‘भूसा खाओ सेहत बनाओ’

          
           डा. सुरेंद्र सिंह
समय के साथ सेहत और खानपान के पैमाने बदलते रहते हैं। किसी जमाने में घी स्वास्थ्य के लिए सबसे ज्यादा लाभप्रद था। महर्षि चर्वाक ने यहां तक कहा है-‘ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत’ अर्थात कर्ज लेकर भी घी पिओ। नाते-रिश्तेदारों से  लेकर देवताओं को प्रसन्न,दीपक जलाने से लेकर भोग लगाने तक घी  ही चाहिए, ।  घी है तो सबकुछ और घी नहीं है तो सब ‘गुड़गोबर’। भगवान श्रीकृष्ण के समय में मक्खन को सबसे बेहतर माना गया। मक्खन घी का ही एक अपरिष्कृत रूप है। नए जमाने में घी भोजन से ऐसे गायब है जैसे- ‘गधे के सिर से सीग’। लोग इसके नाम से ऐसे विदकते हैं जैसे सांप से। -‘‘घी है’’, -‘‘ना बाबा ना हटाओ, हटाओ’’।  हरी सब्जी, मौसमी फल तो उपयोगी हैं ही। बिना छने आटे की रोटी,  मिनरल वाटर, आयोडीनयुक्त नमक भी सेहत के लिए रामबाण कहे जाते हैं। मट्ठा जिसे पहले लोग जानवरों को पिलाना पसद करते थे, अब आदमियों ने उनसे छीन लिया है। यदि पढ़े लिखों की जमात में बीस गिलास घी पड़े दूध के और इतने ही मट्ठे के रखें हों तो लोग पहले मट्ठे पर टूट पड़ेंगे, दूध को दूर से देकर नमस्कार कर लेंगे।
लोग आगे चलकर यह कहने लगें कि गेहूं की बजाय भूसा ज्यादा लाभदायक है तो हंसी-खुशी चलेगा। ‘भूसा खाओ, सेहत बनाओ’। जो यह कहेगा, उसे इसकी नई और महत्वपूर्ण खोज माना जाएगा। वह पुरस्कार का भी हकदार होगा। इसके लिए बहुत सारे तर्क हैं। इसमें वसा न्यून है। प्रोटीन. कार्बोहाइडेÑट्स  प्रचुर मात्रा में है।  फाइबर भी है। मोटापा नहीं आएगा।  गरिष्ठता और अपच नहीं होगा। साइड इफैक्ट रहित है। इसके साथ सब्जी की भी जरूरत नही होगी। जहां तक ताकत की बात है, बताओ भूसा खाने वाले जानवरों में ज्यादा ताकत होती है या गेहूं खाने वाले आदमियों में? बैल आदमी से चार गुना ज्यादा ताकतवर होता है।  भूसा गेहूं के पेड़ का ही तो तना है। ऐसे ही जैसे आलू उसके पेड़ का तना है।
बकरी हरी पत्तियां खाती है, वह तीन-चार आदमियों को पिलाने भर दूध देती है, जो महिला रोटी और सब्जी खाती है, वह एक बच्चे के लिए भी पर्याप्त दूध नहीं दे पाती। बकरीआदमी से  ज्यादा स्वस्थ भी रहती है। आदमी को बीमारी में बकरी के दूध की आवश्यकता बताई जाती है। जाहिर है,  गेहूं के हरे पेड़ खाने से ज्यादा लाभ रहेगा, आयुर्वेद में इसके ढेर गुण बताए हैं, यह रक्त, बल बर्धक और शीतकारी है। उस हालत में न गेहूं के बीज निकालने की जरूरत पड़ेगी और न इसके लिए किसी किसान को आत्महत्या करने की। न वर्षा और ओले रूपी ‘ नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी’।
देखो आदमी अब तक कितनी गलतफहमी में जी रहा था? अच्छी चीज जानवरों को खिला रहा था, खुद बेकार की चीज छोटे-छोटे बीजों पर जीवन निर्भर कर इतरा रहा था। लोग भूसे के अच्छे बिस्किट और नाना प्रकार के व्यंजन बना सकते हैं। अच्छी कमाई है इसमें। भूसा सस्ता भी है। यह सवा छह सौ रुपये प्रति कुंटल और गेहं १५०० से १८०० रुपये प्रति कुंतल। इससे महंगाई भी कम होगी। अच्छे दिनों की शुरुआत होगी।  लेकिन इसकी शुरुआत कैसे होगी? परंपरा की लकीर कैसे टूटेगी?  विशेषज्ञों के स्पेशल इंटरब्यू छपवाए जा सकते हैं। नेताजी से उद्घाटन करवा सकते हैं। विज्ञापन छपवा कर मार्केटिंग की जा सकती है। तरीके तो बहुत हैं। उपाय बताने बालों की कमी नहीं। इसके लिए किसी का इंतजार करने की भी क्या जरूरत है? ‘जो मारे सो मीर’।


Comments

  1. नयी नयी खोजें मानव का स्वभाव है. भटकाव भी उसकी प्रकृति है. अपनी अनंत इच्छाओं के शमन के लिए वो लगातार भटक रहा है, नये नये प्रयोग कर रहा है.. पूरब वाले पश्चिम जबकि पश्चिम वाले पूरब की ओर भाग रहे हैं. इस दौड़ में एक दिन मनुष्य को ये ज्ञान भी हो ही जायेगा कि उसके लिए कौन सा आहार उचित है और कौन सा अनुचित.. वैसे तो मनुष्य और जानवर दोनों animal की केटेगरी में ही आते हैं. इसलिए दोनों के भोजन एक हो जाएं तो कोई आश्चर्य नहीं !

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