०० रुपये का चेक मिलेगा’’। -‘‘हमें नहीं लेना। इतने से क्या हो जाएगा। इनमें से कुछ तो पैसे पेट्रोल में खर्च हो जाएंगे। जितने दिन में यह पैसा आएगा उतने दिन में मजदूरी करके कमा लेंगे। लाखों का नुकसान हुआ है, यही समझ लेंगे कि १५०० रुपये का और हो गया’’। -‘‘पड़ोसी आ गया है, वह भी चल रहा है’’। -‘‘नहंीं, हरगिज नहीं, चाहे कोई आ जाए’’। आपस में ही होने लगा महाभारत।
गांव में नेता लोग आ गए हैं, पत्रकारों के दल के साथ। हरेक के बयान ले रहे हैं, फोटो भी खिंचवा रहे हैं। बूढ़ा किसान चिल्ला रहा है-‘‘कहा होगा, इससे? ये सब नेतागीरी है, हमारे पल्ले क्या आएगा? जब इनकी सरकार थी, तब इन्होंने और भी कम दिया था’’। नौजवान किसान बूढ़े का मुंह बंद कर रहे हैं. कुछ लोग उसके समर्थन में आ जाते हैं और कुछ नेताओं के समर्थन में। बूढ़ा फिर भी चुप नहीं होता। -जब इनकी सरकार होती है तब वे विरोध करते हैं और उनकी होती है तो ये विरोध करते हैं लेकिन देता कोई  कुछ नहीं’’। -‘‘नेताजी अब अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं तो क्या कभी-कभी काम में भी आते हैं। एक आधुनिक किसान बड़बड़ाता है।
एक बूढ़ा बाप छिपता फिर रहा हैं, उसके नालायक बच्चों की निगाह उसके मर जाने से मिलने वाले सात लाख रुपयों पर है। -‘‘क्या करेगा अब यह जीकर। रात दिन खांसता रहता है। न दिन में चैन से रहने देता     और न रात में। बहुत जी लिया। हमारा तो इतना जीने का भी भरोसा नहीं’’। एक पिताजी के मरने पर उसके चार बच्चों मेंं मुआवजे के लिए दंगमदंगा चल रहा है। बड़ा कह रहा है- पिताजी मेरे पास रहते थे, मैं ही उनका सारा खर्च चलाता था, इसलिए मुआवजा मुझे ज्यादा मिलना चाहिए’’। बाकी तीनों बराबर के लिए लड़ रहे हैं।
मुआवजा तरह-तरह का होता है? यह आदमी-आदमी में फर्क करता है। वोट की कीमत भले हर आदमी की एक है चाहे राष्ट्रपति हो या भिखारी, लेकिन हवाई जहाज में आदमी मर जाए तो उसका मुआवजा ज्यादा, रेलगाड़ी से मर जाए तो उससे कम। कार से मर जाए तो उससे भी कम। बिजली के करंट से मर जाए तो उससे भी कम। बैलगाड़ी से मर जाए तो बिल्कुल नहीं।
कुछ लोग मुुआवजे के लिए हर समय लालायित रहते हैं। जाने कैसे-कैसे तरीके निकाल लेते हैं। एक प्रोफेसर के पास एक छात्र पीएचडी करने गया। छात्र के पापा पुलिस में अफसर। प्रोफेसर ने शर्त रखी कि मैं अपनी कार कहीं बाहर बेच दूंगा, उसे चोरी दिखवाकर मुआवजा दिलवा देना।
कुछ चतुर लोग जहां किसी सरकारी योजना के लिए जमीन अधिग्रहीत होती है, वहां पहले से सुराग लगाकर किसानों से ओने-पौने भाव जमीन खरीद लेते हैं, उसका मुआवजा लेकर खुद मालामाल हो जाते हैं, किसान टापते रह जाते हैं। कुछ बड़े अधिकारी तक इस गेम में शामिल रहते हैं।
मुआवजे के क्षेत्र में बहुत स्कोप है। इसके लिए अलग से विभाग स्थापित किया जा सकता है। मुआवजे पर प्रवचन दिए जा सकते हैं।  मुआवजे पर किताब लिखकर कमाई की जा सकती है। मुआवजे का नि:शुल्क सहायता केंद्र खोलकर उसकी आड़ में दलाली की जा सकती है। लेकिन मेरे में इतनी अकल नहीं है। जिनमें अकल है, वे यह सब काम कर भी रहे होेंगे, क्या पता?
इसलिए हे किसान देवताओ! आप निराश मत होइए,  आप अन्नदाता हो, यह पहला मौका नहीं है, जब आप पर आफत आई है। सदियों से प्रकृति के प्रकोप हंसी- खुशी झेलते आए हो, कभी उफ् तक नहीं की। रोने से और हाथ फैलाने से कुछ नहीं होगा। जिनसे मांग रहे हो, उनकी झोली तो आपके लिए पहले ही खाली है। हिम्मत से काम लीजिए, जान गंवाने से काम नहीं चलेगा। प्रकृति ने छीना है तो वही आपकी झोली भरेगी। और मेहनत करो।

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